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आरएसएस का साम्प्रदायिक नजरिया और जाति जनगणना, खेल समझिए

इस समय केरल के पलक्कड़ में आरएसएस की बैठक चल रही है। मोहन भागवत, दत्तात्रेय होसबोले और बीएल संतोष सहित आरएसएस के तमाम बड़े पदाधिकारी इस बैठक में मौजूद हैं। भारतीय जनता पार्टी के वर्तमान अध्यक्ष जेपी नड्डा भी उपस्थित हैं। जेपी नड्डा ने लोकसभा चुनाव के दौरान ऐलान किया था कि भारतीय जनता पार्टी के पास एक बड़ा संगठन है। वह चुनाव लड़ने में समर्थ है। उसे आरएसएस के सहयोग की जरूरत नहीं है। उस समय नड्डा के इस बयान के कई मायने निकाले गए थे। कतिपय विश्लेषकों का मानना था कि आरएसएस को हैसियत बताने के लिए नरेंद्र मोदी के इशारे पर यह बयान दिया गया है। इसीलिए आरएसएस की बैठक में नड्डा की उपस्थिति की चर्चा हो रही है। 
आरएसएस की इस बैठक का एजेंडा क्या है? इसमें भारतीय जनता पार्टी के नए अध्यक्ष के लिए चर्चा हो सकती है। 2024 के लोकसभा चुनाव में भाजपा की  हार पर भी मंथन हो सकता है। साथ ही आने वाले चार राज्यों के चुनाव पर भी बैठक में विचार विमर्श होने की संभावना है। सुनने में आ रहा है कि आरएसएस बीजेपी के भीतर बड़ा परिवर्तन करना चाहती है। नरेंद्र मोदी और अमित शाह की गुजरात लॉबी के भाजपा पर वर्चस्व को आरएसएस खत्म करना चाहती है। लेकिन एक दिलचस्प खबर है कि इस बैठक की चर्चा के केंद्र में राहुल गांधी हैं। दरअसल, राहुल गांधी की राजनीति से आरएसएस इन दिनों बेहद चिंतित है।
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राहुल गांधी ने पिछले तीन बरस के भीतर देश की राजनीति को क्रांतिकारी ढंग से बदला है। राहुल गांधी ने संविधान और सामाजिक न्याय के एजेंडे को भारतीय राजनीति के केंद्र में लाकर खड़ा कर दिया। इसने भारतीय जनता पार्टी की हिंदुत्व की राजनीति पर ग्रहण लगा दिया। भारत जोड़ो यात्रा से राहुल गांधी की नई राजनीतिक यात्रा शुरू हुई। इसके बाद बीजेपी की हार का सिलसिला शुरू हुआ। कर्नाटक विधानसभा चुनाव हारने के बाद आरएसएस ने स्पष्ट तौर पर कहा था कि अब नरेंद्र मोदी के ब्रांड और हिंदुत्व के एजेंडे से चुनाव नहीं जीते जा सकते। इसके बाद नरेंद्र मोदी ने गोदी मीडिया के सहारे अपनी ब्रांडिंग को और मजबूत किया। 
हिंदुत्व की राजनीति पर आगे बढ़ते हुए नरेंद्र मोदी ने आनन-फानन में आधे-अधूरे राम मंदिर का उद्घाटन किया। लेकिन इस बीच राहुल गांधी ने अपनी दूसरी भारत जोड़ो न्याय यात्रा में नया एजेंडा सेट कर दिया। लगातार अपने भाषणों से राहुल गांधी ने सामाजिक न्याय को राष्ट्रीय एजेंडा बना दिया।
1990 के दशक में हुई मंडल की राजनीति को राहुल गांधी ने नए अर्थ- संदर्भ में गढ़ा। उन्होंने सिर्फ ओबीसी पॉलिटिक्स को ही नहीं लिया बल्कि दलितों और आदिवासियों के मुद्दे को भी बड़े पैमाने पर उठाया। अपनी भारत जोड़ो यात्रा में राहुल गांधी ने अनेक आदिवासी समुदायों और दलित जातियों के पीड़ित लोगों से मुलाकात की थी। इस दरम्यान उन्होंने दलितों-आदिवासियों  के प्रमुख मुद्दों को आवाज दी। विदित है कि आरएसएस 1952 से ही आदिवासियों के बीच हिंदुत्व के प्रचार प्रसार में लगी है। रामायण और महाभारत की मिथकथाओं के एकलव्य और शबरी जैसे चरित्रों के जरिये आरएसएस आदिवासियों को बनवासी कहते हुए हिंदुत्व की धारा में समेटने की कोशिश पिछले 75 साल से कर रही है। 
राहुल गांधी ने मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान के विधानसभा और उसके बाद लोकसभा के चुनावी भाषणों में आदिवासी अस्मिता का सवाल को उठाया। उन्होंने बनवासी शब्द को खारिज करते हुए आदिवासियों को इस देश का पहला मालिक घोषित किया। डंके की चोट पर राहुल गांधी ने कहा कि इस देश के संसाधनों पर आदिवासियों का पहला अधिकार है। राहुल गांधी के इस प्रहार के आगे आरएसएस का हिंदुत्व एजेंडा ध्वस्त हो गया। नरेंद्र मोदी के भाषण दम तोड़ने लगे।
 इसका असर यह हुआ कि राहुल गांधी के नैरेटिव के आगे नरेंद्र मोदी ने घुटने टेकते हुए आदिवासियों को बनवासी कहना छोड़ दिया। इसके पहले नरेंद्र मोदी प्रतीकात्मक राजनीति के सहारे आदिवासियों को वोटबैंक बनाना चाहते थे। इसलिए उन्होंने द्रौपदी मुर्मू को राष्ट्रपति बनाया। लेकिन आदिवासियों के संसाधनों को मोदी ने अपने दोस्त अडानी को सौंपने में कोई संकोच नहीं किया। राहुल गांधी ने आदिवासियों के जल, जंगल, जमीन के अधिकारों के मुद्दे को धार दी। मध्यप्रदेश में भाजपा नेता द्वारा एक आदिवासी के मुंह पर पेशाब करने के मामले को उठाते हुए राहुल गांधी ने उनके सम्मान और स्वाभिमान का सवाल उठाया। 

