कांग्रेस का लंबा इतिहास रहा है। 1885 में एक दबाव समूह के रूप मे स्थापित कांग्रेस को 2020 में 135 साल होने जा रहे हैं। इस बीच पार्टी में अनेक टूट-फूट हुई। नेता कई बार अलग-थलग हुए। लोकतंत्र में यह स्वाभाविक प्रक्रिया है। इस समय यह अवधारणा बना दी गई है कि बगैर नेहरू परिवार के कांग्रेस बिखर जाएगी, जबकि आँकड़े ऐसा नहीं कहते हैं। वहीं तमाम ग़ैर-हिंदीभाषी पार्टी अध्यक्ष भी लंबे समय तक कांग्रेस अध्यक्ष रहे हैं, जिन्होंने पार्टी को शानदार नेतृत्व प्रदान किया है।
कांग्रेस के शुरुआती दौर में इतिहासकार नरम दल और गरम दल थे। दलितों, पिछड़ों वंचितों के बारे में सोचने वाले गोपाल कृष्ण गोखले की लॉबी को नरम दल और ब्राह्मणवाद और हिंदुत्व की स्थापना की इच्छा रखने वाले बाल गंगाधर तिलक को गरम दल कहा गया।
कांग्रेस के शुरुआती दिन
गोखले को राजनीतिक गुरु मानने वाले बैरिस्टर मोहनदास करमचंद गांधी के कांग्रेस में आने के बाद पार्टी में जितने भी नरम-गरम थे, साफ हो गए। ब्राह्मणवाद और हिंदुत्व के मुताबिक़, देश की कल्पना करने वालों ने आरएसएस, हिंदू महासभा जैसे संगठन बना लिए।
सुभाष चंद्र बोस जैसे लोगों को 3 बार कांग्रेस में भीतर- बाहर होना पड़ा। गांधी जब तक रहे, छाए रहे। जवाहरलाल नेहरू के पिता मोतीलाल नेहरू को भी कांग्रेस से अलग होकर सी. आर. दास के साथ मिलकर अलग स्वराज दल बनाना पड़ा। गांधी आने के बाद करीब 30 साल तक छाए रहे।
गांधी के बाद जवाहरलाल नेहरू की थोड़ी दबंगई ज़रूर चली। उसकी वजह है कि उनके प्रतिस्पर्धी सरदार बल्लभ भाई पटेल 1950 में ही दिवंगत हो गए और पार्टी में कोई दूसरा नहीं बचा, जो नेहरू के कद का हो। लेकिन पार्टी में लोकतंत्र कायम रहा। नेहरू न तो खुद पार्टी के अध्यक्ष बने, न उनके परिवार का कोई पार्टी अध्यक्ष बना। ऐसे में यह जान लेना जरूरी है कि स्वतंत्रता के बाद कौन से लोग कांग्रेस के अध्यक्ष रहे हैं।
जे. बी. कृपलानी (1888-1982) : महात्मा गांधी के सेक्रेटरी के रूप में काम कर चुके और स्वतंत्रता आंदोलन में सक्रिय रहे कांग्रेस नेता कृपलानी ने 1947 में पार्टी की अध्यक्षता की।
पट्टाभि सीतारमैया (1880-1959) : डॉक्टर भोगराजू पट्टाभि सीतारमैया आंध्र नियोगी ब्राह्मण परिवार में पैदा हुए। मद्रास मेडिकल कॉलेज से शिक्षा प्राप्त सीतारमैया 1905 में बंगाल विभाजन के समय वह राजनीति में आए और इसका विरोध किया। बाद में वह गांधी के करीबी नेता बन गए। 1948 में कांग्रेस के जयपुर अधिवेशन में सीतारमैया पार्टी के अध्यक्ष चुने गए। वह 1948 व 1949 में पार्टी अध्यक्ष रहे।
पुरुषोत्तम दास टंडन (1882-1961) : इलादाबाद में जन्मे टंडन एक मध्यवर्गीय खत्री परिवार के थे। वह 1899 में कांग्रेस में विद्यार्थी के रूप में शामिल हुए और विभिन्न आंदोलनों में हिस्सा लिया। वह 1950 में नासिक अधिवेशन में पार्टी के अध्यक्ष चुने गए।
जवाहरलाल नेहरू (1889-1964) : गांधी के सबसे क़रीबी रहे जवाहरलाल नेहरू भारत के प्रधानमंत्री बने। वह स्वतंत्रता के पहले भी पार्टी अध्यक्ष रह चुके थे और प्रधानमंत्री रहते उन्होंने 1951 से 1954 तक पार्टी की अध्यक्षता की।
