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हिंदी पट्टी में 90% लोग एकभाषी तो दक्षिण पर बहुभाषा का दबाव क्यों? 

दक्षिण भारत के राज्यों में बहुभाषा की वकालत क्यों की जा रही है? हिंदी भाषी राज्यों को लेकर ऐसा क्यों नहीं है? वह भी तब जब हिंदी भाषी राज्यों में 90% से ज़्यादा लोग एकभाषी हैं। कई राज्यों में तो यह 95 फ़ीसदी तक है। जबकि दक्षिण भारत के राज्यों में एक भाषी लोगों का अनुपात हिंदी राज्यों की तुलना में कम है। इसका मतलब है कि दक्षिण के राज्यों में दो या दो से ज़्यादा भाषा बोलने वाले लोगों का अनुपात हिंदी भाषी राज्यों से ज़्यादा है। तो सवाल है कि बहुभाषा को लागू करने की ज़रूरत दक्षिण भारत में है या हिंदी भाषी राज्यों में?

यह सवाल इसलिए क्योंकि तमिलनाडु और केंद्र सरकार के बीच तीन भाषा नीति को लेकर विवाद बना हुआ है। ताज़ा टकराव ने एक बार फिर भाषा के पुराने विवाद को हवा दे दी है। तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन ने हिंदी थोपने के ख़िलाफ़ राज्य के रुख को दोहराया। उन्होंने दो-भाषा नीति के प्रति अपनी प्रतिबद्धता जताई है। दो भाषा नीति में तमिल और अंग्रेजी शामिल हैं।

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केंद्रीय शिक्षा मंत्री धर्मेंद्र प्रधान ने हिंदी थोपने के आरोपों को खारिज करते हुए कहा कि तीन भाषा के फ़ॉर्मूले का मक़सद छात्रों को बहुभाषी बनाना है, न कि किसी भाषा को ज़बरदस्ती लागू करना। केंद्र की तीन भाषा की नीति में राज्यों की स्थानीय मातृभाषा, हिंदी और अंग्रेजी शामिल हैं।

तमिलनाडु ने केंद्र की तीन भाषा की नीति का विरोध करते हुए इसे हिंदी थोपने की कोशिश करार दिया है। स्टालिन का कहना है कि राज्य अपनी दो-भाषा नीति पर कायम रहेगा। धर्मेंद्र प्रधान ने फ़रवरी में कहा था, 'तमिल हमारी सभ्यता की सबसे पुरानी भाषाओं में से एक है। लेकिन तमिलनाडु के छात्र बहुभाषी शिक्षा सीखें तो इसमें क्या ग़लत है? इसमें हिंदी की कोई जबरदस्ती नहीं है।' 

यह विवाद दक्षिणी राज्यों, खासकर तमिलनाडु, में लंबे समय से चली आ रही उस चिंता को उजागर करता है कि क्या तीन भाषा का फ़ॉर्मूला अप्रत्यक्ष रूप से हिंदी को बढ़ावा देता है।

आँकड़े क्या कहते हैं?

1991 और 2011 की भाषा जनगणना के आँकड़े बताते हैं कि ग़ैर-हिंदी भाषी राज्य कई भाषाएँ जानने के मामले में हिंदी भाषी राज्यों से आगे हैं। द हिंदू ने 'भाषा जनगणना' और ग्लोबल डाटा लैब के आँकड़ों के आधार पर एक रिपोर्ट तैयार की है। इस रिपोर्ट में कहा गया है कि तमिलनाडु में 1991 में 84.5% तमिल भाषी एक भाषा जानते थे, जो 2011 में घटकर 78% हो गया। ओडिशा में उड़िया भाषियों में एक भाषा जानने वालों का अनुपात 86% से 74.5% तक कम हुआ। महाराष्ट्र, पंजाब, गुजरात और तेलुगु भाषी राज्यों में भी कई भाषा जानने वालों की संख्या बढ़ी है।

