प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की 21 जून से प्रस्तावित अमेरिकी यात्रा के करीब 20 दिन पहले कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गाँधी ने अपनी अमेरिकी यात्रा के ज़रिए एक बड़ी लकीर खींच दी है। अप्रवासी भारतीयों और विश्वविद्यालय छात्रों से लेकर नेशनल प्रेस क्लब में अंतरराष्ट्रीय मीडिया से जुड़े पत्रकारों के बीच जिस सहजता से उन्होने कांग्रेस और बीजेपी की अवधारणा का फ़र्क़ समझाया, उसकी गूँज दूर तक सुनी गयी है। राहुल गाँधी की यात्रा से उठे सवालों से प्रधानमंत्री मोदी बचने की चाहे जितनी कोशिश करें, उनकी यात्रा इन सवालों की छाया में ही होगी।
राहुल गाँधी के कार्यक्रमों में उनके संबोधन के बाद सवाल-जवाब का औपचारिक सत्र अनिवार्य रूप से था। ज़ाहिर है, उनसे सवाल पूछने में कोई कोताही नहीं बरती गयी। खालिस्तान से लेकर यूक्रेन संकट तक के सवालों के ज़रिए उन्हें असहज करने की कोशिश की गयी। लेकिन राहुल गाँधी ने मुस्कराते हुए हर सवाल का जवाब दिया। सबसे बड़ी बात ये कि राहुल के जवाब में उनका ‘मैं’ पीछे और ‘भारत’ आगे था। यह बात रेखांकित की जानी चाहिए कि राहुल गाँधी ने बार-बार बताया कि कांग्रेस वही करना चाहती है जो महात्मा गाँधी के नेतृत्व में आज़ादी के आंदोलन का संकल्प लेने वाले नेताओं ने देश के साथ वायदा किया था। उन्होंने ज़ोर देकर कहा कि भारत में लोकतंत्र की जड़ें गहरी हैं। निष्पक्ष ढंग से काम करने वाली संस्थाओं का तंत्र मौजूद है जो शासन-प्रशासन पर अंकुश रखता आया है। मोदी सरकार ने इन्हें कमज़ोर किया है जो एक विचलन है जिसे ठीक करना विपक्ष का काम है।
अमेरिका में हुए विचार-विमर्श ने भारत के सबसे बड़े विपक्षी के नेता के दिमाग़ में बन रहे भविष्य के नक्शे को पूरी तरह स्पष्ट कर दिया है। और यह केवल राजनीति के बारे में नहीं है। राहुल गाँधी ने विशालकाय कारखानों में ‘गैरलोकतांत्रिक माहौल में चीनी उत्पादन पद्धति’ का जवाब लघु और मध्यम उद्योगों के ज़रिए लोकतांत्रिक माहौल में उत्पादन की भारतीय पद्धति को बताया तो वह एक ऐसी कल्पना पेश कर रहे थे जिसकी झलक अतीत में भारत दिखा चुका है और भविष्य में भी यह संभव है। लोकतंत्र को ‘नॉन-निगोशियेबिल’ बताकर उन्होंने पूरे ‘लोकतांत्रिक विश्व’ का ध्यान अपनी ओर खींचा है।
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भारत अपनी आबादी की वजह से एक बड़ा बाज़ार है जिसके साथ सभी बड़े देश रिश्ता रखना चाहते हैं। लेकिन यह भी सच है कि मोदी राज में भारत के लोकतंत्र पर गहराता संकट भी वैश्विक स्तर पर चर्चा में है। विपक्ष को ग़ैरज़रूरी समझने से लेकर मीडिया तक को झुका देने का नतीजा ये है कि भारत वर्ल्ड डेमोक्रेसी इंडेक्स में 108वें स्थान पर और प्रेस फ्रीडम इंडेक्स में 161वें स्थान पर गिर चुका है। मोदी के नौ साल के शासनकाल में इसमें लगातार गिरावट आयी है। राहुल गाँधी अगर लोकतंत्र के क्षरण, महँगाई और बढ़ती बेरोज़गारी की बात कर रहे हैं तो उसके पीछे ठोस आधार है।
