घटनाओं को अलग-अलग देखने से अकसर सचाईयाँ छिप जाती हैं। हम घटनाएं तो देख पाते हैं, उनके असर का अंदाज़ा नहीं लगा सकते। यह अनुमान भी नहीं लगा सकते कि दुनिया किस दिशा में जा रही है। इसलिए हमें उन्हें एक-दूसरे से जोड़कर पढ़ना-समझना पड़ता है।
हालाँकि भूमंडलीकरण की तरफ भागती दुनिया ने पीछे मुड़ने का सिलसिला पाँच-सात साल पहले ही शुरू कर दिया था। नवउदारवादी आर्थिक नीतियों से उपजी समस्याओं, पूँजी का भूमंडलीकरण तथा संकेंद्रीकरण (कुछ मुल्क़ों और उद्योगपतियों के पास धन-संपदा का एकत्रित होना) और शक्तिशाली राष्ट्रों के सांस्कृतिक प्रभुत्व के ख़तरे ने दुनिया भर के देशों को यह सोचने के लिए विवश कर दिया था कि क्या वे सही रास्ते पर हैं।
पहचान की राजनीति
अधिकांश देशों में इन कारणों से एक तरह की असुरक्षा का वातावरण बनने लगा था। इसने पहचान की राजनीति को नया मौक़ा और ऊर्जा दे दी और आगे चलकर उसने नस्लवाद को मज़बूत करना शुरू कर दिया।
साल 2016 में डोनल्ड ट्रम्प की जीत इस प्रवृत्ति का एक संकेत थी। ट्रम्प का ‘अमेरिका फर्स्ट’ एक तरह से उसी राष्ट्रवाद का उद्घोष था। ट्रम्प के चार साल के कार्यकाल में अमेरिका ने वैश्विक भूमिका से खुद को काटना शुरू कर दिया। ट्रम्प ने उन्मादी राष्ट्रवाद और श्वेत बनाम अन्य के नस्लवाद का सहारा लिया। साल के अंत में वे चुनाव हार गए, लगभग जीतते-जीतते। जो बाइडेन की जीत को ट्रम्प छाप राष्ट्रवाद की हार और भूमंडलीकरण की वापसी के रूप में देखना बहुत बड़ी भूल होगी।
पुनरुत्थानवाद
राष्ट्रवाद की यह चाह हमें ‘ब्रेक्ज़िट’ में भी दिखी थी और यूरोप की राजनीति में दक्षिणपंथी दलों के मज़बूत होने में भी नज़र आई। रूस में व्लादीमीर पुतिन और चीन में शी जिनपिंग भी राष्ट्रवाद के जहाज़ पर सवार हैं।
भारत में यह हिंदुत्ववादी राष्ट्रवाद हिंसक रूप अख़्तियार करता हुआ दिख रहा है तो तुर्की में इसलाम के नाम पर रिचप तैयप अर्दोवान इसलामी राष्ट्रवाद की फसल सींचने में लगे हुए हैं। म्याँमार में सरकार के संरक्षण में बौद्ध आतंकवादियों द्वारा रोहिंग्या मुसलमानों के नरसंहार भी नहीं थम रहे।
हज़ारों रोहिंग्या भागते हुए मारे जाने या दूसरे देशों में शरण लेने को मजबूर हैं।
इस राष्ट्रवाद में पुनरुत्थानवाद मिला हुआ है। देश अतीतवादी हो रहे हैं। भारत बाबरी मसजिद की जगह पर अयोध्या में मंदिर बनवा रहा है तो तुर्की कमाल अतातुर्क की धर्मनिरपेक्ष विरासत को ढहाते हुए हया सोफिया म्यूज़ियम को मसजिद में तब्दील करके खुश हो रहा है। ऑटोमन साम्राज्य या शिवाजी, महाराणाप्रताप आदि चरित्रों पर आधारित धारावाहिकों एवं फ़िल्मों की बाढ़ भी यही बताती है।
हिसाब चुकाने का इरादा
ध्यान रहे कि ये राष्ट्रवाद बीसवीं सदी में औपनिवेशिक शक्तियों से मुक्ति पाने के लिए छटपटाते देशों का राष्ट्रवाद नहीं है। इस राष्ट्रवाद में सबको जोड़ने के बजाय अलगाव की भावना है, अतीत के हिसाब चुकाने का इरादा है और अल्पसंख्यकों को सबक सिखाने का हिंसक एजेंडा भी।
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यह देशभक्ति से ओत-प्रोत नवनिर्माण के लिए सक्रिय राष्ट्रवाद नहीं है, बल्कि नस्लीय उन्माद से प्रेरित अत्यंत विध्वंसकारी एवं दुनिया को बड़े टकराव की तरफ धकेलने वाला राष्ट्रवाद है।
