ऐसा किसी पिछड़े, सैन्य तानाशाही वाले देश में नहीं, विश्व के तीन सबसे बड़े आर्थिक और वित्तीय केंद्रों में से एक हांगकांग में हो रहा है और ऐसी झड़पें आज से नहीं, बीते पांच महीने से ज़्यादा समय से चल रही हैं।
ये झड़पें जिनमें हांगकांग में कम से कम 4 दशक बाद पुलिस ने गोली चलाई है, एक छात्र को सीधे सीने पर गोली मारने सहित, दसियों हज़ार आँसू गैस के गोले, हज़ारों रबर बुलेट और बीन बैग बुलेट दागे हैं, हज़ारों लोगों को गिरफ़्तार किया गया है जिनमें 12 साल के बच्चों से लेकर 87 साल तक के बुजुर्ग शामिल हैं। स्थिति की भयावहता समझने के लिए यह जानना शायद काफ़ी होगा कि इनमें से सिर्फ़ एक दिन - 1 अक्टूबर, जो कि चीन का राष्ट्रीय दिवस है, को पुलिस ने 1400 से ज़्यादा आँसू गैस और 1300 से ज़्यादा रबर और बीन बैग बुलेट दागे थे। उसी दिन पुलिस ने 269 लोगों को गिरफ़्तार भी किया था।
इसके जवाब में शुरुआत में एकदम शांत और लोकतांत्रिक प्रतिरोध भी अब बेहद हिंसक हो गया है और ख़ासतौर पर फ़्रंटलाइन प्रोटेस्टर्स (हिरावल दस्ते) के नाम से जाने-जाने वाले अगली क़तारों के प्रतिरोध समर्थकों ने पेट्रोल बम से लेकर ईंट और तीर कमान तक से जवाब दिया है, उनके बीच में घुसे मुखबिरों को बेरहमी से मारा है और एक चीन समर्थक को ज़िंदा जला दिया है।
पर असली सवाल यह है कि यह पूरा मामला यहाँ तक पहुँचा कैसे? पहला जवाब आसान है और वह दुनिया भर की मीडिया इस ‘प्रतिरोध को 700 से 1500 शब्दों में व्याख्यायित’ करके दे रही है। दूसरा ज़रा मुश्किल है जिसे हांगकांग को घर कहने वाले, यहाँ के हम जैसे स्थाई निवासी जानते हैं।
शुरुआत यहाँ से करें कि दरअसल यह प्रतिरोध कोई आज़ाद और इकलौता प्रतिरोध नहीं है। यह प्रतिरोध असल में 1997 तक ब्रिटिश उपनिवेश रहे हांगकांग की संप्रभुता चीन को स्थानांतरित होने के समय हुए अगले 50 साल यानी 2047 तक एक देश दो व्यवस्थाएँ (वन कंट्री 2 सिस्टम) के समझौते के बावजूद कम्युनिस्ट चीन के धीरे-धीरे हांगकांग में प्रभाव बढ़ाने के ख़िलाफ़ हुए पहले के संघर्षों का विस्तार है।
साफ़ कर दें कि चीन की संप्रभुता के बावजूद हांगकांग में चीन के कोई भी नियम लागू नहीं होते और यह शहर अपने ‘बेसिक लॉ’ उर्फ़ मिनी कॉन्स्टिट्यूशन के तहत चलता है। इसीलिए कम्युनिस्ट चीन से उल्टा हांगकांग में ‘कॉमन लॉ’ लागू है, मुक्त अर्थव्यवस्था है, अपनी मुद्रा, अपनी ओलंपिक टीम सब है।
दुनिया के वित्तीय केंद्रों में से एक होने की वजह से चीन को इससे कोई दिक्कत भी नहीं थी। पर धीरे-धीरे उसे एक बड़ी दिक्कत साफ़ समझ आने लगी कि चीन के तमाम असंतुष्ट/सरकार विरोधी लोग हांगकांग भाग आते थे और यहाँ ‘विधि के शासन’ (रूल ऑफ़ लॉ) की वजह से मिली सुरक्षा के साथ चीन की आलोचना करते थे जो चीन को नागवार गुजरता था।
चीन/हांगकांग सरकार हटी पीछे
