हाफ़िज़ अहमद की 'मैं एक मियाँ हूँ' कविता को पढ़कर क्या आप पुलिस स्टेशन के लिए रवाना हो जाएँगे? हाफ़िज़ को इन पंक्तियों को लिखने के लिए सज़ा क्यों मिल रही है?
इंसान होने का मतलब क्या है? क्या दकियानूसी विचार को आढ़े रहना या नये और तार्किक विचारों को अपनाना? यदि हम पृथ्वी को चपटी ही मानते रहते तो क्या हम इंसानों की तरक़्क़ी इतनी हो पाती? जानने की उत्सुकता के बिना इंसान कहाँ तक पहुँच पाता?
जब संसद में सरकार का कोई मंत्री कहे कि ‘वन्दे मातरम’ न कहने वाले को भारत में रहने का हक़ नहीं है, तो उसे संसद में और बाहर जवाब देना ही पड़ेगा कि क्या भारत में रहने की शर्त ‘वन्दे मातरम’ का जाप या नारा है?
उत्तर प्रदेश सरकार के निजी विश्वविद्यालयों के संबंध में नए अध्यादेश के आने के बाद सवाल यह उठ रहा है कि क्या भारत में राष्ट्रवाद प्रमाणन बोर्ड की स्थापना की जानी चाहिए?
बीजेपी नेताओं की ओर से बयानों के माध्यम से यह आग्रह किया जा रहा है कि गोडसे के साथ न्यायपूर्ण विचार होना चाहिए। गाँधी की हत्या में गाँधी की ज़िम्मेदारी तय की जानी चाहिए।
राहुल गाँधी की इसलिए तो प्रशंसा की ही जानी चाहिए कि उन्होंने बिना हिचकिचाहट के निर्द्वंद्व होकर सैम पित्रोदा के 1984 की सिख विरोधी हिंसा पर दिए गए बयान की सख़्त आलोचना की। 1984 की याद हिंदुओं के लिए भी आत्म परीक्षण का अवसर है।
अतिशी मरलेना को प्रेस के ज़रिए जनता को बताना पड़ा कि मेरा नाम अतिशी मरलेना है, लेकिन इससे भ्रम में न पड़ जाइए कि मैं ईसाई या यहूदी हूँ, मैं पूरी हिंदू हूँ, बल्कि और भी पक्की क्योंकि मैं क्षत्रिय हिंदू हूँ। दुष्प्रचार के झाँसे में न आइए।
बेगूसराय में बाहर से गए लोग यह देखकर लौट रहे हैं कि कन्हैया को उन्हीं का समर्थन नहीं मिले शायद जिन्हें पारंपरिक तौर पर अपना जन कहा जाता है। तो कन्हैया के जीतने की उम्मीद कितनी है?
हमें ऐसी राजनीति को परास्त करना होगा जो जुनैद या अलीमुद्दीन के क़ातिल पैदा करती है। हमें सरकार के विरोधी रवैए के बावजूद इंसाफ़ के लिए आख़िरी दम तक लड़ना होगा।
आडवाणी ने कहा है कि बीजेपी अपने विरोधियों या आलोचकों को कभी राष्ट्रविरोधी नहीं कहती। लोग कहने लगे कि वह उदार नेता हैं, लेकिन क्या वे भूल गये कि आडवाणी का रथ जिधर से गुज़रा वहाँ ख़ून की लकीरें खिंच गयीं?
कन्हैया के चुनाव लड़ने की घोषणा होते ही कन्हैया के ख़िलाफ़ घृणा अभियान शुरू हो गया है। यह राष्ट्रवादियों की ओर से नहीं, ख़ुद को वामपंथी कहनेवाले और दलित या पिछड़े सामाजिक समुदायों की ओर से है। ऐसा क्यों?
प्रोफ़ेसर कृष्ण कुमार ने इसलामोफ़ोबिया शब्द के इस्तेमाल को ग़लत बताया। उनका कहना है कि यह शब्द उस मनोवृत्ति को व्यक्त नहीं करता जो अभी पूरी दुनिया में अलग-अलग रूप में प्रकट हो रही है। क्या सच में ऐसा है?
जैसे यहूदी विरोध आपके भीतर संस्कार की तरह सोया रहता है, वैसे ही मुसलमान विरोध भी। इसे इसलामोफ़ोबिया कहा गया है। कुछ विद्वानों का कहना है कि लोगों के भीतर मुसलमानों को लेकर तरह-तरह के पूर्वग्रह हैं।
मुखीम कोर्ट के निर्णय की रिपोर्ट करके सिर्फ़ अपने धर्म का निर्वाह कर रही थीं। जनतांत्रिक मूल्यों को लेकर ऐसी प्रतिबद्धता राष्ट्रीय संपादकों में शायद ही देखी जाती है।
सीमा के इस और उस पार से कुछ घरों से विलाप उठ रहा है। लेकिन यह विलाप राष्ट्रीय शोक का विषय नहीं बन पाता क्योंकि वह युद्ध में गोलियाँ चलाते लोगों की ‘शहादत’ नहीं है।
यह धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र की जगह अब एक 'मुसलमान-शंकालु' राष्ट्र में तब्दील हो रहा है। धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र का मतलब सिर्फ़ एक क़ानूनी अवस्था नहीं। उसका मतलब था, अलग-अलग समुदायों का साथ जीने का एक तरीक़ा।
नब्बे साल का होना भी अब खबर नहीं क्योंकि आम तौर पर दीर्घायुता में वृद्धि हुई है, लेकिन किसी आलोचक का तकरीबन सत्तर साल तक रचनात्मक रूप से सक्रिय बने रहना ज़रूर खबर है।
जिस तरह यह अधिनायकवादी बहुसंख्यकवाद एक-एक कर सारी जनतांत्रिक संस्थाओं को ध्वस्त कर रहा है, वह अगर जारी रहा तो अभी तो राजनीति की दिशा ही बदलती दीखती है, देश के बदलते देर नहीं लगेगी।