फ़ारस की खाड़ी एक बार फिर युद्ध की तरफ़ जाती दिख रही है। ईरान ने अमेरिकी ड्रोन मार गिराया है। दो तेल टैंकरों पर हमले हुए हैं। पर राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रम्प ने ईरान पर जवाबी हमले के लिए अपनी स्वीकृति आख़िरी वक़्त में रोक ली है। हालाँकि अमेरिका खाड़ी में सैन्य शक्ति बढ़ाए जा रहा है, पर उतना नहीं जितना इराक़ युद्ध के पहले था। कच्चे तेल की क़ीमतें अन्तरराष्ट्रीय बाज़ार में 5 प्रतिशत बढ़ कर 65.33 डॉलर प्रति बैरल पहुँच चुकी है। बीमा कम्पनियों ने तेल टैंकरों पर बीमे की प्रीमियम की राशि पाँच करोड़ रुपए बढ़ा दी है। अमेरिका ने ईरान के परमाणु प्रतिस्ठानों पर साइबर हमले करने के आदेश दिए है और ईरान के सुप्रीम लीडर ख़ामेनि के विदेशी खातों को ज़ब्त करने की कोशिश भी जारी है।
कारण वही है, जो हमेशा रहा है, दुनिया की बड़ी ताक़तों का उस क्षेत्र में अपना वर्चस्व बनाए रखने की कोशिश। मध्यकालीन इतिहास से लेकर वर्तमान तक, ईरान कभी भी अंतरराष्ट्रीय कूटनीति में तटस्थ नहीं रह पाया है। कहीं ना कहीं से इस देश की एक भूमिका होती है, जिस पर इसे विश्व समुदाय ख़ास कर महाशक्तियों की सीधी दख़लंदाज़ी झेलनी पड़ती है। उन्नीसवीं सदी में ईरान ब्रिटिश और रूसी साम्राज्यवाद के ‘ग्रेट गेम’ का हिस्सा रहा, जिससे ब्रिटेन ईरान पर अपना इतना प्रभाव रखना चाहता था कि रूस ईरान के माध्यम से भारतीय उपनिवेश में घुसने की कोशिश ना करे। वहीं द्वितीय विश्व युद्ध में रूस और ब्रिटेन दोनो ने ईरान पर हमला किया था। इसी पृष्ठभूमि में ईरान की दोस्ती अमेरिका से हुई और ईरान 1979 तक अमेरिका का प्रिय पात्र बना रहा ।
आज जिस परमाणु कार्यक्रम पर अमेरिका और ईरान के बीच ठनी हुई है, वह ईरान ने 1957 में अमेरिका के सहयोग से ही शुरू किया था। आज परिस्थितियाँ बदल गयी हैं। अब अमेरिका और ईरान के बीच राजनयिक सम्बन्ध तक नहीं हैं।
ईरान को परमाणु विकास का हक़ है
ईरान परमाणु अप्रसार संधि पर 1968 में ही हस्ताक्षर कर चुका है और उसी संधि की धारा 4 के तहत ईरान को शांतिपूर्ण प्रयोजनों के लिए परमाणु शक्ति के विकास और अनुसंधान करने का पूर्ण अधिकार भी प्राप्त है। आज ईरान अपने उसी हक़ की लड़ाई के लिए जंग के मुहाने पर खड़ा है।
जंग किसे चाहिए?
क्या ईरान ने जंग के लिए अमेरिका को उकसाया है? बिल्कुल नहीं। जंग की ज़रूरत सऊदी अरब को है ताकि वह अपने देश में हो रहे मानवाधिकारों के हनन और राजनीतिक हत्याओं से लोगों का ध्यान भटका सके। जंग अमेरिका की हथियार बनाने वाली कम्पनियों को चाहिए जो घरेलू सकल उत्पादन का दस प्रतिशत यानी क़रीब 2.2 ट्रिलियन डॉलर का हथियार बनाती हैं और जिससे अमेरिका को प्रतिवर्ष एक ट्रिलियन डॉलर का राजस्व मिलता है।
स्टॉकहोम इंटरनैशनल पीस रीसर्च इंस्टीच्यूट की रिपोर्ट के अनुसार 2013-17 में विश्व के कुल हथियारों के निर्यात का 34% सिर्फ़ अमेरिका ने किया है। रूस 22% के साथ दूसरे स्थान पर है। फ़्रान्स, चीन आदि देशों की भागीदारी 6-7% तक ही सीमित है। अगर यह जंग होती है तो रूस ईरान को हथियार बेचेगा और अमेरिका सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात दोनों को हथियार देगा।अभी अमेरिका को 126 बिलियन डॉलर का हथियार का ऑर्डर खाड़ी देशों से मिला है। इसमें 60 बिलियन तो सिर्फ़ सऊदी अरब का है।
अमेरिकी सीनेट ने सऊदी अरब को हथियार बेचने से मना कर दिया है, क्यूँकि संयुक्त राष्ट्र संघ की एक रिपोर्ट के अनुसार, पत्रकार खसोगी की हत्या में सऊदी अरब के हाथ होने के सबूत हैं। अब देखना है कि अमेरिकी राष्ट्रपति वीटो का प्रयोग करते हैं या नहीं।