इसीलिए हम पाते हैं कि अमेरिका चीन के प्रति उग्रता दिखा रहा है, तुर्की यूरोप और अरब देशों से टकराने को उन्मत्त है, भारत पाकिस्तान पर चढ़ाई करने को आमादा है और चीन ताईवान पर नज़रें गड़ाए बैठा है।
आतंकवाद की बड़ी घटनाएं नहीं
राहत की बात यह है कि इस वर्ष आतंकवाद की बड़ी घटनाएं नहीं हुईं। फ्रांस में पैगम्बर मुहम्मद के कार्टूनों को लेकर चल रहे विवाद के सिलसिले में कुछेक नृशंस हमले हुए और अफ्रीका में बोको हराम द्वारा अपहरणों और हत्याओं की वारदातें भी हुईं।
लेकिन बड़ी वारदातों की संख्या घटी। ऐसा शायद कोरोना संकट की वज़ह से भी हुआ हो या अमेरिका के आत्मकेंद्रित होने के कारण। यह सचाई है कि 2020 में अमेरिका ने बहुत ज़्यादा हस्तक्षेप नहीं किया। ट्रम्प ने इज़रायल को मनमानी करने की छूटें ज़रूर दीं।
निरंकुशता बढ़ी
साल 2020 में तीसरी महत्वपूर्ण प्रवृत्ति देखने में यह आई कि पूरी दुनिया के शासकों में निरंकुशता बढ़ रही है। हालाँकि ट्रम्प की विदाई हो चुकी है, मगर उनके व्यवहार में मौजूद निरंकुशता को भुलाया नहीं जा सकता। इस आशंका को भी खारिज़ नहीं किया जा सकता कि वे 2024 में वापस लौट सकते हैं।
अमेरिकी व्यवस्था ने एक बार तो ग़लती ठीक कर ली, मगर यदि मतदाताओं पर राष्ट्रवादी शक्तिशाली शासक का जुनून सवार है तो वह उन्हें या उनके जैसे नेताओं को फिर से सिर पर बैठा सकते हैं।
चीन की बात करना व्यर्थ है क्योंकि वहाँ की शासन व्यवस्था ही निरंकुश है और शासक भी हमेशा से निरंकुश शक्तियों वाले रहे हैं। मगर वहाँ भी शी जिनपिंग ने अनंतकाल तक राष्ट्रपति बने रहने का इंतज़ाम कर लिया है।
रूस में कमज़ोर लोकतंत्र
रूस ने भले ही करीब तीन दशक पहले लोकतंत्र को अपना लिया था, मगर वहाँ कभी वह जड़ें नहीं जमा पाया। इसीलिए पुतिन ने अपनी सत्ता कायम रखने के लिए तमाम संवैधानिक प्रावधानों को तोड़ा-मरोड़ा है और अब तो अगले 15 साल तक पद पर बने रहने की व्यवस्था भी उन्होंने कर डाली है।
कई देशों में भले ही वोटों के ज़रिए सरकारें और शासक चुने जा रहे हों, मगर उनका चरित्र पूरी तरह निरंकुश है या होता जा रहा है। इज़रायल, तुर्की, भारत, ब्राजील, फिलीपींस आदि ऐसे कई देश हैं जिनके शासक अपने निरंकुश स्वभाव का परिचय दे रहे हैं।
साल 2020 में उन्होंने इसके उदाहरण बार-बार प्रस्तुत किए। मध्य-पूर्व के कई अरब देश छिटपुट सुधार और स्वतंत्रता देते हुए दिख रहे हैं, मगर वे दिखावटी ज़्यादा हैं और उनका लक्ष्य किसी तरह से असंतोष को दबाना है।
टुकड़ों में बँटी दुनिया
अंधराष्ट्रवाद के उभार और निरंकुश सरकारों या शासकों की बढ़ती तादाद ने पूरी दुनिया को कई टुकड़ों में बाँट दिया है। हर दुनिया इन शासकों की मनमानियाँ झेलने के लिए विवश है।
अंतरराष्ट्रीय संस्थाएं या तो कमज़ोर कर दी गई हैं या फिर कोई उनकी सुनने को तैयार नहीं है। भारत में मुसलमानों के साथ भेदभाव वाले क़ानून बनते जाते हैं, उनका विरोध भी होता है, मगर अंतरराष्ट्रीय बिरादरी कुछ कर नहीं पाती है।
साल 2020 की सबसे उल्लेखनीय प्रवृत्तियों में यही है कि लोकतंत्र कमज़ोर हुआ है। न केवल देशों के अंदर लोकतंत्र संकुचित हुआ है, कमज़ोर हुआ है, बल्कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी लोकतंत्र का संकुचन देखा गया है।