पिछले एक दशक में दलित राजनीति हाशिए पर चली गई। भाजपा आरएसएस की हिंदुत्ववादी सत्ता में दलितों पर अत्याचार दो गुने हो गए। आज़ादी के बाद संविधान और बाबासाहब अम्बेडकर के विचारों के प्रभाव में दलित समाज अपने अधिकारों और सम्मान- स्वाभिमान के लिए चेतना सम्पन्न हुआ। उसके स्वभिमान को तोड़ने के लिए दलितों पर लगातार हमले हो रहे हैं।


राहुल गांधी दलितों के खिलाफ होने वाले अन्याय और अत्याचार के खिलाफ लगातार जूझते रहे हैं। दलितों के सपनों और संघर्षों को उन्होंने अपने भाषणों में दर्ज किया। राहुल गांधी लगातार दलित उत्पीड़न के मुद्दों पर खड़े रहे, चाहे रोहित वेमुला की आत्महत्या का मामला हो या ऊना में दलितों की सरेआम पिटाई का मामला अथवा हाथरस में वाल्मीकि समाज की बेटी के बलात्कार और उसके मौत के लिए न्याय का सवाल हो। स्वयं अपमान सहने के बावजूद राहुल गांधी दलितों के न्याय और सम्मान के लिए संघर्ष करते रहे। 

नरेंद्र मोदी के दस साल के शासन में दलितों पर सिर्फ अत्याचार ही नहीं हुए, उनके सपने और हौसले भी छीन लिए गए।


