इंडियन इंस्टीच्यूट ऑफ़ मैनेजमेंट, अहमदाबाद, ने अपने पीएचडी प्रोग्राम में दाखिले के लिए
अनुसूचित जाति, जनजाति और अन्य पिछड़ा वर्ग के लोगों को आरक्षण का फ़ायदा नहीं दिया। इसके ख़िलाफ़ एक आंदोलन शुरू हो चुका है और अकादमिक जगत के कुछ लोगों ने एक खुली चिट्ठी लिखी है।
आईआईएम बंगलुरू के एसोसिएट प्रोफ़ेसर दीपक मलगन और सिद्धार्थ जोशी ने एक खुला ख़त लिख कई अहम सवाल उठाए हैं। उन्होंने कहा है कि 'हालाँकि आईआईएम अहमदाबाद स्वायत्त संस्थान है, वह क़ानून तोड़ने को स्वतंत्र नहीं है और नियम क़ानून के मुताबिक़ उसे आरक्षण देना ही होगा।'
याचिका खारिज
जब आईआईएम के पीएचडी प्रोग्राम में दाखिले का विज्ञापन निकला और उसमें
आरक्षण का प्रावधान नहीं था तो लोगों का ध्यान इस ओर गया। कुछ लोगों ने इसके विरोध में गुजरात हाई कोर्ट में एक जनहित याचिका दायर की। हाई कोर्ट ने वह याचिका खारिज कर दी।
आईआईएम के निदेशक एरल डीसूज़ा ने अदालत में तर्क दिया कि न तो भारत का संविधान न ही कोई नियम उच्च स्तर की विशेषज्ञता वाले कार्यक्रम में आरक्षण की बात करता है।
इसका विरोध करते हुए जोशी कहते हैं, 'संसद ने दिसंबर 2017 में आईआईएम क़ानून पारित कर दिया, जिसके तहत तमाम आईआईएम को केंद्रीय शैक्षणिक संस्थान माना गया है। सभी केंद्रीय शैक्षणिक संस्थानों को अपने सभी कार्यक्रमों में दाखिले में अनुसूचित जाति, जनजाति और अन्य पिछड़ा वर्ग को आरक्षण देना अनिवार्य है। इस अधिनियम के पारित होने के बाद सभी आईआईएम ने आरक्षण लागू किया, पर अहमदाबाद ने पीएचडी प्रोग्राम में ऐसा नहीं किया।'
सरकारी मदद नहीं
इसके ख़िलाफ़ तर्क दिया जाता है कि आईआईएम केंद्र सरकार के पैसे से नहीं चलता है। इसके जवाब में जोशी कहते हैं कि आईआईएम सरकारी पैसे से ही बना है और उसने लंबे समय तक सरकार से पैसे लिए हैं।
एक तर्क यह भी है कि आईआईएम का पीएचडी प्रोग्राम उच्च शिक्षा का विशेष प्रोग्राम है। आरक्षण की माँग करने वाले इसका जवाब में तर्क देते हैं कि यह प्रोग्राम इंडियन इस्टीच्यूट ऑफ़ साइंस के इलेक्ट्र्किल, एअरोनॉटिकल या एअरोस्पेस से अधिक विशेष नहीं है। वहाँ आरक्षण है।
एक सच्चाई यह भी है कि आईआईएम के फेलोशिप प्रोग्राम में दाखिले में आरक्षण नहीं होने की वजह से इसके शिक्षकों में भी आरक्षित श्रेणी के अधिक लोग नहीं हैं क्योंकि इन शिक्षकों में ज़्यादातर लोग आईआईएम से ही चुने गए हैं।
बहरहाल, यह साफ़ नहीं है कि आईआईएम अहमदाबाद अपनी नीतियों में किसी तरह का बदलाव करेगा या नहीं। यह तो अगले साल के दाखिले के समय ही मालूम हो सकेगा।
यह मुद्दा बेहद संवेदनशील है और इसके राजनीतिक मायने हैं। सत्तारूढ़ दल बीजेपी और उसकी मातृ संस्था
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ यानी आरएसएस ने इसका समर्थन किया है। पर बीच बीच में उसके नेता इस तरह के कई बयान देते रहते हैं, जिससे इस पर सवाल उठना लाज़िमी है।
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