यू. एन. ढेबर (1905-1977) : सौराष्ट्र (गुजरात) के 1948 से 1954 तक मुख्यमंत्री रहे यू. एन. ढेबर ने 1955 से 1959 तक पार्टी की अध्यक्षता की।
इंदिरा गांधी (1917-1985) : जवाहरलाल नेहरू की पुत्री इंदिरा गांधी 1959 में पार्टी अध्यक्ष बनीं। 1978 के कलकत्ता अधिवेशन में पार्टी अध्यक्ष बनीं और 1984 तक लगातार पार्टी अध्यक्ष रहीं।
नीलम संजीव रेड्डी (1913-1996) : आंध्र प्रदेश के अनंतपुर जिले में एक संपन्न परिवार में जन्मे रेड्डी 1931 के सविनय अवज्ञा आंदोलन में पहली बार चर्चा में आए और छात्र जीवन में ही महात्मा गांधी से जुड़ गए। वह 1960 के बेंगलुरु, 1961 के भावनगर और 1962 के पटना अधिवेशन में पार्टी के अध्यक्ष चुने गए। वह 1960 से 1963 तक पार्टी के अध्यक्ष रहे।
के. कामराज (1903-1975) : तमिनाडु के विरुधनगर में जन्मे के कामराज ने 12 साल की उम्र में पढ़ाई छोड़ दी। 15 साल की उम्र में जलियांवाला बाग नरसंहार से आहत होकर स्वतंत्रता आंदोलन में आए। उसके बाद वह मदुरै में गांधी से मिले और कांग्रेस में शामिल हो गए। 1964 में वह कांग्रेस के अध्य़क्ष बने और 1964 से 1967 तक पार्टी अध्यक्ष रहे।
एस. निजलिंगप्पा (1902-2000) : मैसूर राज्य के बेल्लारी जिले के एच छोटे से गांव में मध्य वर्गीय लिंगायत परिवार में सिद्धवनल्ली निजलिंगप्पा का जन्म हुआ। स्वतंत्रता आंदोलनों से होते हुए स्वतंत्र भारत में वह कांग्रेस के 1968 के हैदराबाद और 1969 के फरीदाबाद अधिवेशन में अध्यक्ष चुने गए और दो साल तक पार्टी अध्यक्ष रहे।
जगजीवन राम (1908-1986) : बिहार में एक दलित परिवार में जन्मे जगजीवन राम ने बिड़ला स्कॉलरशिप से बनारस हिंदू युनिवर्सिटी में पढाई की और उसके बाद कलकत्ता यूनिवर्सिटी पहुंचे। उन्होंने 1940 के सत्याग्रह और 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में हिस्सा लिया। वह 1970 और 1971 में कांग्रेस के अध्यक्ष रहे।
शंकर दयाल शर्मा (1918-1999) : उत्तर प्रदेश में जन्मे शंकर दयाल शर्मा ने मध्य प्रदेश को अपनी कर्मभूमि बनाई और राज्य के मुख्यमंत्री भी रहे। उन्होंने भी स्वतंत्रता आंदोलन में अहम भूमिका निभाई। वह 1972 के कलकत्ता अधिवेशन में कांग्रेस के अध्यक्ष चुने गए। वह 1972 से 1974 तक पार्टी के अध्यक्ष रहे।
देवकांत बरुआ (1914-1997) : एक बेहतरीन पढ़ाकू के रूप में ख्यातिप्राप्त देवकांत बरुआ का जन्म असम के डिब्रूगढ़ जिले में हुआ था। वह पत्रकार व लेखक थे, जो 1930, 1941, 1942 के आंदोलनों में जेल गए। वह 1975 से 1977 तक पार्टी के अध्यक्ष रहे।
कासु ब्रह्मानंद रेड्डी (1908 से 1994) : रेड्डी 1977 और 1978 में पार्टी के अध्यक्ष रहे। उसके बाद इंदिरा गांधी ने अध्यक्ष पद संभाल लिया।
राजीव गांधी (1944-1991) : इंदिरा गांधी की हत्या के बाद भारत के प्रधानमंत्री बने। राजीव गांधी 1985 से लेकर मृत्युपर्यंत 1991 तक वह पार्टी के अध्यक्ष रहे।
पी. वी. नरसिम्हा राव (1921-2004) : आंध्र प्रदेश के नेता पामुलपति वेंकट नरसिम्हा राव करीब 5 दशक तक कांग्रेस से सक्रियता से जुड़े रहे। उन्होंने स्वतंत्रता आंदोलनों में अहम भूमिका निभाई। आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे, भारत के प्रधानमंत्री बने। वह 1992 में कांग्रेस के तिरुपति अधिवेशन में पार्टी के अध्यक्ष चुने गए। वह 1996 तक वह पार्टी के अध्यक्ष रहे।