पाँचवीं बड़ी अर्थव्यवस्था का गौरव-गान भी इस बात को ढँक नहीं सकता कि सरकारी स्तर पर ही भारत के 80 करोड़ लोगों का भोजन सरकार से मिले वाले मुफ्त राशन पर निर्भर है और प्रति व्यक्ति औसत आय के मामले में भारत 197 देशों की सूची में 142वे स्थान पर है। भारत की प्रति व्यक्ति आय 2601 डॉलर सालाना है। अमेरिका को तो छोड़ ही दीजिए जहाँ कि प्रति व्यक्ति औसत आय भारत से 31 गुना ज़्यादा है, प्रतिद्वंद्वी चीन की औसत प्रति व्यक्ति आय भी भारत से पाँच गुना ज़्यादा है। इस सबके पीछे कुछ हाथों में देश की संपत्ति केंद्रित करने का बीजेपी का आर्थिक सोच भी है जिस पर राहुल निशाना साध रहे हैं।
राहुल गाँधी के संबोधन में एक ख़ास बात यह भी रही कि उन्होंने मुस्लिमों पर हाल के दिनों में बढ़े अत्याचार को एक बड़े परिप्रेक्ष्य से जोड़ा। उन्होंने इसे दलितों, पिछड़ों, आदिवासियों पर एक खास विचारधारा की ओर से बढ़े अत्याचारों की ही कड़ी बताया। उन्होंने स्पष्ट किया कि यह दो अवधारणाओं की लड़ाई है। जहाँ कांग्रेस सबको साथ लेकर विकास करती है। लोकतांत्रिक संस्थाओं का सम्मान करती है। वहीं केंद्रीकरण और धार्मिक ध्रुवीकरण बीजेपी की नीति रही है जिसने भारत को आर्थिक और सामाजिक रूप से संकट मे डाला है। देश इसकी आर्थिक रूप से भी कीमत चुका रहा है।
राहुल गाँधी के अमेरिका में हुए संबोधनों से भारत में वे लोग राहत की साँस ले सकते हैं जो ‘आइडिया ऑफ इंडिया’ से जुड़े समावेशी भारत को बेहतर भविष्य के लिए ज़रूरी मानते हैं। राहुल गाँधी के चेहरे पर नज़र आ रहा धैर्य, उन लोगों के लिए निश्चित ही धीरज बँधाने वाला है जो लोकतांत्रिक संस्थाओं के बंधक हो जाने से अधीर हो चले हैं। उन्हें समझ में आ रहा है कि लड़ाई लंबी है और इसे धैर्य से ही लड़ना होगा। इस लड़ाई को धुप्पल से नहीं, तीखे वैचारिक संघर्ष से ही जीता जा सकता है जिसमें समय लग सकता है।
प्रधानमंत्री मोदी जब अमेरिका जाएँगे तो राहुल गाँधी की ओर से उठाये गये सारे सवाल उनके बीच ताज़ा रहेंगे जो उनके कार्यक्रमों में मौजूद थे या फिर सोशल मीडिया के ज़रिए रूबरू हुए। प्रेस भी चाहेगा कि प्रधानमंत्री मोदी इन सवालों का जवाब दें लेकिन जब प्रधानमंत्री मोदी ने नौ साल से कोई प्रेस कान्फ्रेंस नहीं की है तो वहाँ किसी को जवाब देंगे, इसकी कोई उम्मीद भी नहीं है। वैसे भी टेलीप्राम्पटर के सहारे बोलने वाले प्रधानमंत्री मोदी और कड़े से कड़े सवालों का बेफिक्री से सामने करने वाले राहुल की तुलना से सोशल मीडिया भरा हुआ है। वे इसमें एक और कड़ी नहीं जोड़ना चाहेंगे।
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बीजेपी ने जिस तरह से राहुल गाँधी की अमेरिकी यात्रा को लेकर हमला बोला है और उनकी बातों को देश के खिलाफ बताया है, वह बौखलाहट का नतीजा ही है। बीजेपी के तमाम नये पुराने चेहरे इस काम में लगा दिए गये लेकिन उनके तर्क बेहद कमजोर नजर आ रहे हैं। मोदी युग के लोकतंत्र का स्वाद इन नेताओं से ज़्यादा किसको पता होगा जो अपने प्रधानमंत्री से सवाल पूछना तो छोड़िए, सामने खड़े होने का हक़ भी नहीं रखते। उन्हें अटल बिहारी वाजपेयी के प्रधानमंत्रित्व काल की याद ज़रूर होगी जब उनके मुँह में ज़बान हुआ करती थी। इन नेताओं को इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग को सेक्युलर बताने पर राहुल गाँधी की आलोचना करते वक्त याद जरूर आया होगा कि इस पार्टी के नेता ई.अहमद को वाजपेयी जी ने भारत का प्रतिनिधित्व करने जेनेवा भेजा था।
(लेखक कांग्रेस से जुड़े है)
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