इसीलिए स्वतंत्रता, समानता और न्याय पर लगातार प्रहार होने के बावजूद कोई सार्थक हस्तक्षेप कहीं से होता नहीं दिख रहा है। इस साल ये चिंताएं बढ़ गई हैं कि कहीं दुनिया एक बर्बर भविष्य में तो दाखिल नहीं हो रही है।
बहुराष्ट्रीय कंपनियों की भूख
यह बर्बरता बहुराष्ट्रीय कंपनियों की अदम्य भूख का नतीजा है क्योंकि वे अपनी समस्त शक्तियों के साथ निरंकुशता, राष्ट्रोन्माद और हिंसा के साथ खड़ी हैं। उन्हीं के पास मीडिया के विध्वंसक हथियार है जो दिन-रात घृणा और हिंसा के संदेश फैला रहे हैं।
वे किसी संघर्ष, किसी आंदोलन को टिकने नहीं दे रहीं चाहे वह ‘ब्लैक लाइव्स मैटर’ हो, ‘यलो वेस्ट मूवमेंट’ हो, भेदभावपूर्ण नागरिकता संशोधन कानून और फिर कृषि कानूनों के विरुद्ध खड़े होने वाले आंदोलन हों।
उनके पास पूँजी है, टेक्नालॉजी है, नए-नए आविष्कार हैं, जिनसे वे अपना वर्चस्व बढ़ा रही हैं। उन्हीं के निशाने पर जंगल, पहाड़, नदियाँ और तमाम प्राकृतिक संसाधन हैं। वे हर संकट को भुना लेना चाहती हैं चाहे महामारी के इलाज़ के लिए तड़फते लोगों के लिए बनने वाली वैक्सीन ही क्यों न हो।
जंग से राहत
शायद राहत की बात यह है कि इस साल कोई बड़ी जंग नहीं छिड़ी, कोई बड़ा हमला नहीं हुआ। ट्रम्प ने ईरान को उकसाने वाली कई कार्रवाइयाँ कीं, मगर उसने उसका संयम से जवाब देकर इज़रायल या अमेरिका को युद्ध थोपने का मौक़ा नहीं दिया। अज़रबैजान और अर्मीनिया के बीच लड़ाई ज़रूर हुई, मगर रूसी मध्यस्थता से उसे रोक दिया गया। हालाँकि स्थिति विस्फोटक बनी हुई है।
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लेकिन अमेरिका और चीन के बीच चल रहा व्यापार युद्ध 2020 में शीत युद्ध की शक्ल अख़्तियार कर चुका है, क्योंकि दोनों ही देशों ने सामरिक स्तर पर सक्रियता दिखाई है।
अमेरिका जापान, ऑस्ट्रेलिया और भारत को साथ लेकर ‘क्वाड’ के ज़रिए घेराबंदी कर रहा है तो चीन भी आक्रामकता के साथ आगे बढ़ रहा है। दक्षिण चीन सागर में उसकी सैन्य गतिविधियाँ तनाव निर्मित कर रही हैं।
देखना है कि 2021 में बाइडन के अमेरिका की बागडोर सँभालने के बाद अंतरराष्ट्रीय स्तर पर समीकरणों में क्या बदलाव आता है। संभावनाएं जताई जा रही हैं कि बाइडन की विदेश एवं सामरिक नीतियाँ ओबामा की परंपरा को ही आगे बढ़ाएंगी।
वे चीन और रूस दोनों पर दबाव बनाएंगे और नैटो में अमेरिकी सक्रियता भी बढ़ेगी।
साथ ही इज़रायल की मनमानियों पर वे लगाम लगाएंगे और ईरान के प्रति नरम रवैया अख़्तियार करेंगे। अमेरिका के जवाब में चीन और रूस की दोस्ती और परवान चढ़ सकती है। चीन पाकिस्तान और ईरान के रास्ते मध्यपूर्व में दखल बढ़ा रहा है तो रूस भी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपना रुतबा कायम करने की कोशिश में लगा हुआ है।
हमें नहीं भूलना चाहिए कि अमेरिका का एक विशिष्ट चरित्र है। वह अपने आर्थिक हितों को केंद्र में रखकर राजनीतिक और सामरिक रणनीतियाँ बनाता है, फिर उसे दुनिया पर थोपता भी है। इस रणनीति में बदलाव की गुंज़ाइश बहुत कम है। इसलिए बाइडन से बहुत उम्मीदें पालना निराश करने वाला साबित हो सकता है।
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