हरियाणा में चुनाव प्रचार थम गया है। आखिरी दो दिन नरेंद्र मोदी और अमित शाह के चुनाव प्रचार में नहीं जाने को लेकर ढेर सारे सवाल खड़े हो रहे हैं। जबकि दूसरी तरफ़ राहुल गांधी ने अपनी बहन प्रियंका गांधी के साथ अंतिम चार दिन हरियाणा में ही डेरा जमाए रखा। लोग पूछ रहे हैं कि क्या भारतीय जनता पार्टी डेरा सच्चा सौदा के प्रमुख और बलात्कार एवं हत्या के केस में सजायाफ्ता राम रहीम को पैरोल पर रिहा करवाकर चुनाव जीतना चाहती है? आखिर जो भाजपा राम के सहारे चुनाव नहीं जीत सकी, वह राम रहीम के भरोसे कैसे चुनाव जीत सकती है! वस्तुत: राहुल गांधी ने हरियाणा कांग्रेस के चुनाव प्रचार को अपने हाथ में लेकर भाजपा और खासकर नरेंद्र मोदी को बैकफुट पर जाने के लिए मजबूर कर दिया है।
भाजपा के पिछले दस साल के इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ है कि नरेंद्र मोदी चुनाव के आखिरी दो दिन प्रचार करने के लिए नहीं गए। नरेंद्र मोदी चुनावी प्रचार के लिए खासे मशहूर हैं। लोकसभा और विधानसभा तो क्या, नगर पालिका के चुनाव में भी वह प्रचार करने में संकोच नहीं करते हैं। जब तक चुनाव प्रचार चलता है, वे कतई प्रधानमंत्री नहीं लगते, बल्कि नितांत भाजपा के नेता और आरएसएस के खांटी प्रचारक सरीखा व्यवहार करते हैं। उन्होंने कभी आचार संहिता की परवाह नहीं की। जब चुनाव फँसने लगता है तो वह इमोशनल ड्रामा से लेकर सांप्रदायिक और नफरती बयानों पर उतर आते हैं। लेकिन हरियाणा चुनाव में उन्होंने चुनाव प्रचार की अंतिम तारीख से दो दिन पहले ही मैदान छोड़ दिया। जो नरेंद्र मोदी अंतिम कोशिश तक चुनाव जीतने के लिए लड़ते रहे हैं, वे हरियाणा का कुरुक्षेत्र छोड़कर अन्यत्र व्यस्त हैं। यह भी अपने आपमें एक अनूठा उदाहरण है।
अब सवाल यह है कि मोदी और शाह द्वारा बनाई गई दूरी के क्या कारण हैं? क्या मोदी और शाह ने हरियाणा में हार को देखते हुए आत्मसमर्पण कर दिया है? दरअसल, भाजपा के पास हरियाणा में ना तो कोई चेहरा है और ना ही एजेंडा। मनोहर लाल खट्टर हों या नायब सिंह सैनी, कोई भी जीत की गारंटी नहीं है। बीजेपी के सबसे बड़े ब्रांड नरेंद्र मोदी भी अब जीत की गारंटी नहीं रहे हैं। कांग्रेस का किसान, जवान, पहलवान के साथ भारतीय संविधान का एजेंडा इतना भारी हो गया कि नरेंद्र मोदी का हिंदुत्व कार्ड फीका पड़ गया है। इसीलिए नरेंद्र मोदी और अमित शाह ने हरियाणा का मैदान छोड़कर दिल्ली दरबार में रहना मुनासिब समझा। हरियाणा चुनाव से मोदी द्वारा दूरी बनाने का एक कारण और है। इसी दरम्यान, नए भाजपा अध्यक्ष के लिए आरएसएस ने अपनी पसंद का दबाव बनाया। ऐसी भी ख़बरें हैं कि आरएसएस अब गुजराती लॉबी से भाजपा को मुक्त करना चाहता है।
2014 में तीन दशक बाद पूर्ण बहुमत की सत्ता हासिल करने वाली भाजपा पर धीरे-धीरे नरेंद्र मोदी हावी होते चले गए। उनके इर्द-गिर्द सिर्फ अमित शाह दिखते हैं। सच तो यह है कि कैमरा का फ्रेम हो या फूलों की माला मोदी के साथ कोई दूसरा दाखिल नहीं हो सकता। नरेंद्र मोदी ने सरकार और संगठन दोनों पर ही एक तरह से कब्जा कर लिया। आरएसएस के पदाधिकारियों को संस्थाओं पर नियुक्ति मिली और ऐशोराम भरा जीवन, लेकिन धीरे-धीरे पार्टी संगठन पर भी उनका शिकंजा ढीला होता चला गया। इसका परिणाम यह हुआ कि नरेंद्र मोदी ने आरएसएस के कुछ एजेंडे पूरे करने के अलावा सभी नीतियों और कार्ययोजनाओं में मनमानी की। कॉरपोरेट के हितैषी नरेंद्र मोदी ने अपनी मित्र मीडिया के मार्फत केवल अपनी ब्रांडिंग की। भाजपा नेताओं की दूसरी पांत लगभग खत्म कर दी। नितिन गडकरी, राजनाथ सिंह, वसुंधरा राजे, शिवराज सिंह चौहान, रमन सिंह, येदियुरप्पा जैसे कई बड़े नेता नरेंद्र मोदी के सामने बौने नजर आने लगे। राज्य के मुख्यमंत्रियों के चयन में यह मनमानी सिर चढ़कर बोलने लगी। हद तो तब हो गई जब राजस्थान में वसुंधरा राजे को नीचा दिखाने के लिए पहली बार के विधायक भजन लाल शर्मा के नाम की पर्ची उनसे ही पढ़वाई गई। वसुंधरा राजे खून का घूंट पीकर रह गईं और आरएसएस केवल तमाशबीन बन गया।
हरियाणा चुनाव के दरम्यान भाजपा अध्यक्ष को लेकर गुजराती लॉबी और आरएसएस पदाधिकारियों के बीच खींचतान की काफ़ी ख़बरें आईं। माना जाता है कि आरएसएस ने संजय जोशी या वसुंधरा राजे को अध्यक्ष बनाने का मन बना लिया है।
इन दोनों नेताओं से नरेंद्र मोदी की पुरानी अदावत किसी से छिपी नहीं है। इसीलिए मोदी ने हरियाणा चुनाव प्रचार से दूर रहकर आरएसएस के सामने एक चुनौती पेश की है। बिना मोदी के आरएसएस हरियाणा चुनाव जिताकर दिखाए!