अमेरिका को अपनी हथियार कम्पनियों के लिए सऊदी अरब का पैसा चाहिए, जिससे उन्हें पाँच लाख नए रोज़गार मिलते दिख रहें है। इसका असर अगले राष्ट्रपति चुनाव पर भी पड़ना तय है।
लेकिन हथियार बनाने वाली अमेरिकी लॉकहीड और रेयथॉन ने कहा है कि नए रोज़गार कुछ सैकड़ों में होंगे, लाखों में नहीं।
झगड़े की शुरुआत
झगड़े की शुरुआत अमेरिकी राष्ट्रपति के मई 2018 में ईरान के साथ किए गए परमाणु मसले पर जॉईंट कॉम्प्रेहेन्सिव प्लान ऑफ़ ऐक्सन (जेसीपीओए) से एकतरफ़ा ख़ुद को अलग करने से होती है। ईरान जो जेसीपीओए 2015 के बाद अमेरिकी प्रतिबंधो से मुक्त हो गया था, उस पर अमेरिका ने फिर से प्रतिबंध लगा दिया है। यह राजनीतिक निर्णय पिछले राष्ट्रपति बराक ओबामा के द्वारा लिए गए फ़ैसलों को पलटने के धुन में लिया गया लगता है।
ट्रम्प को यह साबित करना है कि ओबामा केयर से लेकर मेक्सिको के साथ रिश्ते और ईरान से 2015 में की गयी परमाणु संधि तक, कुछ भी अमेरिका के हित में नहीं है।
बात यहाँ तक तो समझ में आ सकती है। पर राष्ट्रपति ट्रम्प जो कि अमेरिका के अफ़ग़ानिस्तान में सैनिक भेजने को ग़लत ठहराते रहें है और वहाँ से निकलने को बेताब हैं, एक नयी लड़ाई में अमेरिका को कैसे झोंक सकते हैं? अमेरिकी राष्ट्रपति के अगले चुनाव नज़दीक हैं और अमेरिकी जनमानस एक नयी लड़ाई के लिए तैयार नहीं है। शायद यही कारण है कि अमेरिका गरज तो बहुत रहा पर उसका बरसना उतना आसान नहीं है ।
ट्रम्प की वजह से हालात बदतर
जेसीपीओए में पाँच वीटो पावर संपन्न देश, जर्मनी और यूरोपियन यूनियन शामिल है और यह बीस महीनों की मशक़्क़त के बाद बना था। ईरान अभी भी उस ऐक्शन प्लान के मुताबिक़ ही काम कर रहा है जिसमें ईरान अपने यूरेनियम के भंडार को 98% तक कम करने, नए परमाणु संयंत्र नहीं लगाने और अंतरराष्ट्रीय निरीक्षकों को अपने संयंत्र में आने देने की शर्तों को मान रहा है। परमाणु नियामक संस्था इंटरनेशनल एटमिक इनर्जी एजेन्सी यानी आईएईए के निरीक्षकों ने हर साल 3000 कार्य दिवस ईरान में पिछले तीन सालों में देकर एक-एक जगह पर जाकर सील लगायी है।
आईएईए के निदेशक युकिया अमानो ने मार्च 2018 में कहा था कि ईरान सभी शर्तों का पालन कर रहा है। फिर भी अमेरिका ने मई 2018 में इस संधि से एकतरफ़ा अलग होने की घोषणा कर दी।
इस अमेरिकी निर्णय को इस संधि से जुड़े अन्य देश समर्थन भी नहीं कर रहे हैं। लेकिन राष्ट्रपति ट्रम्प के बड़बोलेपन ने हालात को इस तरह से ख़राब करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है ।
भारत पर पड़ेगा बुरा असर
अगर ये जंग हुई तो विश्व की अर्थव्यवस्था पर काफ़ी बुरा असर होगा। भारत, चीन और जापान जैसे देश सबसे ज़्यादा प्रभावित होंगे।
भारत ईरान से कच्चे तेल ख़रीदने पर लगी रोक की वजह से पहले से ही संकट में है। अगर युद्ध हुआ तो तेल की क़ीमतें आसमान छूने लगेंगी और पेट्रोल पंपों पर तेल की कमी भी देखी जा सकती है।
जापानी प्रधान मंत्री शिंजो आबे ने तेहरान जाकर कुछ बीच बचाव करने की कोशिश तो ज़रूर की, पर ईरान ने दो-टूक शब्दों में यह कह दिया है कि वो जंग के लिए ज़िम्मेदार नहीं, पर तैयार ज़रूर है। जो दो तेल टैंकर पर फ़ारस की खाड़ी में हमले हुए उसने एक तो जापान का ही था। फिर भी जापान युद्ध नहीं चाहता। यूरोपीयन यूनियन कुछ पिछले दरवाज़े की कूटनीति भी चला रहा है। वैसे लग तो रहा है कि पूर्ण रूप युद्ध तब नहीं होगा जब तक ईरान अमेरिकी सेना पर सीधे हमला ना कर दे या होरमज स्ट्रेट को बंद ना कर दे।
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