प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपने दूसरे कार्यकाल के दो वर्ष पूरे कर चुके हैं लेकिन इन दो सालों में वह अपने मंत्रिपरिषद को भी पूरी तरह आकार नहीं दे पाए हैं।
सरकार ने कोरोना की वैश्विक महामारी से निपटने के सिलसिले में हर फ़ैसला अपने राजनीतिक नफा-नुक़सान को ध्यान में रखकर और अपनी छवि चमकाने के मक़सद से किया है। इससे कोरोना वैक्सीनेशन का अभियान भी बुरी तरह लड़खड़ा गया है।
नरेंद्र मोदी के कार्यकाल के सात सालों के दौरान देश की अर्थव्यवस्था किस तरह तबाह हुई, बेरोजगारों की समस्या में कितना इजाफा हुआ, संसद, न्यायपालिका और चुनाव आयोग जैसी संस्थाओं की साख कितनी चौपट हुई?
केंद्र सरकार के बनाए तीन कृषि क़ानूनों के विरोध में जारी किसानों के आंदोलन को छह महीने पूरे हो चुके हैं। यह आंदोलन न सिर्फ़ मोदी सरकार के कार्यकाल का बल्कि आज़ाद भारत का ऐसा सबसे बड़ा आंदोलन है जो इतने लंबे समय से जारी है।
जिस तरह गांवों में झोलाछाप डॉक्टरों को समझ में नहीं आ रहा है कि कोरोना का इलाज कैसे किया जाए, वैसे ही भारत सरकार के इन विशेषज्ञों को भी कुछ समझ में नहीं आ रहा है।
पश्चिम बंगाल के मामले में लगभग सभी टीवी चैनलों और सर्वे एजेंसियों के एग्ज़िट पोल औंधे मुँह गिरे हैं। एक बार फिर साबित हुआ कि एग्ज़िट पोल की कवायद पूरी तरह बकवास होती है।
देश के तमाम हिस्सों की तरह देश की राजधानी दिल्ली में भी कोरोना के कहर से हाहाकार मचा हुआ है। अंतिम संस्कार के लिए श्मशान घाटों पर कतार में खड़े हैं। ऑक्सीजन के अभाव में मरीज मर रहे हैं। तो सांसद कहाँ हैं?
पश्चिम बंगाल में जारी विधानसभा चुनाव के बीच कोरोना संक्रमण के हालात कितने भयावह शक्ल ले चुके हैं, इसे कोलकाता हाई कोर्ट की बेहद तल्ख टिप्पणियों से समझा जा सकता है।
बीजेपी के तमाम नेता और केंद्रीय मंत्रियों का अक्सर कहते रहे हैं कि वे राहुल गांधी की किसी भी बात को गंभीरता से नहीं लेते। लेकिन होता यह है कि राहुल के सुझाव को ही आख़िरकार सरकार मानती है।
चुनाव आयोग ने पिछले महीने के तीसरे सप्ताह में केरल की तीन राज्यसभा सीटों के चुनाव की तारीख़ का ऐलान किया तो क़ानून मंत्रालय ने उसे चुनाव टालने का निर्देश दिया। चुनाव आयोग ने इसे टाल भी दिया। फिर इसे अपना फ़ैसला बदलना पड़ा।
देश में पुलिस के बेजा इस्तेमाल पर रोक लगाने का संवैधानिक समाधान नहीं निकाला जाएगा, तो देश को पूरी तरह पुलिस स्टेट में तब्दील होने से नहीं रोका जा सकेगा। यूपी में एनएसए का इस्तेमाल इसका उदाहरण है।
संयुक्त राष्ट्र की 'वर्ल्ड हैपिनेस रिपोर्ट-2021’ बता रही है कि खुशमिजाजी के मामले में भारत का मुकाम दुनिया के तमाम विकसित और विकासशील देशों से ही नहीं बल्कि पाकिस्तान समेत तमाम छोटे-छोटे पड़ोसी देशों और युद्ध से त्रस्त फ़लस्तीन से भी पीछे है।
कोरोना की वैश्विक महामारी ने एक साल पहले जब भारत को अपनी चपेट में लेना शुरू किया था तब केंद्र और बीजेपी शासित राज्यों की सरकारों ने सीएए और एनआरसी वाले आंदोलन को दबा दिया था। अब किसान आंदोलन है।
पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी तथा अन्य विपक्षी नेताओं का घोषित हुए चुनाव कार्यक्रम पर बिफरना और चुनाव आयोग की नीयत पर सवाल उठाना स्वाभाविक ही है।
नागरिकता क़ानून अभी सरकार की प्राथमिकता में नहीं है। इस क़ानून को पारित कराने के पीछे सरकार का मकसद सिर्फ देश के एक समुदाय विशेष को चिढ़ाना और सांप्रदायिक ध्रुवीकरण को तेज करना था।
कई परियोजनाओं के तहत धड़ल्ले से साफ़ किए जा रहे जंगल और पहाड़ों को काटने के लिए किए जा रहे विस्फोट ही वहाँ आपदा को न्योता दे रहे हैं। चमोली ज़िले में ग्लेशियर टूटने से आई आपदा को इसी रूप में देखा जा सकता है।
किसान आंदोलन में दिल्ली का ऐतिहासिक लाल क़िला भी चर्चा में आ गया है। कुछ जगह उपद्रव होने की ख़बरों के बीच सबसे ज़्यादा फोकस इस बात पर रहा कि कुछ लोगों ने लाल क़िले पर तिरंगे के बजाय दूसरा झंडा फहरा दिया।
आज यानी 30 जनवरी को शहीद दिवस है। देश को आज़ादी दिलाने के लिए सत्य और अहिंसा के मार्ग पर चलने वाले महात्मा गांधी की हत्या कर दी गई थी। जानिए, गांधी क्यों आज भी प्रासंगिक हैं।
दिल्ली हाई कोर्ट के फ़ैसले के बाद सूचना का अधिकार (आरटीआई) क़ानून अब पूरी तरह बेअसर हो जाएगा और स्वतंत्र हैसियत वाला केंद्रीय सूचना आयोग एक आम सरकारी महकमे की तरह हो जाएगा।
केंद्र सरकार ने किसानों से कह दिया है कि कृषि क़ानून मान्य नहीं हैं तो सुप्रीम कोर्ट जाइए। किसानों ने भी स्पष्ट कर दिया है कि वे न तो सुप्रीम कोर्ट जाएँगे, न ही अदालती कार्यवाही का हिस्सा बनेंगे और अपना आंदोलन जारी रखेंगे।
आरएसएस के मुखिया मोहन राव भागवत ने फरमाया है कि अगर कोई हिंदू है तो वह देशभक्त ही होगा, क्योंकि देशभक्ति उसके बुनियादी चरित्र और संस्कार का अभिन्न हिस्सा है। तो फिर नाथुराम गोडसे, सिख विरोधी दंगे में शामिल लोग कौन थे?