सीताराम केसरी (1919-1999) : बिहार में जन्मे केसरी महज 13 साल की उम्र में महात्मा गांधी और स्वतंत्रता आंदोलनों से जुड़ गए और छह दशक तक पार्टी से जुड़े रहे। वह कलकत्ता अधिवेशन में पार्टी के अध्यक्ष बने और 1996-98 तक पार्टी अध्यक्ष रहे।
सोनिया गांधी (जन्म 9 दिसंबर 1946) : सोनिया गांधी 1998 में कांग्रेस अध्यक्ष बनीं, जब पार्टी सत्ता से बाहर होकर हिचकोले खा रही थी। उसके बाद वह 2017 तक लगातार 18 साल पार्टी अध्यक्ष बनी रहीं, जो कांग्रेस के इतिहास में पार्टी अध्यक्ष के रूप में सबसे लंबा कार्यकाल है।
राहुल गांधी (जन्म 19 जून 1970) : सोनिया गांधी के बाद राहुल गांधी 2017 में कांग्रेस के अध्यक्ष बने। 2019 में उन्होंने कांग्रेस की शर्मनाक हार के बाद इस्तीफा दिया और उसके बाद करीब एक साल से सोनिया गांधी पार्टी की अंतरिम अध्यक्ष हैं।
परिवारवाद की शुरुआत इंदिरा से
इस तरह देखें तो कांग्रेस में नेहरू परिवार के बाहर के लोग लंबे समय तक पार्टी के अध्यक्ष रहे हैं। इन नेताओं के परिजन अभी भी कांग्रेस में सक्रिय हैं, कई चुनाव हारकर या दूसरे कार्यों में लगकर राजनीति से बाहर हो चुके हैं।
कांग्रेस में नेहरू परिवार के लंबे समय तक अध्यक्ष बनने का सिलसिला इंदिरा गांधी के समय से शुरू हुआ, जब उन्होंने अलग पार्टी बनाकर राजनीति शुरू की। उस समय पार्टी अध्यक्ष रहते हुए देवकांत बरुआ ने 'इंडिया इज इंदिरा एंड इंदिरा इज इंडिया' का नारा दिया था।
उसके बाद राहुल गांधी और सोनिया गांधी लंबे समय तक पार्टी के अध्यक्ष रहे। वहीं इस बीच नरसिंम्हराव के 5 साल के अध्यक्ष के रूप में कार्यकाल की भी उपेक्षा नहीं की जा सकती।
ग़ैर हिन्दी भाषी अध्यक्ष
कांग्रेस के कई अध्यक्षों ने पार्टी छोड़कर अलग राजनीति जमाने की भी क़वायद की। उनमें जे. बी. कृपलानी से लेकर 'इंदिरा इज इंडिया' का नारा देने वाले देवकांत बरुआ, जगजीवन राम तक का नाम आता है। ऐसे में यह कहना मुनासिब नहीं लगता कि नेहरू परिवार से इतर लोगों ने पार्टी को बेहतर तरीके से नहीं चलाया है या उन्हें मौका नहीं मिला है। अध्यक्षों की सूची देखें तो यह दावा भी खारिज होता है कि गैर हिंदीभाषी लोग कांग्रेस का अध्यक्ष बनकर बेहतर नहीं कर सकते।
अध्यक्ष पद पूरी तरह से संगठनात्मक कार्य है, जिसमें भाषा की कोई खास भूमिका नहीं है। सबसे लंबे समय तक पार्टी अध्यक्ष रहीं सोनिया गांधी की हिंदी या अंग्रेजी किसी भी भाषा पर जादुई पकड़ नहीं है।
तमाम अध्यक्ष दक्षिण भारत या अन्य इलाकों के गैर हिंदी भाषी रहे हैं, जिन्होंने पार्टी को बेहतर नेतृत्व दिया और के. कामराज जैसे नेताओं को तो किंगमेकर के नाम से जाना जाता है।
आंकड़े देखने पर यह विपक्ष की ओर से प्रचारित मामला ज्यादा लगता है कि गैर हिंदीभाषी, गैर भाषणबाज, गैर नेहरू परिवार का नेतृत्व होने से कांग्रेस बिखर जाएगी।
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