मोदी सरकार और रिज़र्व बैंक के बीच रस्साकशी में जीत किसकी हुई? ताली कौन बजाए? 19 नवम्बर को रिज़र्व बैंक बोर्ड के नौ घंटे तक चले महामंथन से अन्तत: क्या निकला, विष या अमृत? सबको यह सवाल मथ रहा है।
क्या थी असली मंशा?
इसका सही जवाब तभी मिल पाएगा, जब हम पहले ईमानदारी से एक और सवाल का जवाब अपने आप से पूछेंगे। वह यह कि जो हुआ, वह किस परिप्रेक्ष्य में हुआ? इसके पीछे असली मंशा क्या थी? क्या कुछ सैद्धांतिक और नीतिगत विषयों को लेकर सरकार और रिज़र्व बैंक के दृष्टिकोण अलग-अलग थे या सरकार की अपनी कुछ तात्कालिक राजनीतिक चुनौतियाँ और मजबूरियाँ थीं?
हाल बेहाल, चुनावी साल
पहली बात कि यह चुनावी साल है। लोकसभा चुनाव होने में सिर्फ़ पाँच महीने रह गए हैं। देश के बैंकों की हालत ख़स्ता है। पुराने डूबे हुए क़र्ज़ों के बोझ से वे बुरी तरह दबे हुए हैं। पिछले तीन साल से रिज़र्व बैंक ने उनके कान उमेठे हैं। एनपीए की पहचान करने और उन्हें बैंकों की बैलेन्स शीट पर लाने के लिए नये दिशा-निर्देश आए। तब पता चला कि क़रीब दस लाख करोड़ रुपये का क़र्ज़ डूबा पड़ा है, जिसकी वसूली की कोई ख़ास उम्मीद नहीं है। रिज़र्व बैंक के निर्देशों के तहत बैंकों को एक निश्चित सीमा में नक़दी अपने पास जमा रखनी ही पड़ती है।
नतीजा यह कि बैंक नये क़र्ज़े दे नहीं पा रहे थे। और अर्थव्यवस्था की गाड़ी बस किसी तरह घिसट रही है। नये रोज़गार पैदा नहीं हो रहे हैं। बड़ी-बड़ी कम्पनियों से लेकर मध्यम, लघु और अति लघु कम्पनियों के पास कारोबार बढ़ाने के लिए पैसे नहीं हैं।
सरकार के सामने सवाल था कि अब वह क्या करे? अपने राजकोषीय घाटे को सँभाले या बैंकों को पूँजी बढ़ाने के लिए और पैसा दे ताकि वे नये क़र्ज़ दे सकें और ख़ास कर मँझोले-छोटे उद्योगों को सहारा दे सकें। बैंकों को सरकार पैसा दे, यह सम्भव नहीं था।
बैंकोे के पास ज़्यादा पैसे हों और वे उद्योग जगत को अधिक कर्ज़ दे सकें, इसका रास्ता एक ही था कि रिज़र्व बैंक अपने रुख़ को लचीला करे और बैंकों के लिए जो अनिवार्य सुरक्षित जमा पूँजी का अनुपात है, उसे घटाए, ताकि बैंकों के पास क़र्ज़ देने के लिए अतिरिक्त धन उपलब्ध हो सके।
दो अहम फ़ैसले
19 नवम्बर की बैठक में तय हुआ कि बैंकों को अपना पूँजी पर्याप्तता अनुपात यानी कैपिटल एडिक्वेसी रेशियो बनाने की समय सीमा एक साल बढ़ा दी जाए।
इससे इस वित्त वर्ष यानी मार्च 2019 के अन्त तक बैंकों के पास तीन खरब रुपये की अतिरिक्त पूँजी उपलब्ध हो जाएगी, जिसे वह क़र्ज़ों के रूप में बाँट सकते है। यानी अगले पाँच महीनों में बैंक चाहें तो तीन खरब रुपये के क़र्ज़े दे सकते हैं।
अब ये क़र्ज़े कुछ साल बाद बैंकों को वापस लौटें, न लौटें, एनपीए बन जाएँ, यह बाद में देखा जाएगा। इससे यह भी होगा कि सरकारी बैंकों के ख़ाली ख़ज़ानों को भरने के लिए सरकार को अपनी जेब भी नहीं ढीली करनी पड़ेगी।
दूसरा फ़ैसला यह हुआ कि अति लघु, लघु और मँझोले उद्योगों (MSME) के 25 करोड़ रुपये तक के क़र्ज़ों के भुगतान का पुनर्निर्धारण किया जाए क्योंकि यह सेक्टर नोटबंदी और जीएसटी की दोहरी मार से बेहाल है और इसलिए अपने क़र्ज़ नहीं चुका पा रहा है। यानी इन उद्योगों के लिए अपने क़र्ज़ और ब्याज चुकाने की शर्तें नये सिरे से तय की जाएँ और उन्हें फ़िलहाल इससे राहत दी जाए।
अब यह सोचिए और समझने की कोशिश कीजिए कि सरकार को रिज़र्व बैंक का टेँटुआ क्यों दबाना पड़ा? क्यों धारा 7 की तलवार चमकानी पड़ी?
