अफ़ग़ानिस्तान पर तालिबान के क़ब्ज़े के बाद सऊदी अरब की लंबी चुप्पी बेहद रहस्यमय और विस्मयकारी है। यह वही सऊदी अरब है, जिसके पैसे से चलने वाले मदरसों से निकले हुए छात्रों ने बहावी इसलाम को अपने जीवन का लक्ष्य बनाया और खुद को तालिबान (छात्र) घोषित कर दिया।
सऊदी अरब, उसका पैसा और इसलाम की उसकी व्याख्या जिस तालिबान आन्दोलन का मूल है, वह सऊदी अरब ही तालिबान से किनारा किए हुए है, चुप है। उसका बयान बेहद औपचारिक है। उसका कोई राजनीतिक अर्थ नहीं है।
रियाद ने अफ़ग़ानिस्तान पर तालिबान के नियंत्रण स्थापित होने के बाद से सिर्फ इतना कहा है कि लोगों के जान-माल की रक्षा की जानी चाहिए और यह भी कि वह अफ़ग़ानिस्तान की जनता की इच्छाओं का सम्मान करता है। बस। लेकिन क्यों?
पुराना समर्थक
अफ़ग़ानिस्तान पर 1996-2001 के शासनकाल के दौरान तालिबान का समर्थन सिर्फ तीन देशों ने किया था- पाकिस्तान, संयुक्त अरब अमीरात और सऊदी अरब।
इस बार तालिबान के समर्थन में पाकिस्तान के अलावा रूस और चीन सामने आ चुके हैं। जर्मनी ने कहा है कि वह तालिबान से बात कर सकता है और ब्रिटेन ने भी कहा है कि बातचीत की जा सकती है।
इसी तरह यूरोपीय संघ ने भी कहा है कि शरणार्थियों के मुद्दे पर तालिबान से बात की जा सकती है।
हालांकि इन देशों ने इसके साथ ही यह भी कहा है कि तालिबान से बात करने का मतलब उसे समर्थन या मान्यता देना नहीं है।
सऊदी अरब की चुप्पी असहज है। सऊदी अरब ही वह देश है, जिसने 1979 में अफ़ग़ानिस्तान में रूसी फ़ौज पहुँचने के बाद से ही वहाँ के विद्रोह को आर्थिक सहायता देना शुरू किया था।
सऊदी आर्थिक मदद
समझा जाता है कि 1980-90 के दशक में सऊदी अरब ने लगभग चार अरब डॉलर अफ़ग़ानिस्तान में खर्च किए।
ये पैसे मुख्य रूप से मुजाहिदीन को दिए गए ताकि वे एक काफ़िर, कम्युनिस्ट और अफ़ग़ानिस्तान में बहाने से घुस आई सोवियत फ़ौज का मुक़ाबला कर सकें।
इसके अलावा सऊदी अरब के निजी दानदाताओं, चैरिटी फंड, इसलामी संगठनों ने भी अरबों डॉलर अफ़ग़ानिस्तान को दिए।
9/11 से बदला समीकरण
लेकिन 2001 में हुए 9/11 के हमले ने सारा समीकरण बदल दिया। अमेरिका के ट्विन टॉवर पर अल क़ायदा के इस आतंकवादी हमले में तीन हज़ार से अधिक अमेरिकियों की जान गई।
विमान अपहरण से लेकर उन्हें ट्विन टॉवर से टकराने और उसकी योजना बनाने वगैरह पूरे मामले में जिन 19 लोगों को शामिल पाया गया था, उनमें से 11 सऊदी अरब से किसी न किसी रूप में जुड़े हुए थे।
रिश्ते बिगड़े
वे लोग सऊदी अरब के नागरिक थे या सऊदी मूल के थे। स्वयं अल क़ायदा प्रमुख ओसामा बिन लादेन सऊदी थे।
इसके बाद सऊदी अरब को अमेरिकी दबाव में समर्थन देना बंद कर देना पड़ा। रियाद ने तालिबान प्रशासन को मान्यता दी और उससे संपर्क अंत तक बनाए रखा, पर उसने आर्थिक मदद 2002 में ही बंद कर दिया।