इसके उलट, हिंदी भाषी राज्यों में एक भाषा बोलने वाले लोगों की संख्या या तो स्थिर रही या बढ़ी। बिहार में 1991 में 90.2% हिंदी भाषी एक भाषा ही बोलते थे, जो 2011 में 95.2% हो गया। राजस्थान में यह आँकड़ा 93% से 94.3% तक बढ़ा। उत्तर प्रदेश और हिमाचल प्रदेश में भी यही रुझान दिखता है। यानी गैर-हिंदी भाषी लोग नई भाषाएँ सीखने को तैयार हैं, जबकि हिंदी भाषी कई भाषाएँ सीखने में पीछे हैं।

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आँकड़े यह भी बताते हैं कि दूसरी या तीसरी भाषा के रूप में ग़ैर-हिंदी राज्यों में अंग्रेजी को प्राथमिकता मिल रही है। तमिलनाडु में 1991 में 13.5% तमिल भाषी अंग्रेजी बोलते थे, जो 2011 में 18.5% हो गया। ओडिशा और पंजाब में भी अंग्रेजी बोलने वालों की संख्या बढ़ी। लेकिन हरियाणा जैसे हिंदी भाषी राज्य में यह अनुपात 17.5% से घटकर 14.6% हो गया।

हिंदी की बात करें तो तमिलनाडु में 1991 में सिर्फ़ 0.5% तमिल भाषी हिंदी बोलते थे, जो 2011 में 1.3% हुआ। कर्नाटक में यह आँकड़ा 8.5% पर स्थिर रहा। लेकिन गुजरात और महाराष्ट्र में हिंदी बोलने वालों की संख्या तेजी से बढ़ी - गुजरात में 21.6% से 39% और महाराष्ट्र में 35.7% से 43.5%। इससे साफ़ है कि दक्षिणी राज्यों में अंग्रेजी को तरजीह दी जा रही है, जबकि पश्चिमी और पूर्वी राज्यों में हिंदी की स्वीकार्यता बढ़ी है।

मानव विकास सूचकांक यानी एचडीआई के आँकड़े बताते हैं कि अंग्रेजी बोलने वाले राज्यों में जीवन स्तर बेहतर है। अंग्रेजी का अधिक प्रसार वाले तमिलनाडु, केरल और पंजाब जैसे राज्य मानव विकास सूचकांक में अच्छे स्कोर दिखाते हैं।
वहीं, हिंदी भाषी राज्य बिहार, उत्तर प्रदेश और राजस्थान में एचडीआई स्कोर कम है। प्रवास के आंकड़े भी यही संकेत देते हैं। हिंदी भाषी राज्यों से लोग बेहतर अवसरों के लिए गैर-हिंदी राज्यों, खासकर दक्षिण और पश्चिम में जा रहे हैं। 
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बीजेपी के लिए यह स्थिति जटिल है। हिंदी भाषी राज्यों में अधिक भाषाएँ जानने के लिए बढ़ावा देना ज़रूरी है, ताकि वहां के लोग दुनिया भर में उपलब्ध अवसरों का लाभ उठा सकें। लेकिन दक्षिण में हिंदी को लेकर संवेदनशीलता को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। तमिलनाडु का विरोध इस बात का सबूत है कि क्षेत्रीय पहचान और भाषा यहाँ की राजनीति का अहम हिस्सा हैं। यदि बीजेपी अंग्रेजी को कड़ी भाषा के रूप में बढ़ावा दे तो शायद यह विवाद कम हो, लेकिन इससे हिंदी पट्टी में उसके समर्थकों की नाराजगी का जोखिम है।

यह विवाद सिर्फ़ भाषा नीति का मसला नहीं, बल्कि विकास, अवसर और क्षेत्रीय अस्मिता का सवाल है। तमिलनाडु जैसे राज्य अपनी दो-भाषा नीति पर अड़े रह सकते हैं, लेकिन हिंदी भाषी राज्यों का क्या, जहाँ बड़े पैमाने पर एक भाषी लोग ही हैं? 

(इस रिपोर्ट का संपादन अमित कुमार सिंह ने किया है)
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क़मर वहीद नक़वी
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