अमेरिका में चल रहे 59वें राष्ट्रपति चुनाव ने देश की दो बड़ी कमज़ोरियों को उजागर किया है। पहली यह कि अमेरिका दलगत राजनीति और संकीर्ण विचारधाराओं के आधार पर कितना बँटा हुआ है। दूसरी यह कि राष्ट्रपति चुनाव प्रणाली में कितनी बड़ी ख़ामियाँ हैं।
स्वस्थ लोकतंत्र में विचारधाराओं के दक्षिणपंथी और वामपंथी खेमे प्रभाव और सत्ता के लिए स्पर्धा करते हुए देश की राजनीति और अर्थनीति में संतुलन बनाए रखते हैं। लेकिन जब-जब डोनल्ड ट्रंप जैसे नेता विचारधारा के अपने खेमे को अतिवाद की तरफ़ धकेलने की कोशिश करते हैं तब-तब दूसरा खेमा भी अतिवाद की तरफ़ बढ़ने लगता है। अतिवादी खेमों में टकराव और हिंसा की आशंका बढ़ जाती है।
डोनल्ड ट्रंप की सत्ता के चार सालों में ऐसा ही कुछ हुआ है। ट्रंप ने अपनी दक्षिणपंथी रिपब्लिकन पार्टी को अति-दक्षिणपंथ की तरफ़ धकेला है तो जवाब में वामपंथी डैमोक्रेटिक पार्टी के भीतर भी वामपंथी खेमा मुखर और प्रबल हुआ है। इसीलिए बर्नी सैंडर्स डैमोक्रेटिक पार्टी के उम्मीदवार बनने के इतना क़रीब पहुँचे।
यूरोप के ब्रिटेन, जर्मनी और इटली जैसे देशों और भारत में भी इसी तरह के परिवर्तन देखने को मिले हैं। इसलिए बर्नी सैंडर्स को हरा कर उम्मीदवार बने मध्यमार्गी जो बाइडन यदि यह चुनाव जीत जाते हैं तो उनकी डैमोक्रेटिक पार्टी मध्यमार्ग की तरफ़ लौटेगी और संभव है कि दक्षिणपंथी रिपब्लिकन पार्टी भी मध्यमार्ग की तरफ़ लौटे। अमेरिका में होने वाले परिवर्तन का असर बाक़ी लोकतांत्रिक देशों पर पड़ना भी स्वाभाविक है।
डोनल्ड ट्रंप अतिवादी होने के साथ-साथ अमेरिका के पूर्व उपराष्ट्रपति एरोन बर और सेनेटर जॉन मकार्थी की तरह तानाशाही प्रवृत्ति के भी हैं। इसलिए उन्होंने आम तौर पर संतोषजनक काम करने वाली चुनाव प्रणाली को कड़ी चुनौतियाँ देते हुए लोगों को उसकी कमज़ोरियों पर विचार करने को बाध्य कर दिया है।
अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव प्रणाली की सबसे बड़ी कमज़ोरी उसकी इलेक्टोरल कॉलेज या निर्वाचक मंडल व्यवस्था है जिसे देश के राष्ट्रपति के चुनाव में सभी राज्यों को संतुलित प्रतिनिधित्व देने के लिए बनाया गया था। लेकिन राज्यों की आबादी में असमान रूप से विकास होने के कारण यह संतुलन काफ़ी बिगड़ चुका है।
अमेरिकी राष्ट्रपति का चुनाव देश के सभी राज्यों में हार-जीत के आधार पर होता है। उम्मीदवारों की हार-जीत का फ़ैसला करने के लिए राज्यों को निर्वाचक दल बनाने होते हैं जिनकी संख्या राज्यों की आबादी के अनुपात में तय हुई थी।
इसलिए कैलीफ़ोर्निया जैसे सबसे बड़ी आबादी वाले राज्य के निर्वाचक दल में 55 सदस्य हैं जबकि वायोमिंग जैसे छोटी आबादी वाले राज्य में केवल तीन।
पिछली सदी में केलीफ़ोर्निया, टैक्सस और न्यूयॉर्क जैसे राज्यों की आबादी जितनी तेज़ी से बढ़ी है उतनी तेज़ी से वायोमिंग, डैकोटा और अलास्का जैसे राज्यों की नहीं बढ़ी। इसलिए वायोमिंग के तीन और कैलीफ़ोर्निया के 55 निर्वाचक होने के बावजूद कैलीफ़ोर्निया का एक निर्वाचक 7,00,000 लोगों का प्रतिनिधित्व करता है जबकि वायोमिंग का निर्वाचक केवल 1,93,000 लोगों का। यानी अमेरिकी राष्ट्रपति के चुनाव में छोटे राज्यों के मतदाता वोट बड़े राज्यों के मतदाता के लगभग साढ़े तीन वोटों के बराबर बैठता है।