इसके ख़िलाफ़ चीन ने काफ़ी कोशिशें कीं, सबसे पहले 2012 में हांगकांग में स्कूली पाठ्यक्रम में ‘राष्ट्रीय शिक्षा’ द्वारा चीन के प्रति देशभक्ति जगाने को शामिल करके शुरुआत की, जिसके ख़िलाफ़ भारी विरोध हुआ। 10 दिन तक प्रदर्शनकारियों ने हांगकांग सरकार के तमार पार्क स्थित मुख्यालय को घेरे रखा और अंत में चीन/हांगकांग सरकार को पीछे हटने पर मजबूर कर दिया।
इसके बाद 2015 में हांगकांग में रह कर चीन के प्रति आलोचनात्मक किताबें छापने वाले पहले कॉज़वे बुक्स और बाद में माइटी करेंट मीडिया कंपनी लिमिटेड को बेच दिए गए प्रकाशन के पाँच साझीदार हांगकांग, चीन और थाईलैंड में अलग-अलग जगहों से ग़ायब हो गए और बाद में पता चला कि उन सब की गुमशुदगी के पीछे चीन सरकार का हाथ है। तब हांगकांग की जनता पहली बार हांगकांग सरकार की चुप्पी से बेहद नाराज़ हुई। बावजूद इसके कि ‘विधि के शासन’ के बावजूद असल में हांगकांग में हद से हद एक ऐरिस्टॉक्रसी है, लोकतंत्र नहीं। यहाँ की सरकार के मुखिया के चुनाव में वही हिस्सा ले सकते हैं जिन्हें चीन की एक समिति चुनाव लड़ने की इजाज़त दे।
ऊपर से और भी बड़ी दिक्कत यह है कि यहाँ की लेजिस्लेटिव काउन्सिल (लेजको) में दो तरह से चुनाव होते हैं। पहला, सीधे- संसदीय क्षेत्रों के और दूसरा- फ़ंक्शनल यानी विशिष्ट हित समूह वाले अलग-अलग क्षेत्रों के, जैसे - मेडिकल, वैधानिक, श्रम, आयात निर्यात वग़ैरह। उनकी संख्या ज़्यादा है और उनमें से ज़्यादातर पर चीन समर्थक क़ाबिज़ होते हैं तो यहाँ की सरकार पर चीन का ही दबाव होता है।
गुमशुदगी के ख़िलाफ़ आंदोलन
प्रकाशकों की गुमशुदगी में चीन का हाथ होने के ग़ुस्से की परिणिति दुनिया भर में हुए ऑक्युपाई आंदोलन के हांगकांग संस्करण में हुई जिसमें ख़ासतौर पर छात्रों की अगुवाई में शहर के वित्तीय केंद्र को 77 दिनों तक क़ब्ज़े में रखा गया। ग़ुस्से को और धार मिली हांगकांग सरकार के हांगकांग से चीन को सीधी हाई स्पीड (बुलेट) ट्रेन स्टेशन में चीनी कस्टम विभाग को हांगकांग में जगह देने से, बावजूद इसके कि इसका कोई अर्थ नहीं था। प्रकाशकों की गुमशुदगी के पीछे अपना हाथ स्वीकार लेने के बाद चीन की सरकार को डर भी था।
फिर ऐसे में इस साल मार्च में चीन समर्थक, हांगकांग की मुख्य कार्यपालक अधिकारी (शासनाध्यक्ष) कैरी लैम एक प्रत्यर्पण विधेयक लेकर आईं। असल में यह विधेयक वह ताइवान में अपनी प्रेमिका की हत्या करने वाले हांगकांग के एक नागरिक को प्रत्यर्पण संधि न होने की वजह से मुक़दमे के लिए वापस ताइवान न भेज पाने के बहाने से लाईं थीं। चूँकि इस विधेयक के क़ानून बन जाने पर चीन में आरोपों की वजह से हांगकांग के नागरिकों और स्थाई निवासियों को चीन भी भेजा जा सकता था इसलिए जनता भड़क गई और उसने शांतिपूर्ण, लोकतांत्रिक प्रदर्शन शुरू कर दिये।
सरकार अड़ी, विरोध बढ़ा
