हेमंत सोरेन
जेएमएम - बरहेट
आगे
हेमंत सोरेन
जेएमएम - बरहेट
आगे
गीता कोड़ा
बीजेपी - जगन्नाथपुर
पीछे
पच्चीस जून, 1975 का दिन। पैंतालीस साल पहले। देश में ‘आपातकाल’ लग चुका था। हम लोग उस समय ‘इंडियन एक्सप्रेस’ समूह की नई दिल्ली में बहादुरशाह ज़फ़र मार्ग स्थित बिल्डिंग में सुबह के बाद से ही जमा होने लगे थे। किसी को समझ में नहीं आ रहा था कि आगे क्या होने वाला है। प्रेस सेंसरशिप भी लागू हो चुकी थी। इंडियन एक्सप्रेस समूह तब सरकार के मुख्य निशाने पर था। उसके प्रमुख रामनाथ गोयनका इंदिरा गाँधी से टक्कर ले रहे थे। वह जे पी के नज़दीकी लोगों में एक थे।
उन दिनों मैं प्रभाष जोशी, अनुपम मिश्र, जयंत मेहता, मंगलेश डबराल आदि के साथ ‘प्रजनीति’ हिंदी साप्ताहिक में काम करता था। शायद उदयन शर्मा भी साथ में जुड़ गए थे। जयप्रकाश जी के स्नेही श्री प्रफुल्लचंद्र ओझा ‘मुक्त’ प्रधान सम्पादक थे पर काम प्रभाष जी के मार्गदर्शन में ही होता था। मैं चूँकि जे पी के साथ लगभग साल भर बिहार में काम करके नई दिल्ली वापस लौटा था, पकड़े जाने वालों की प्रारम्भिक सूची में मेरा नाम भी शामिल था। वह एक अलग कहानी है कि जब पुलिस मुझे पकड़ने गुलमोहर पार्क स्थित एक बंगले में गैरेज के ऊपर बने मेरे एक कमरे के अपार्टमेंट में पहुँची तब मैं साहित्यकार रमेश बक्षी के ग्रीन पार्क स्थित मकान पर मौजूद था। वहाँ हमारी नियमित बैठकें होतीं थीं। कमरे पर लौटने के बाद ही सबकुछ पता चला।
मकान मालिक ‘दैनिक हिंदुस्तान’ में वरिष्ठ पत्रकार थे। उन्होंने अगले दिन कमरा खाली करने का आदेश दे दिया। वह सब एक अलग कहानी है। बहरहाल, अगले दिन एक्सप्रेस बिल्डिंग में जब सबकुछ अस्तव्यस्त हो रहा था और सभी बड़े सम्पादकों के बीच बैठकों का दौर जारी था, जे पी को नज़रबंद किए जाने के लिए दिए गए डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट के आदेश की कॉपी अचानक ही हाथ लग गई।
उस जमाने में प्रिंटिंग की व्यवस्था आज जैसी आधुनिक नहीं थी। फ़ोटोग्राफ़ और दस्तावेज़ों के ब्लॉक बनते थे। जे पी की नज़रबंदी के आदेश के दस्तावेज़ का भी प्रकाशन के लिए ब्लॉक बना था। मैंने चुपचाप एक्सप्रेस बिल्डिंग के तलघर की ओर रुख़ किया जहाँ तब सभी अख़बारों की छपाई होती थी। वह ब्लॉक वहाँ बना हुआ रखा था। मैंने हाथों से उस ब्लॉक पर स्याही लगाई और फिर एक काग़ज़ को उसपर रखकर आदेश की प्रति निकाल पॉकेट में सम्भाल कर रख लिया।
पिछले साढ़े चार दशक से उस काग़ज़ को सहेजे हुए हूँ। इस बीच कई काम, मालिक, शहर और मकान बदल गए पर जो कुछ काग़ज़ तमाम यात्राओं में बटोरे गए वे कभी साथ छोड़कर नहीं गए। बीता हुआ याद करने के लिए जब लोग कम होते जाते हैं, ये काग़ज़ के क़ीमती पुर्ज़े ही स्मृतियों को सहारा और साँसें देते हैं।
About Us । Mission Statement । Board of Directors । Editorial Board | Satya Hindi Editorial Standards
Grievance Redressal । Terms of use । Privacy Policy
अपनी राय बतायें