क्या सीबीआई निदेशक को नियुक्त करने और हटाने वाले पैनल ने मोदी सरकार के दबाव में आलोक वर्मा को दुबारा हटाया? आज यह सनसनीख़ेज़ सवाल उस वक़्त खड़ा हो गया जब सीबीआई मामलों की जाँच के लिए नियुक्त सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज ए. के. पटनायक ने कहा कि आलोक वर्मा के ख़िलाफ़ भ्रष्टाचार के आरोप सही नहीं पाए गए थे। उनके इस बयान ने प्रधानमंत्री मोदी और पूरी सरकार की मंशा पर सवाल खड़े कर दिए और यह आरोप सही लगने लगा है कि आलोक वर्मा को जानबूझकर बलि का बकरा बनाया गया है। और जानबूझकर आलोक वर्मा की ईमानदारी को कठघरे में खड़ा किया गया। ऐसे में यह भी सवाल खड़ा होगा कि आख़िर मोदी सरकार क्या किसी को बचा रही है? कौन है यह आदमी और कितना बड़ा है?
जस्टिस ए. के. पटनायक ने यह बात इंडियन एक्सप्रेस अख़बार को दिए एक इंटरव्यू में कही है। पटनायक ने कहा है कि आलोक वर्मा की जाँच के बाद सीवीसी ने जो रिपोर्ट सुप्रीम कोर्ट को सौंपी थी वह उनकी रिपोर्ट नहीं थी। यानी उस रिपोर्ट से जस्टिस पटनायक सहमत नहीं थे। आलोक वर्मा को रात के दो बजे सरकार ने हटाया था। आलोक वर्मा को हटाने के साथ-साथ राकेश अस्थाना को भी हटा दिया गया था। वर्मा की जगह नागेश्वर राव को अंतरिम निदेशक नियुक्त किया गया था। तब यह प्रश्न उठा था कि इतनी जल्दबाज़ी की क्या ज़रूरत थी? रात के दो बजे हटाने का क्या कारण था? कौन-सा आपातकाल आन पड़ा था? इसका कोई साफ़ जवाब कभी सरकार ने नहीं दिया। यह मामला सुप्रीम कोर्ट पहुँचा। आलोक वर्मा को हटाने का कारण सीवीसी की रिपोर्ट बनी थी। सीवीसी ने अपनी रिपोर्ट में आलोक वर्मा पर लगे आरोपों में कुछ सच्चाई होने की बात कही थी। सुप्रीम कोर्ट में पूरे मामले की नए सिरे से जाँच की बात की और जस्टिस पटनायक को अदालत की तरफ़ से यह ज़िम्मेदारी दी कि वह पूरी जाँच की निगरानी करे। फिर रिपोर्ट कोर्ट को सौंपी गई। आलोक वर्मा को दुबारा बहाल किया गया। लेकिन दो दिन के अंदर ही दो बार मीटिंग कर के पैनल ने फिर आलोक वर्मा को पद से हटा दिया।
जस्टिस सीकरी से चूक हुई?
अब अगर जस्टिस पटनायक यह कहते हैं कि आलोक वर्मा के ख़िलाफ़ कोई सबूत नहीं मिले तो यह संकट खड़ा हो जाता है कि क्या देश के प्रधानमंत्री किसी दुर्भावना से काम कर रहे थे?
सुप्रीम कोर्ट की तरफ़ से पैनल में नुमाइंदगी कर रहे जस्टिस सीकरी को क्या पूरे तथ्य की जानकारी थी? क्या सरकार ने उनको पटनायक की रिपोर्टें नहीं दिखाईं? या क्या जस्टिस पटनायक से पूरे मामले को समझने में चूक हुई?
यहाँ यह बता दें कि पैनल के तीसरे सदस्य लोकसभा में कांग्रेस के नेता मल्लिकार्जुन खड़गे ने आलोक वर्मा को हटाने का विरोध किया था। उनके मुताबिक़ आलोक के ख़िलाफ़ लगाए गए दस में से छह आरोप ग़लत थे। चार में और जाँच की आवश्यकता थी। यानी खड़गे सही कह रहे थे। और प्रधानमंत्री मोदी और जस्टिस सीकरी से ग़लती हुई। और जस्टिस पटनायक की बात को ग़लत मानने का कोई कारण नहीं है।
सीवीसी की रिपोर्ट मेरी नहीं : जस्टिस पटनायक
जस्टिस पटनायक ने 'इंडियन एक्सप्रेस' से तीन बातें कही हैं।- आलोक वर्मा के ख़िलाफ़ भ्रष्टाचार के कोई सबूत नहीं मिले।
- सीवीसी ने जो रिपोर्ट सुप्रीम कोर्ट को सौंपी वह उनकी रिपोर्ट नहीं थी।
- इस मामले में सीवीसी की राय अंतिम नहीं हो सकती।
जस्टिस पटनायक ने कहा, 'पैनेल सीबीआई निदेशक को हटा सकती है, पर इतनी जल्दबाज़ी क्यों? हम एक संस्था से डील कर रहे हैं। इस मामले में पूरा दिमाग लगाया जाना चाहिए। ख़ासतौर पर सुप्रीम कोर्ट के जज को। जो कुछ सीवीसी कहते हैं वह अंतिम सत्य नहीं हो सकता।'
जस्टिस पटनायक का इशारा जस्टिस सीकरी की तरफ़ है जो मुख्य न्यायाधीश के नुमाइंदे के तौर पर पैनल में शामिल हुए थे।
आलोक वर्मा ने भी शुक्रवार को इस्तीफ़ा देने के समय कार्मिक विभाग को लिखा था कि जस्टिस पटनायक की राय सीवीसी से मेल नहीं खाती।
इस पूरे मामले में राकेश अस्थाना और मोदी सरकार के साथ सीवीसी की भूमिका पूरी तरह से संदिग्ध हो गई है। सीवीसी क्या सरकार के इशारे पर खेल रहे थे? और अगर ऐसा है तो क्या उनके अपने पद पर बने रहना चाहिए? पर सबसे बड़ा सवाल यह है कि जस्टिस पटनायक के बयान के बाद मोदी सरकार को इस सवाल को जवाब देना चाहिए कि आख़िर वह क्यों आलोक वर्मा को हर हाल में हटाने पर तुली थी?
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