अभिव्यक्ति की आज़ादी को दबाने की कोशिशों की आलोचना करने पर अमोल पालेकर को रोका गया था। आपातकाल की शुरुआत ऐसे ही होती है। उसे रोकने के लिए बोलते रहना ज़रूरी है।
45 साल पहले आपातकाल के दौरान जब जेपी का नज़रबंदी आदेश निकला था तब प्रेस में खलबली मची थी। प्रेस सेंसरशिप भी लागू हो चुकी थी। किसी को समझ में नहीं आ रहा था कि आगे क्या होने वाला है।
भारत चीन सीमा विवाद के बीच गलवान पर मोदी का बयान देश के लिए बड़ा झटका है। क्या प्रधानमंत्री के केवल एक वक्तव्य ने ही देश को बिना कोई ज़मीनी युद्ध लड़े मनोवैज्ञानिक रूप से हरा नहीं दिया है?
क्या भारत में ऐसा सम्भव है या कभी हो सकेगा कि राष्ट्रपति भवन या प्रधानमंत्री आवास के आसपास या कहीं दूर से भी गुजरने वाली सड़क को करोड़ों प्रवासी मज़दूरों के जीवन के नाम पर कर दिया जाए?
मैं ‘सम्पूर्ण क्रांति दिवस’ 5 जून 1974 के उस ऐतिहासिक दृश्य का स्मरण कर रहा हूँ जो पटना के प्रसिद्ध गाँधी मैदान में उपस्थित हुआ था और मैं जयप्रकाशजी के साथ मंच के निकट से ही उस क्रांति की शुरुआत देख रहा था।
कोरोना के कारण सबसे ज़्यादा मौतें अमेरिकी अस्पतालों में हुई हैं पर देश के एक शहर में पुलिस के हाथों हुई एक अश्वेत नागरिक की मौत ने सभी पश्चिमी राष्ट्रों की सत्ताओं के होश उड़ा रखे हैं।
देश जब दिक्कतों का सामना कर रहा हो, जनता या तो घरों में बंद हो या सड़कों पर पैदल चल रही हो, आपदा प्रबंधन के तहत सारी शक्तियाँ कुछ व्यक्ति-समूहों में केंद्रित हो गई हों, उस स्थिति में अदालतों, विपक्ष और मीडिया को क्या काम करने चाहिए?
बिहार की पंद्रह-वर्षीय बहादुर बालिका ज्योति कुमारी पासवान के अप्रतिम साहस और उसकी व्यक्तिगत उपलब्धि को अब सत्ता प्रतिष्ठानों से जुड़े हुए लोग लॉकडाउन की देन बताकर उसे सम्मानित और पुरस्कृत करना चाह रहे हैं।
कोरोना के इलाज के लिए वैक्सीन की खोज का काम इस समय अरबों-खरबों डॉलर का धंधा बन गया है। दुनियाभर की दवा कम्पनियाँ और विश्वविद्यालय इस काम में रात-दिन जुटे हुए हैं।
कोरोना संकट के दौर में मीडिया की भूमिका कैसी है? मीडिया क्या वाजिब सवाल उठा रहा है? दुनिया के एक सौ अस्सी देशों में प्रेस की आज़ादी को लेकर हाल ही में जारी रैंकिंग में भारत 142वें क्रम पर पहुँच गया है।
देश की वित्त मंत्री आरोप लगा रही हैं कि राहुल गाँधी ड्रामेबाज़ी कर रहे हैं। वित्त मंत्री ने ‘दुख’ के साथ कहा कि राहुल ने मज़दूरों के साथ बैठकर, उनसे बात करके उनका समय बर्बाद किया।
क्या हम नब्बे दिन बाद ही पड़ने वाले इस बार के पंद्रह अगस्त पर लाल क़िले की प्राचीर से प्रधानमंत्री के तिरंगा फहराने और सामने बैठकर उन्हें सुनने वाली जनता के परिदृश्य की कल्पना कर सकते हैं?
लाखों की संख्या में जो मज़दूर इस समय गर्मी की चिलचिलाती धूप में भूख-प्यास झेलते हुए अपने घरों को लौटने के लिए हज़ारों किलोमीटर पैदल चल रहे हैं उन्हें शायद बहुत पहले ही आभास हो गया था कि देश को ही आत्म-निर्भर होने के लिए कह दिया जाएगा।
आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि लॉकडाउन खोलने को लेकर नागरिकों के मन में जैसी चिंताएँ हैं वैसी उन लोगों के मनों में बिलकुल नहीं हैं जो दुनिया भर में सरकारों में बैठे हुए हैं।
एक ख़बर सरकार के एक आधिकारिक प्रवक्ता द्वारा दी गई यह जानकारी है कि देश को अब कोरोना के वायरस के साथ ही जीना सीखना होगा। इस ख़बर को बहस में आने ही क्यों नहीं दिया गया?