अमेरिका में कोरोना संक्रमित लोगों की संख्या अब 20 लाख से ज़्यादा हो गई है। वहाँ क़रीब 1 लाख 13 हज़ार मौतें हुई हैं। अभी भी क़रीब 20 हज़ार पॉजिटिव केस हर रोज़ आ रहे हैं। आख़िर अमेरिका में इतने संक्रमण के मामले क्यों आ रहे हैं कि दूसरा कोई देश इसके आसपास भी नहीं है? क्या यह इसलिए है कि अमेरिका में जाँच काफ़ी ज़्यादा हो रही है और दूसरे देशों में काफ़ी कम? या फिर सिर्फ़ ट्रंप प्रशासन की विफलता का यह नतीजा है?
लंबे समय से कोरोना संक्रमण का असर इतना ज़्यादा होने के बाद भी अमेरिका में स्थिति सुधरती नहीं दिख रही है। हालाँकि, क़रीब 8 लाख बीमार स्वस्थ हो चुके हैं, लेकिन क़रीब 11 लाख फ़िलहाल संक्रमित हैं। अस्पतालों में भर्ती कोरोना मरीज़ों में से क़रीब 16 हज़ार लोगों की हालत गंभीर है। अमेरिका में हर दस लाख जनसंख्या में से क़रीब 6200 लोग संक्रमित हो चुके हैं और क़रीब 340 लोगों की मौत हुई है।
अमेरिका जैसी स्थिति दूसरे देशों में नहीं है। अब अमेरिका और दूसरे देशों के बीच संक्रमण के फासले को देख लीजिए। जॉन्स हॉपकिन्स यूनिवर्सिटी के अनुसार, ब्राज़ील में 7 लाख 72 हज़ार संक्रमण के मामले व 39 हज़ार 680 लोगों की मौत हुई, रूस में 4 लाख 93 हज़ार पॉजिटिव मामले आए व 6350 लोगों की मौत हुई, इंग्लैंड में 2 लाख 91 हज़ार संक्रमण के मामले व 41 हज़ार 213 लोगों की मौत हुई और भारत में 2 लाख 86 हज़ार 579 पॉजिटिव केस व 8102 लोगों की मौत हुई।
अब इन देशों में टेस्टिंग का स्तर देखिए। वर्ल्डमिटर्स इन्फ़ो के अनुसार अमेरिका में 2 करोड़ 26 लाख से ज़्यादा कोरोना वायरस की जाँच हो चुकी है। इस हिसाब से हर दस लाख जनसंख्या में से क़रीब 68 हज़ार लोगों की कोरोना जाँच हो चुकी है। अमेरिका की जनसंख्या क़रीब 33 करोड़ है।
जितनी जाँच अमेरिका में हुई है उतनी किसी अन्य देश में नहीं हुई है। अमेरिका के बाद सबसे ज़्यादा जाँच रूस में हुई है, वह भी अमेरिका की आधी ही है।
रूस में क़रीब 1 करोड़ 36 लाख जाँच हुई है। दुनिया के बाक़ी के देशों में कहीं भी 60 लाख से ज़्यादा जाँच नहीं हुई है। वर्ल्डमिटर्स इन्फ़ो के अनुसार, भारत में 52 लाख से ज़्यादा जाँच हुई है, यानी हर दस लाख जनसंख्या में से क़रीब 3800 लोगों की। ऐसे में जब जाँच ही नहीं होगी तो कोरोना संक्रमण के मामले के रूप में उसकी गिनती भी नहीं होगी।
हालाँकि अमेरिका में कोरोना संक्रमण के बेकाबू होने के लिए ट्रंप और ट्रंप प्रशासन की नीतियों को भी ज़िम्मेदार ठहराया जा रहा है। जब पूरी दुनिया ख़ौफ़ में थी, इटली, स्पेन जैसे देशों में कोरोना पीड़ितों की लाशें बिछ रही थीं और ख़ुद अमेरिका में तेज़ी से मामले बढ़ रहे थे तो ट्रंप अजीब-अजीब दलीलें दे रहे थे। 23 मार्च को एक प्रेस वार्ता में ट्रंप कह रहे थे कि हमारा देश बंद होने के लिए थोड़े ही बना है। ट्रंप का कहना था कि कोरोना से जितने लोग मरेंगे उससे अधिक लोग अर्थव्यवस्था चौपट होने से मरेंगे। लिहाज़ा कोरोना से राष्ट्रव्यापी बंदी कोई समाधान नहीं है। और इसी आधार पर वह कह रहे थे कि ईस्टर के पहले यानी 12 अप्रैल तक अमेरिका में आवाजाही पर जो आंशिक रोक लगी है उसे हटाया जा सकता है।
तब ट्रंप कह रहे थे कि कोरोना एक सामान्य फ्लू यानी सर्दी-जुकाम की तरह ही है जो 'चमत्कारिक ढंग से' ग़ायब हो जाएगा। वह ऐसे ही तर्क कोरोना के इलाज के लिए मलेरिया के लिए इस्तेमाल होने वाली दवा क्लोरोक्वीन के बारे में दे रहे थे। अमेरिका जैसे देश के राष्ट्रपति यदि कोरोना जैसे वायरस पर ऐसा नज़रिया रखेंगे तो स्थिति कितनी बुरी हो सकती है इसका अंदाज़ा भर लगाया जा सकता है।
लेकिन स्थिति बेकाबू हो गई तो डोनाल्ड ट्रंप की सारी हेकड़ी निकल गई। वह पहले के बयानों से पीछे हट गए। पहले जो कोरोना वायरस के ऊपर अर्थव्यवस्था को तरजीह दे रहे थे वही बाद में लोगों की जान बचाने को प्राथमिकता देने लगे। उन्होंने कहा कि अर्थव्यवस्था बाद में पहले कोरोना से निपटेंगे।
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