राहुल गांधी ने भारत जोड़ो यात्रा और न्याय यात्रा में दलितों वंचितों की शिक्षा, सरकारी नौकरी और आरक्षण का सवाल उठाया। लोकसभा चुनाव प्रचार में भारतीय जनता पार्टी ने संविधान बदलने के लिए 400 सीटें जीतने का संकल्प किया। असल में, 2024 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी का प्रमुख एजेंडा संविधान बदलना ही था। 1949 से ही आरएसएस डॉ अम्बेडकर द्वारा लिखित संविधान का विरोध करता रहा है। आरएसएस की मंशा मनुस्मृति के आधार पर लिखित संविधान को लागू करना है। राहुल गांधी ने बीजेपी और आरएसएस के इस खतरनाक मंसूबे को पहचान लिया। उन्होंने संविधान को हाथ में लेकर ऐलान किया कि वह संविधान बचाने के लिए जान भी देने के लिए तैयार हैं। इसका परिणाम यह हुआ कि दलितों-वंचितों के बीच राहुल गांधी की लोकप्रियता लगातार बढ़ती गई। 
आरएसएस ने दलितों के बीच समरसता और खिचड़ी भोज के जरिए सांप्रदायिक कहानियां सुनाकर उन्हें बीजेपी से जोड़ने में जो सफलता पाई थी, उसे राहुल गांधी ने एक झटके में समाप्त कर दिया। हालांकि यह अचानक नहीं हुआ था। पिछले 10 से जमीन पर चलने वाले आंदोलनों में लगातार इस बात को उठाया जा रहा था कि बाबासाहब ने 1940 में ही आरएसएस के मंसूबे को पहचान लिया था। इसीलिए डॉ.अम्बेडकर ने हिंदू राष्ट्र के विचार को दलितों के लिए सबसे बड़ी आपदा करार दिया था। एक धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र और संविधान ही उनका सुरक्षा कवच होगा।
राहुल गांधी ने संविधान की रक्षा के साथ जाति जनगणना की मांग की। पत्रकारिता से लेकर न्यायपालिका तक, विश्विद्यालयों के कुलपति से लेकर सचिवालय तक, कॉर्पोरेट संस्थानों से लेकर बॉलीवुड तक दलितों, पिछड़ों और आदिवासियों की हिस्सेदारी की बात राहुल गांधी ने बार-बार दुहराई। नुमाइंदगी के सवाल ने राहुल गांधी को इन समाजों के बीच ज्यादा लोकप्रिय बना दिया। इसका प्रभाव यह है कि राहुल गांधी आज एक जनप्रिय नेता बनकर उभरे हैं। दलितों वंचितों के नायक बन गए हैं। इसीलिए लोग उन्हें जननायक कहने लगे हैं। 

जाति जनगणना का मुद्दा भले ही बिहार से नीतीश कुमार और तेजस्वी यादव ने उठाया था लेकिन उसे धार राहुल गांधी ने दी। आज राहुल गांधी डंके की चोट पर यह कहते हैं कि जाति जनगणना के लिए वे राजनीतिक नुकसान भी उठाने के लिए तैयार हैं। जाति जनगणना होकर रहेगी। अगर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जाति जनगणना नहीं करेंगे तो अगले प्रधानमंत्री करेंगे।
इससे राहुल गांधी की लोकप्रियता और विश्वसनीयता ओबीसी समाज के भीतर पुख्ता हुई है। राहुल गांधी की इस मुहिम का असर आरएसएस की बैठक में भी दिखाई दिया। जाति जनगणना के विरोध करने की हिम्मत अब आरएसएस में भी नहीं है। इसलिए अखंडता और राष्ट्रीय सुरक्षा का भय दिखाने के बावजूद आरएसएस जाति जनगणना का समर्थन करने के लिए मजबूर हुआ है। यह सीधे तौर पर राहुल गांधी की राजनीति का असर है। यही कारण है कि आज भाजपा ही नहीं बल्कि आरएसएस के लिए भी सबसे ज्यादा चिंता का कारण राहुल गांधी हैं। इसमें कोई अतिश्योक्ति नहीं है कि जवाहरलाल नेहरू के बाद राहुल गांधी, गांधी-नेहरू परिवार और कांग्रेस पार्टी के पहले नेता हैं जो आरएसएस पर खुलकर प्रहार करते हैं। 
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वे आरएसएस की विभाजनकारी राजनीति और सावरकर के हिंदुत्व पर खुलकर चोट करते हैं। महाराष्ट्र के भीतर वी.डी. सावरकर को माफीवीर कहने वाले राहुल गांधी आरएसएस के ब्राह्मणवादी एजेंडे और मनुवादी सोच को खुलकर चुनौती देते हैं। वे इससे निपटने के लिए तैयार भी दिखते हैं। यही कारण है कि आरएसएस के केरल शिविर में जितनी चिंता आने वाले विधानसभा चुनावों में बीजेपी के प्रदर्शन की है, उससे ज्यादा चिंता राहुल गांधी की राजनीतिक सक्रियता, लोकप्रियता और सामाजिक न्याय के एजेंडे की है। आरएसएस के नेता जानते हैं कि सामाजिक न्याय या कमजोर जातियों को सशक्त बनाने के एजेंडे के सामने हिंदुत्व का एजेंडा नहीं टिक सकता। 

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रविकान्त
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