पाकिस्तान ऐसा मुल्क है जहाँ तख्तापलट को लेकर अटकलबाज़ियाँ कभी ख़त्म नहीं होतीं। हुकूमत चाहे जनता के वोटों से चुनकर बनी हो या फिर किसी फ़ौजी ने तख्तापलट करके हथियाई हो, दोनों हमेशा ख़तरे में रहती हैं। उनका चलना एक ही बात पर निर्भर करता है और वो यह कि उन्हें अमेरिका, अल्ला और आर्मी तीनों का समर्थन व आशीर्वाद प्राप्त हो। लेकिन ऐसा कम ही हो पाता है और तख्तापलट की नौबत आ जाती है।
अब कोरोना महामारी से उपजे संकट के बीच पाकिस्तान के हालात एक बार फिर से करवट लेने लगे हैं। कहा जाने लगा है कि अब इमरान ख़ान चंद दिनों के मेहमान हैं। सेना कोरोना संकट से निपटने में इमरान ख़ान की नाक़ामी से ख़ासी ख़फ़ा है और उसने वहाँ तख्तापलट की तैयारी कर ली है। कहना मुश्किल है कि सचाई क्या है, मगर तीन प्रमुख बातें हैं जिनसे इन अटकलों को बल मिल रहा है।
अव्वल तो यह कि इमरान ख़ान का रवैया कोरोना संकट से निपटने के मामले में ढीला रहा है। वह पाकिस्तान में लॉकडाउन न लगाने के ज़िद पर अड़े रहे। तमाम विशेषज्ञ उन्हें सलाह दे रहे थे कि लॉकडाउन के अलावा कोई चारा नहीं है, मगर वह नहीं माने। उनकी दलील थी कि लॉकडाउन का असर कमज़ोर तबक़े पर बहुत ज़बर्दस्त पड़ेगा और वे बेमौत मारे जाएँगे। लाखों लोग बेरोज़गार हो जाएँगे और बहुत सारे काम धंधे बंद हो जाएँगे जिसका असर अर्थव्यवस्था पर भी पड़ेगा।
इसके बावजूद इमरान ख़ान ने 22 मार्च को देश के अवाम को संबोधित करते हुए लॉकडाउन लगाने से इनकार कर दिया। लेकिन चौबीस घंटे के अंदर ही सेना के प्रवक्ता मेजर जनरल बाबर इख्तियार ने लॉकडाउन की घोषणा कर दी और कमान अपने हाथों में ले ली।
इससे इमरान की ज़बर्दस्त किरकिरी हुई और पूरी दुनिया समझ गई कि पाकिस्तान की असली सत्ता अब सेना के हाथों में है।
लॉकडाउन की घोषणा के बाद सेना ने उसे लागू करने के लिए भी कमर कस ली। तमाम बड़े शहरों में सेना को तैनात कर दिया गया। यही नहीं, उसने देश भर में सेना की तैनाती कर दी और आईएसआई को भी कोरोना से संक्रमित मरीज़ों का पता लगाने के लिए काम पर लगा दिया।
इसके बाद रमज़ान के दौरान इमरान ने मसजिदें बंद करने के बजाय मुल्लों, मौलवियों के साथ एक समझौता किया जो न लागू हो सकता था, न हुआ। इस समझौते के तहत सोशल डिस्टेंसिंग के लिए नियम क़ायदे तय किए गए और इनको मानते हुए ही मसजिदों में नमाज़ पढ़ी जानी थी। मगर पहले दिन ही ऐसा नज़ारा था कि हर जगह सोशल डिस्टेंसिंग की धज्जियाँ उड़ गईं और इमरान मज़ाक़ के पात्र बन गए।
कठमुल्लों के दबाव में इमरान
दरअसल, इमरान कठमुल्लों के दबाव में हैं। वह उन्हें नाराज़ नहीं करना चाहते थे, क्योंकि उनके समर्थन के बल पर ही वह सत्ता में पहुँचे थे। लेकिन इस समझौतावादी रवैये का यह नतीजा निकला कि कोरोना से संक्रमित लोगों की संख्या तेरह हज़ार तक जा पहुँची और मृतकों की संख्या 300 के आसपास।
