चंदन महकता है. माथा शीतल कर देता है । धार्मिक पहचान भी उपलब्ध करता है। संतों की भीड़ हो। चित्रकूट का घाट हो और मुफ्त का चंदन घिस कर लगाया जा रहा हो तो मजा अलग ही है। मजे की बात मुफ्त का चंदन घिसता कोई और है तिलक कोई और लगाता है, लगवाता कोई और है । अर्थात चंदन किसी और का और श्रेय कोई और ले जाता है। मुफ्त को लेकर हम बेहद सनातनी हैं। बालक राम के विवाह में जनक ने बारातियों को 40 लाख गायें 25 लाख रथ और न जाने क्या-क्या भेंट कर दिया था। ये मै नहीं कहता। ये बात उस राम चरित मानस में लिखी है जिसे मै पिछले पचास साल से मुफ्त में पढता आ रहा हूँ ।
कहते हैं कि मुफ्त का माल हो तो बांटने और स्वीकार करने में दिल ससुरा बेरहम हो ही जाता है। ग़ालिब मियाँ भी मुफ्त की मयनोशी को लेकर ताउम्र परेशान रहे। लेकिन मुफ्त का माल और मुफ्तखोरी हर काल में होती है । कहीं कोई कोताही नहीं। शासन का कोई भी तंत्र हो मुफ्तखोरी उसका अनिवार्य हिस्सा है। सामंतशाही हो, समाजवाद हो ,तानाशाही हो या लोकशाही हो सबको मुफ्त का माल यानि मुफ्त का चंदन घिसने और लगाने में मजा आता है। मुफ्त का चंदन घिसना और लगना ठीक वैसा ही है जैसे ' मियां -बीबी राजी तो क्या करेगा काजी?'
सरकार मुफ्त का चंदन घिसती है और मतदाता लगवाता है तो सुप्रीम कोर्ट क्या कर सकता है सिवाय कोई याचिका लगाए तो सरकारों को चार हफ्ते का नोटिस देने का। सुप्रीम कोर्ट का काम सुप्रीम कोर्ट करता है और सरकार का काम, सरकार करती है। जनता का काम, जनता करती है। हम आजादी के अमृतकाल में आ गए हैं किन्तु न मुफ्त का चंदन घिसना नहीं भूले हैं और न लगाना, लगवाना। आजादी के साथ देश में अनेक ' वाद ' आये और चले गए लेकिन मुफ्तखोरी जहाँ थीं वहां से बहुत आगे बढ़ गयी है। मंगलसूत्र से लेकर चप्पल-छाते तक आ गयी है। पहले आपात स्थितियों में राजे-महाराजे प्रजा के लिए अनेक तरीकों से मुफ्त का चंदन मुहैया करते थे । जो समझदार थे वे जनता को हरामखोर बनाने के बजाय उनसे श्रम कराते और बदले में राशन-पानी मुहैया कराते थे ।
देश -दुनिया में चीन की दीवार और ताजमहल, बाबरी मस्जिद जैसे अनेक विश्व कीर्तिमान ऐसे ही बने और बिगड़े गए। देश में मुफ्तखोरी की जनक रामभक्त भाजपा नहीं, कांग्रेस है। कांग्रेस में शुरू में दक्षिणपंथी, वामपंथी और समाजवादी सोच के लोग शामिल थे इसलिए सबने मुफ्त के चंदन की घिसाई और लगवाई के जघन्य अपराध में हिस्सा लिया। कांग्रेस ने भूल सुधार के लिए 'मनरेगा' जैसी योजना बना ली। लेकिन उसके उत्तराधिकारियों ने मनरेगा को ठिकाने लगा दिया। आज देश में किसी भी दल की सरकार हो, किसी भी जाति का मुख्यमंत्री या प्रधानमंत्री हो मुफ्त के चंदन का घिसना और लगाना नहीं रोक सकता। सब उसके समर्थक हैं। सब को मुफ्त का चंदन लगाना पुण्यकार्य लगता है। मुफ्त का माल दिल बेरहमी से लुटाता है लेकिन सत्ता का दरवाजा आजकल इसी तरीके से खुलता है तो कोई क्या करे।
