मोदी सरकार को यह समझना होगा कि छात्रों के अलावा बड़े पैमाने पर दलित, आदिवासी, किसान और नौजवान उसके ख़िलाफ़ क्यों दिख रहे हैं? निश्चित रूप से यह उसके लिए चेतावनी की घंटी है।
बहुत जल्द ही आर्थिक मंदी देश के शासन में राजनैतिक लड़ाई का रूप लेने जा रही है। मंदी से राजस्व वसूली में आई गिरावट के बाद केंद्र ने राज्यों की हिस्सेदारी में कटौती शुरू कर दी है।
सरकार एक तो आर्थिक मंदी की बात ही नहीं मानती है, और उस पर तुर्रा यह कि आर्थिक स्थिति ठीक करने के लिए जो कदम उठाती है, उसका ज़्यादा फ़ायदा वे लोग ही उठा रहे हैं सरकार के नज़दीक हैं, ऐसा क्यों है?
अभी तक सरकार ने फ़ाइव ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था का राग अलापना छोड़ा नहीं है लेकिन जिस रफ़्तार से आरबीआई से पैसे लेने सहित आर्थिक फ़ैसले हो रहे हैं उनसे साफ़ लग रहा है कि सरकार मंदी के डर से परेशान है।
वित्त मंत्री ने अपने भाषण में जो घोषणाएँ कीं, उसके बाद यह उम्मीद करनी चाहिए कि जल्दी ही कुछ और अच्छी घोषणाएँ होंगी क्योंकि मंदी का भूत इन 33 हल्के मंत्रों से नहीं भाग सकता।
भारत ने कश्मीर पर एक बड़ा फ़ैसला करने के बाद से पाकिस्तान द्वारा किए जाने वाले हंगामे और राजनयिक संबन्धों पर उठाए गए क़दमों की प्रतिक्रिया बहुत ही संयत ढंग से क्यों दी है?
अपनी ऐतिहासिक जीत के बाद ‘राष्ट्र को धन्यवाद’ देते हुए नरेन्द्र मोदी अगर धर्मनिरपेक्षता के डिस्कोर्स को ध्वस्त करने को अपनी सबसे प्रमुख उपलब्धि बता रहे थे तो इसका संदेश क्या है?
चुनाव मैदान से लेकर टीवी चैनलों पर यह बहस चल रही है कि प्रधानमंत्री नीच हैं या नीची जाति के हैं, पर क़ायदे से यह बहस होनी चाहिए थी कि क्या देश आर्थिक मंदी की चपेट में आ चुका है या आने वाला है।
प्रियंका गाँधी अपनी ओर ध्यान खींचने में सफल रही हैं। पूर्वी उत्तर प्रदेश की अपनी पहली यात्रा के समय भी, अहमदाबाद के अधिवेशन में भी, दलित नेता चन्द्रशेखर से मिलने के समय भी और प्रयाग से वाराणसी की गंगा यात्रा में भी।
जार्ज ने घर से निकलकर कई-कई बार पूरे देश को हिलाया, सरकारें बनाईं और गिराईं। समाज और परिवार से बग़ावत कर समाजवादी राजनीति की। जार्ज वास्तव में बेचैन आत्मा थे।