धीरे धीरे सऊदी अरब और तालिबान के रिश्ते कटु होते चले गए। तालिबान के 2001 में सत्ता से बाहर होने के बाद भी सऊदी अरब ने उसे आर्थिक मदद नहीं दी, कुछ निजी दानदाताओं ने निजी स्तर पर पैसे दिए हों तो यह अलग बात है।
सऊदी-ईरान दुश्मनी
इसकी एक बड़ी वजह थी तालिबान की ईरान से बढ़ती नज़दीकी। सऊदी अरब और ईरान की अदावत पुरानी है। यह वैचारिक भी है और राजनीतिक भी। इसका आर्थिक पहलू भी है।
सऊदी अरब जहाँ सुन्नी इसलाम का पैरोकार है और पूरी दुनिया के सुन्नी मुसलमानों का रहनुमा बनने की कोशिश करता है, वहीं ईरान शिया मत को मानने वाला है और उनका नेता भी।
राजनीतिक रूप से सऊदी अरब अमेरिका के नज़दीक है और तमाम अंतरराष्ट्रीय मुद्दों पर वह वाशिंगटन के साथ ही रहा है। दूसरी ओर ईरान अमेरिका को अपना दुश्मन खुले आम घोषित कर चुका है।
कच्चे तेल की कीमत, उस पर टिकी अर्थव्यवस्था और कच्चा तेल निर्यात करने वाले संगठन ओपेक की अंदरूनी राजनीति में भी दोनों दो ध्रुवों पर हैं।
सऊदी अरब और ईरान ने यमन, सीरिया और लेबनान में बिल्कुल एक दूसरे के ख़िलाफ़ काम किया है, एक-दूसरे का विरोध करने वाली ताक़तों का समर्थन किया है।
मसलन, यमन में ईरान हूथी विद्रोहियों के साथ है तो सऊदी अरब वहां की सरकार के साथ।
लेबनान के हिज़बुल्ला को ईरान की कठपुतली माना जाता है जबकि सऊदी अरब उसका विरोध करता है।
सीरिया के गृहयुद्ध में ईरान ने राष्ट्रपति बशर-अल-असद का साथ दिया तो सऊदी अरब की सहानुभूति विद्रोहियों के साथ थी।
इसलामी जगत के दो दिग्गजों की यह दुश्मनी अफ़ग़ानिस्तान भी पहुँची और तलिबान को प्रभावित किया। सऊदी अरब के हाथ खींचने के बाद मुसलिम जगत में समर्थन ढूंढ रहे तालिबान को ईरान का सहारा मिला तो उसने उसे लपक लिया।
ईरान का समर्थन
हालांकि तालिबान के लोग जिस कट्टर बहावी इसलाम की स्थापना के लिए निकले हैं, वह ईरान के शिया मत के एकदम ख़िलाफ़ है, पर ज़मीनी स्तर पर तालिबान को ईरान का समर्थन मिला तो उसे वह डूबते को तिनके का सहारा लगा।
सऊदी अरब को क़तर से तालिबान की क़रीबी भी नापसंद है। क़तर ने जिस तरह तालिबान को अंतरराष्ट्रीय मंच देने के मक़सद से दोहा में अपना मुख्यालय खोलने दिया और उसे एक तरह से कूटनीतिक वैधता प्रदान की, वह एक बड़ी बात थी।
लेकिन सऊदी अरब को यह अच्छा नहीं लगा। इसकी वजह यह है कि ओपेक और मध्य पूर्व की राजनीति में क़तर और रियाद एकद-दूसरे के ख़िलाफ़ हैं।
काबुल पर तालिबान के नियंत्रण के तुरन्त बाद सऊदी अरब ने वहां से अपने कर्मचारियों को बुला लिया और दूतावास बंद कर दिया। उसने एक बयान में इस पर संतोष जताया कि उसके सारे लोग सकुशल स्वदेश लौट गए। इसके अलावा उसने कहा कि अफ़ग़ानिस्तान में सबके जान-माल की रक्षा की जानी चाहिए।
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