मुफ्तखोरी का भी एक नियम है, एक नीति है जिसे हर सरकार को पालन करना होता है। विदेशों में जिन देशों ने केवल कुर्सी बचाने के लिए मुफ्तखोरी को हवा दी उन सबकी हवा निकल गयी। बेनेजुएला हो या श्रीलंका या पकिस्तान, सभी का भट्टा बैठ गया है । हमारा भट्टा कब बैठेगा, भगवान जाने। अभी तो हमारे यहां मुफ्तखोरी राष्ट्रीय चरित्र बन गया है। हम इसे लेकर कतई शर्मिंदा नहीं हैं। हमारे लिए ये गौरव का विषय है। भारत में अक्सर लोग अपना 56 इंच का सीना ठोंक कर कहते हैं कि वे देश में 80 करोड़ लोगों को मुफ्त का राशन दे रहे हैं। उन्हें इस बात को लेकर कोई लज्जा नहीं आती कि वे इस बड़ी आबादी के लिए रोजगार, शिक्षा, स्वास्थ्य, मुहैया नहीं करा पाते। हमारे यहां राज्य का कर्तव्य भी मुफ्तखोरी से बाबस्ता कर दिया गया है और उसे भी अहसान की तरह जनता के सामने पेश किया जा रहा है।
मिसाल के तौर पर हमने कोविड के समय सभी को मुफ्त में टीके लगवाए। नहीं लगवाते तो जनता यमलोक चली जाती। ऐसा अहसान जताने वालों को लगता है कि जैसे सारा पैसा वे अपने पुरखों की कमाई में से खर्च कर रहे थे। दुसरे देशों में भी जनता को मुफ्त में टीके लगाए गए लेकिन गागराउनि केवल हमारे यहां ही गाई गयी। जरूरतमंद जनता की मदद करने के लये राज सहायता एक अलग उपकरण था, है। राज सहायता [सब्सिडी] में हितग्राही की भागीदारी होती है लेकिन मुफ्तखोरी में सब कुछ सरकार का होता है।
राजनीतिक दलों की फूटी कौड़ी भी इस काम में खर्च नहीं होती। सत्तारूढ़ दल सरकार के खजाने को खाली ही नहीं करता बल्कि मुफ्त के माल को बेरहमी से बाँटने के लिए सरकार के ऊपर कर्ज का भारी बोझ भी लादकर जाता है। लेकिन ये बोझ अंततोगत्वा उठाता कौन है ? यही मुफ्तखोर जनता और समाज का मध्यम वर्ग। मुफ्तखोरी में गरीब से गरीब और अमीर से आमिर शामिल है । नेता शामिल है । हम पत्रकार शामिल है। बहनें शामिल हैं, बूढ़े शामिल है । दिव्यांग शामिल हैं और हट्टे-कट्टे लोग भी शामिल हैं। क्योंकि सब एक ही थैली के चट्टे-बट्टे जो हैं। समाजवाद इस मुफ्तखोरी में ही है।
अपने अनुभव के आधार पर मेरा दावा है कि इस मुफ्त के चंदन घिसने और लगाने के कारोबार को न कोई राजनीतिक दल त्याग सकता है और न कोई क़ानून, कोई कोर्ट, कोई आयोग इसे रोक सकता है। सबके सब किसी न किसी तरह इस मुफ्तखोरी का हिस्सा हैं।
मुफ्तखोर कौम, मुफ्तखोर मतदाता, मुफ्तखोर युवा हमारे शासक वर्ग के लिए वरदान हैं। इन्हें कोई अपने पांवों पर खड़े होने के लिए नहीं कह सकता । इनके लिए कोई योजना नहीं बना सकता। बनाये भी क्यों ,जब के काम मुफ्त का चंदन घिसने और लगाने से ही चल रहा है। ये मामला नैतिकता से जुड़ा है। जिस समाज में, व्यवस्था में नैतिकता शेष है वहां मुफ्तखोरी को जिल्ल्त माना जाता है लेकिन जहाँ नैतिकता मर चुकी है उस समाज में मुफ्तखोरी जनता का जन्मसिद्ध अधिकार है।
(राकेश अचल के फ़ेसबुक पेज से)
अपनी राय बतायें