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जिस राज्य में राष्ट्रपति पद का जो उम्मीदवार जीतता है उस राज्य के निर्वाचक दल के सारे वोट उसी को मिल जाते हैं। लेकिन यह भी परंपरा है, संवैधानिक बाध्यता नहीं। इसलिए निर्वाचक दल के किसी न किसी सदस्य के अपना मन बदल कर अपनी पसंद के उम्मीदवार को वोट देने की आशंका बनी रहती है। सभी राज्यों और राजधानी डीसी के लिए तय तीन निर्वाचकों की कुल संख्या जोड़ कर 538 बनती है जिसमें से जीतने वाले उम्मीदवार को 270 निर्वाचक वोट लेने होते हैं।
अमेरिका में आमचुनाव कराने के लिए भारत की तरह केंद्रीय चुनाव आयोग जैसी कोई संस्था नहीं है। चुनाव भले ही राष्ट्रपतीय हो, राज्य स्तर के हों या स्थानीय निकायों के, उन्हें कराने की ज़िम्मेदारी काउंटी प्रशासनों की होती है।
अमेरिका में कुल मिलाकर 3243 काउंटियाँ या तहसीलें हैं जिनके चुनाव बोर्ड सारे चुनाव कराते हैं। प्रत्येक काउंटी अपने-अपने चुनावी नियम बना कर चुनाव कराने के लिए स्वतंत्र है और अपनी सुविधा और साधनों के हिसाब से चुनाव कराती है।
अमेरिका में आप तीन तरह से वोट डाल सकते हैं। डाक के ज़रिए, ड्रॉप बक्से के ज़रिए और व्यक्तिगत रूप से मतदान केंद्रों में जाकर। व्यक्तिगत रूप से मतदान भी दो तरह से किया जा सकता है। चुनाव के दिन और चुनाव से पहले अग्रिम रूप से। ज़्यादातर राज्य और उनकी काउंटियाँ चुनावी दिन से 5 से लेकर एक हफ़्ते पहले मतदान केंद्र खोल देती हैं जहाँ जाकर आप चुनावी दिन से पहले अपना वोट डाल सकते हैं।
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अमेरिकी चुनाव में हार-जीत की घोषणा की प्रक्रिया भी जटिल है। डाक से आए वोटों को चुनाव के दिन से पहले नहीं खोला जाता और कई राज्यों में उनकी गिनती चुनाव के कुछ दिनों से लेकर एक हफ़्ते बाद ही शुरू की जाती है। इसकी वजह यह है कि पहले डाक से आए वोटों की वैधता की जाँच की जाती है। मामूली भूलों के सुधार के लिए वोटों को मतदाता के पास दोबारा भेजा जाता है ताकि वे भूल-सुधार कर सकें और उनका वोट बेकार न हो। लेकिन किसी मतदान केंद्र में गड़बड़ी होने पर दोबारा मतदान कराने का प्रावधान नहीं है।
कमज़ोरियों के साथ-साथ राष्ट्रपतीय चुनाव की कुछ ख़ूबियाँ भी हैं जिनकी वजह से भारत जैसे देशों में बार-बार अमेरिकी राष्ट्रपतीय प्रणाली लागू करने बातें की जाती हैं। इस चुनाव की सबसे बड़ी ख़ूबी यह है कि पार्टी के उम्मीदवार का चुनाव देश भर के पार्टी कार्यकर्ताओं द्वारा किया जाता है और उनका समर्थन बटोरने के लिए उम्मीदवारों को आमचुनाव की तरह तहसील-तहसील घूम कर प्रचार करना होता है।
उम्मीदवारों के बीच ज्वलंत मुद्दों पर खुली सार्वजनिक बहस कराई जाती है और मीडिया उम्मीदवारों के निजी जीवन की पैनी नज़र से जाँच-परख करता है। राष्ट्रपति से लेकर काउंटी या तहसील के पार्षद तक के छोटे-बड़े सभी चुनाव एक साथ होते हैं। उन्हें हर चार साल बाद होने वाले राष्ट्रपतीय और हर दो साल बाद होने वाले संसदीय चुनावों के साथ नत्थी कर दिया जाता है। भारत की तरह साल भर चुनाव नहीं होते जिसके चलते निर्वाचित नेता और सरकारें हर समय प्रचार में उलझी रहने की बजाय काम पर ध्यान लगा सकती हैं।
(लेखक बीबीसी हिंदी के पूर्व संपादक रह चुके हैं।)
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