सेना को लग रहा है कि ऐसे वक़्त में मुल्क को ऐसा नेतृत्व चाहिए जो लोगों को कोरोना के साथ लड़ने के लिए एकजुट कर सके, मगर इमरान इस कसौटी पर खरे नहीं उतरे। लॉकडाउन लगाए जाने के बाद भी वह उस पर सवाल करते रहे। यही नहीं, वह स्वास्थ्यकर्मियों को ज़रूरी सुविधाएँ जैसे पीपीई मुहैया कराने में भी नाकाम रहे। अस्पतालों की हालत पहले से ही खस्ता थी, मगर इमरान ने उन पर भी ध्यान देना ज़रूरी नहीं समझा, जबकि पाकिस्तान में पहला मामला 26 फ़रवरी को ही आ गया था।
आम तौर पर राष्ट्रीय संकटों के समय पाकिस्तान में राजनीतिक दल एक साथ आ जाते हैं। मगर इमरान ने विपक्षी दलों को भी नाराज़ कर दिया है। कोरोना संकट की शुरुआत में ऐसा लगा था कि तमाम विपक्षी दल भी सरकार के साथ खड़े होंगे और इमरान ख़ान आने वाले चुनाव में इसका फ़ायदा उठाकर अपनी पकड़ मज़बूत कर लेंगे। लेकिन वह ऐसा कर नहीं पाए।
इमरान की नेतृत्व क्षमता की इन ख़ामियों से परेशान सेना ने अधिकांश अख़्तियारात अपने हाथ में ले लिए और इमरान को छोटे-मोटे काम करने के लिए छोड़ दिया।
लेकिन यह तो हालिया घटना है। सेना और इमरान के बीच पिछले साल भर से ग़ड़बड़ चल रहा है। इसकी मोटे तौर पर दो वज़हें हैं- एक तो यह कि पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था बहुत बुरी स्थिति में पहुँच गई है। कोरोना संकट के कारण वह और भी गहरा गया है। इमरान ने कहा था कि सन् 2020 का साल सबके लिए अच्छा होगा, मगर लोग उनका यह सब्ज़ बाग़ देख पाते इसके पहले ही कोरोना संकट आ गया।
इसके पहले इमरान ख़ान कश्मीर के मामले में भी पिट चुके थे। कश्मीर से अनुच्छेद 370 हटाए जाने के बाद उन्होंने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अभियान छेड़ दिया था मगर उन्हें कोई कामयाबी नहीं मिली। यहाँ तक कि जिन मुसलिम देशों से उन्हें समर्थन की उम्मीद थी उन्होंने भी उन्हें ठेंगा दिखा दिया।
इसके अलावा इमरान ख़ान की तहरीक़-ए-इंसाफ़ पार्टी के कई नेताओं पर भ्रष्टाचार के आरोप भी लग चुके हैं।
अब जबकि कोरोना संकट से निपटने का काम सेना ने अपने हाथों में ले लिया है तो इससे यही साबित होता है कि वह यह दिखाना चाहती है कि वह इमरान और उनकी चुनी हुई सरकार से ज़्यादा काबिल है। हालाँकि यह भी सच है कि दो साल पहले इमरान ख़ान सेना के सहारे ही सत्ता में आए थे। वह ‘इलेक्टेड’ नहीं ‘सिलेक्टेड’ प्राइम मिनिस्टर थे। इसीलिए उन्हें पाकिस्तान में फ़ेक पीएम भी कहा जाता है।
अंत में सवाल यह उठता है कि होगा क्या? क्या सचमुच में इमरान का तख़्तापलटा किया जाने वाला है? इस बारे में यक़ीन के साथ कुछ कहना अभी मुमकिन नहीं है, मगर इतना ज़रूर है कि अगर कोरोना संकट बहुत बढ़ा और इमरान सेना के साथ मिलकर ठीक से काम नहीं कर पाए तो विपक्षी दल उनके ख़िलाफ़ सड़कों पर होंगे और अवाम उनके साथ होगी। ऐसी सूरत में शायद सेना उन्हें बर्दाश्त नहीं करेगी। उनकी जगह या तो कोई और कठपुतली ले लेगी या फिर सेना का कोई जनरल।
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