इस विधेयक के ख़िलाफ़ पहला प्रदर्शन 15 मार्च 2019 को हुआ जब डेमोसिस्टो नाम के संगठन ने फिर तमार पार्क में लेजको को घेरा। सरकार के अड़े रहने पर विरोध बढ़ता गया और अंततः 12 जून को विधेयक की दूसरी बहस के पहले 9 जून को कुल 70 लाख की आबादी वाले शहर में 10 लाख से ज़्यादा लोगों के प्रदर्शन में तब्दील हुआ। फिर भी अपनी ग़लती मानकर निर्णय बदलने की जगह कैरी लैम सरकार ने सुनने तक से इंकार कर दिया, उल्टे यह विधेयक क़ानून बनकर रहेगा जैसे बयान दिए। 12 जून को हुई हड़ताल में पूरा हांगकांग शरीक हुआ।
फिर पहली जीत मिली। 12 जून को लेजको फिर घेरा गया, पुलिस के बिना पहचान चिन्ह पहने अधिकारियों द्वारा प्रतिरोध करने पर आँसू गैस, रबर बुलेट और बीन बैग दागने, ‘केटलिंग' (विरोध करने वालों को बहुत छोटे इलाक़े में घेरने) और पत्रकारों तक पर हमले के बावजूद लेजको की बैठक नहीं होने दी गई, विधेयक पर चर्चा नहीं हो पाई।
असल में प्रदर्शन कितना शांतिपूर्ण था यह एक घटना से साफ़ है। एक लाख लोगों के सड़क घेरे और बंद किए होने के बीच अचानक एक एंबुलेंस आई लोग रास्ता देते गए और वह आगे बढ़ती गई, वह एक अद्भुत दृश्य है। आपको देखना चाहिए।
ख़ैर, पुलिस के बेहद हिंसक रवैये से हांगकांग के लोग बेहद नाराज़ थे। उन्होंने पुलिस की हिंसा की जाँच के लिए आज़ाद और निष्पक्ष आयोग की माँग की। जवाब में पुलिस आयुक्त ने प्रदर्शन को ‘दंगे’ की श्रेणी में रख दिया जिसमें कड़ी सजा के प्रावधान हैं। ग़ुस्सा बढ़ना स्वाभाविक था, बढ़ा। आंदोलन भी। विधेयक को पारित कराकर क़ानून बना के अगली बार फिर सीईओ बनने के ख़्वाब देख रहीं कैरी लैम को स्थिति की गंभीरता शायद समझ आ गई थी। उन्होंने 15 जून को विधेयक को ‘स्थगित’ करने की घोषणा कर दी।
पर, अब बहुत देर हो चुकी थी और ‘स्थगन’ बहुत कम था। हांगकांग निवासियों का ग़ुस्सा उबल रहा था, उसमें और आग पड़ गई अगले दिन लैम के निर्णय के विरोध में एक प्रदर्शनकारी के आत्महत्या कर लेने पर। 16 जून को 70 लाख की आबादी वाले शहर में 20 लाख लोग सड़कों पर थे।
प्रतिरोध प्रदर्शनों ने अब पुलिस मुख्यालय को भी घेरना शुरू कर दिया था। माँगें भी पहले की सिर्फ़ एक- प्रत्यर्पण संधि विधेयक निरस्त करो से आगे बढ़ कर 5 हो गईं थीं और ये माँगे थीं - प्रत्यर्पण संधि विधेयक निरस्त हो, विरोध को दंगे के बतौर दर्ज करना वापस हो, सभी गिरफ़्तार प्रदर्शनकारियों को बाइज़्ज़त बरी करो, पुलिस के ग़ैर आनुपातिक बलप्रयोग की जाँच के लिए आज़ाद और निष्पक्ष आयोग गठित हो, कैरी लैम इस्तीफ़ा दो और लेजको और सीईओ दोनों चुनाव में सार्वभौमिक मताधिकार लागू करो।
जल्द ही सिर्फ़ एक माँग से शुरू हुआ यह आंदोलन ‘सभी पाँच माँगें पूरी हों, एक भी कम नहीं’; ‘कोई दंगाई नहीं है, बस तानाशाही है’; ‘हांगकांग मांगे आज़ादी’; और “हम जले तो जलेंगे, पर तुम्हें साथ लेकर” तक पहुँच गया था। वहाँ, जहाँ मेरी मुहब्बत का यह शहर पॉलीटेक्निक यूनिवर्सिटी के तियेन आन मन न बनने की दुआएँ माँग रहा है। 16 जून से शहर आज यहां तक कैसे पहुँचा, अगली किस्तों में पढ़ेंगे।
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