बहरहाल, एक सवाल यह भी है कि राहुल गांधी चुनाव प्रचार के आखिरी चार दिन हरियाणा में ही क्यों जमे रहे। दरअसल, हरियाणा कांग्रेस में अंतर-विरोध की ख़बरें आ रही थीं। भूपेंद्र सिंह हुड्डा के खिलाफ कुमारी शैलजा की नाराजगी की चर्चा के कारण हरियाणा में 20.17% दलित मतदाताओं को भ्रमित करने की कोशिश बीजेपी कर रही थी। जबकि लोकसभा चुनाव में दलितों के वोटों के कारण ही कांग्रेस पार्टी भारतीय जनता पार्टी को पांच सीटें हराने में कामयाब रही। इसके पीछे संविधान बचाने की राहुल गांधी की मुहिम थी। फिलहाल, राहुल गांधी ने इस बात को महसूस कर लिया है कि हरियाणा में स्थानीय क्षत्रपों के बीच मनमुटाव और तनाव की ख़बरें कांग्रेस को नुक़सान पहुंचा सकती हैं। इसलिए राहुल गांधी ने आखिरी चार दिन विजय संकल्प रैली में लगाए। प्रियंका गांधी उनके साथ रहीं। इसका सबसे बड़ा फायदा कांग्रेस पार्टी को यह हुआ कि चेहरों की लड़ाई राहुल गांधी के आने से ख़त्म हो गई।
पिछले दो साल में राहुल गांधी ने अटूट परिश्रम, निष्ठा और निर्भय नैतिकता से जन सामान्य में जो विश्वसनीयता हासिल की है, इसका सीधा फायदा हरियाणा चुनाव में कांग्रेस को मिलता हुआ दिख रहा है। राहुल गांधी ने राष्ट्रीय मुद्दों के साथ हरियाणा के स्थानीय मुद्दों को भी बड़े पैमाने पर उठाया है। हरियाणा के स्थानीय मुद्दों में बेरोजगारी, किसानों को एमएसपी, महिला पहलवानों का अपमान तथा बढ़ती हुई नशाखोरी की लत को राहुल गांधी ने बेहद आक्रामक अंदाज में उठाया। इन समस्याओं के लिए राहुल गांधी ने नरेंद्र मोदी को खूब घेरा। नरेंद्र मोदी ने अपने कॉरपोरेट मित्रों को फायदा पहुंचाने के लिए स्थानीय रोजगार छीन लिया। यहां तक कि जो छोटे-मोटे लघु और मध्यम उद्योग थे, लगभग खत्म हो गए। दिल्ली से सटा हुआ हरियाणा का गुड़गांव; बेंगलुरु और हैदराबाद की तरह ही आईटी का हब है। बहुत सारी देशी-विदेशी कंपनियों के बड़े ऑफिस हैं। लेकिन हरियाणा के नौजवानों के लिए रोजगार लगातार घटता चला गया। इस वजह से नौकरी की तलाश में नौजवानों को डंकी बनकर अमेरिका और यूरोप मजबूर होकर जाना पड़ा। अमित मान के जरिए राहुल गांधी ने बेरोजगारी के दंश और यातना भरी यात्रा को बेहद मार्मिक अंदाज में लोगों के सामने पेश किया। अमेरिका में अमित मान से मुलाकात और फिर करनाल में उसके परिवार से मिलने का वीडियो को जारी करते हुए राहुल गांधी ने बेरोजगार परिवारों के घरों की स्थितियों का भावुकतापूर्ण वर्णन किया। यह राहुल गांधी का नया अंदाज है।
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