जब सरकार ने नोटबंदी की थी, तब सोच नहीं पाई कि इसका इतना ख़राब असर कहाँ-कहाँ किस रूप में पड़ेगा। बल्कि सरकार को उम्मीद थी कि कम से कम तीन-चार लाख करोड़ रुपये का काला धन पकड़ में आ जाएगा और इतने पैसे से वह बहुत-से लोकलुभावन काम कर लेगी।
लेकिन काला धन कुछ लौटा ही नहीं, उलटे नोटबंदी ने उद्योग-धन्धों और खेती-बाड़ी को चौपट कर दिया। रही-सही कसर जीएसटी ने पूरी कर दी।
जीएसटी हालाँकि बिलकुल सही क़दम है, लेकिन इसे जिस हड़बड़ी में और बिना किसी तैयारी के लागू किया गया, उसने आर्थिक गतिविधियों पर बहुत बुरा असर डाला। सरकार को जल्दी क्यों थी? वजह सिर्फ़ 2019 के चुनाव थे। सरकार चाहती थी कि जीएसटी लागू होने और लोकसभा चुनाव होने के बीच दो-ढाई साल का अन्तर हो, ताकि जीएसटी लागू होने के साल भर बाद स्थिति सामान्य हो जाए और उससे मिली पीड़ा लोग चुनाव आते-आते भूल जाएँ। लेकिन जल्दबाज़ी में इसे लागू करने से हुआ यह कि इसमें बार-बार सैकड़ों बदलाव करने पड़े और कारोबारी अभी तक जीएसटी के दंश से उबर नहीं पाए हैं।
नतीजा सही पर तरीक़ा नहीं
इसलिए, अब जबकि लोकसभा चुनाव को सिर्फ़ पाँच महीने रह गए हैं, सरकार किसी तरह बिगड़ी बातों को सुधारने के लिए हाथ-पैर मार रही है। रिज़र्व बैंक के साथ सरकार की ताज़ा रस्साकशी इसीलिए थी। और इसमें सरकार जीत गई है। वैसे वित्त मंत्रालय के अधिकारियों का मानना है कि यह सरकार की बस एक छोटी-सी जीत है। क्योंकि पहली बार रिज़र्व बैंक के बोर्ड ने सचमुच एक बोर्ड की तरह काम करना शुरू किया है।
इसके पहले तक सारे फ़ैसले केवल रिज़र्व बैंक गवर्नर लेता था। अब गवर्नर रिज़र्व बैंक बोर्ड के निर्देशों पर काम करेगा और उसकी हैसियत वही होगी, जो एक कम्पनी में सीईओ की होती है, जो अपने बोर्ड के प्रति जवाबदेह होता है।
सिद्धांत रूप में बिलकुल सही है कि रिज़र्व बैंक बोर्ड को ही नीतिगत फ़ैसले लेने चाहिए और गवर्नर को उन्हें लागू कराने का काम करना चाहिए। लेकिन इस निष्कर्ष पर हम अगर केवल सैद्धांतिक और नीतिगत कारणों से पहुँचे होते, तब और बात होती और उसके अर्थ भी अलग होते और नतीजे भी। लेकिन सच्चाई यह है कि इस घटना के पीछे सरकार की क़तई कोई नीतिगत सुधार की मंशा नहीं थी। जो कुछ हुआ, वह विशुद्ध राजनीतिक कारणों से हुआ। इसलिए पिछले साढ़े चार सालों में देश की तमाम सांविधानिक संस्थाओं की स्वायत्तता ढीली करने की जो लगातार कोशिशें हुईं हैं, उनकी कड़ी में अब रिज़र्व बैंक भी शामिल हो गया है।
अब यह तय आप करें कि 19 नवम्बर के महामंथन से क्या निकला, विष या अमृत?
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