जिस तरह न्यूज़ीलैंड में श्वेत नस्लवादी ब्रेन्टन टैरंट ने दो मसजिदों पर हमले कर ऐसे 49 निर्दोष लोगों को मौत के घाट उतार दिया, जिन्हें वह जानता तक नहीं था, वैसी वारदात क्या भारत में भी मुमकिन है? जिस देश में गोमांस रखने या खाने और यहाँ तक कि गाय बेचने के लिए ले जा रहे लोगों पर भीड़ हमला कर देती है, उन्हें पीट-पीट कर मार डालती है और ऐसा करने वालों पर ज़्यादातर मामलों में ठोस कार्रवाई नहीं की जाती है, क्या उस देश में भी वैसा ही वातावरण नहीं बन रहा है, जैसा ब्रेन्टन टैरंट चाहता था? हिन्दू धर्म की व्याख्या अपने ढंग से करने और उससे असहमत लोगों को ट्रोल करने या उन पर हमला करने वालों के दिमाग में क्या उसी तरह का नफ़रत पल रहा है, जैसा टैरंट के मन में था? भारत के लोगों को इस पर ठंडे दिमाग से सोचना चाहिए।
यह हमला बिगड़ी हुई क़ानून व्यवस्था का उदाहरण नहीं है, न ही यह कोई राजनीतिक असंतोष या विद्रोह से जुड़ा मामला है। इससे जुड़े सवाल सिर्फ़ न्यूज़ीलैंड, श्वेत नस्लवाद, इसलाम या आतंकवाद से ही मतलब रखते हों, ऐसा नहीं है।
सबसे पहला सवाल यह है कि श्वेत-नस्लवादी ब्रेन्टन टैरंट के दिमाग में क्या चल रहा था? वह नफ़रत के किस ज़हर को अपने अंदर पाल रहा था कि उसने महिलाओं और बच्चों के बारे में भी नहीं सोचा?
नस्लवाद का जुनून
न्यूज़ीलैंड पुलिस को मिली जानकारी के आधार पर यह कहा जा सकता है कि ब्रेन्टन टैरंट साधारण हत्यारा नहीं था। उसके ऊपर श्वेत नस्लवाद का भूत सवार था। उसके अंदर यह विचार कूट-कूट कर भरा हुआ था कि गोरों की नस्ल दुनिया की सबसे उत्कृष्ट नस्ल है, यह ऐसी नस्ल है जो दूसरों पर राज करने के लिए बनी है और सभी दूसरे उसके अंदर रहने और उसका हुक़्म मानने के लिए हैं। यह इससे साफ़ है कि जिस हथियार से उसने गोलियाँ बरसाई थीं, उस पर लिखा था, चार्ल्स मार्टेल। मार्टेल वह श्वेत नस्लवादी था, जिसने साल 732 में मुसलमानों की बड़ी फ़ौज को टूअर की लड़ाई में शिकस्त दी थी, वह तमाम श्वेत नस्लवादियों का खुदा माना जाता है। इसके अलावा उस हथियार पर 11 साल की स्विस बच्ची एब एकरलैंड का भी नाम लिखा था। यह वह बच्ची है, जो अप्रैल 2017 मेंं स्वीडन की राजधानी स्टॉकहोम में मारी गई थी, जब रख़मत आकिलोव नामक उज़बेक नागरिक ने अपनी गाड़ी भीड़ पर चढ़ा दी थी। क्राइस्टचर्च की मसजिद, जिस पर हमला हुआ।
'द गॉर्डियन' अख़बार के मुताबिक़, ब्रेन्टन टैंरट जब गाड़ी चलाते हुए मसजिद की ओर बढ़ रहा था, वह उस गाने को सुन रहा था, जिसमें बोस्निनाई सर्ब युद्ध अपराधी रोदोवान कराजिच की तारीफ की गई थी। कराजिच तत्कालीन युगोस्लाविया की सेना में अफ़सर में था और उस पर आरोप है कि उसने गृहयुद्ध के समय बोस्निनाई मुसलमानों का कत्लेआम करवाया था। उस पर स्रेब्रेनित्सा जनसंहार में शामिल होने का आरोप है, जिसमें औरतों और बच्चों समेत सैकड़ों निहत्थे मुसलमानों को मार दिया गया था। इतना ही नहीं, टैरंट एंडर्स ब्रीविक के संपर्क में भी कुछ समय के लिए था और उसका दावा था कि ब्रीविक ने उसे इस हमले के लिए आशीर्वाद दिया था। ब्रीविक ने 22 जुलाई 2011 को नॉर्वे की राजधानी ओस्लो में एक कैंप पर हमला कर 77 लोगों को मौत के घाट उतार दिया था। वह श्वेत नस्लवादी था, नात्सीवाद से प्रभावित था।
'द हिन्दू' अख़बार के मुताबिक़, ब्रीविक ने मौत का तांडव करने के पहले जो मेनिफ़ेस्टो जारी किया था, उसके पेज नंबर 102 पर लिखा था कि 'वह भारत के हिन्दू राष्ट्रवादियों और विशेष रूप से सनातन धर्म आंदोलन से प्रभावित है और उन्हें समर्थन करता है।'
एंडर्स ब्रीविक ने उन हिन्दुओं की तारीफ की जो 'अत्याचार बर्दाश्त नहीं करते हैं और जब चीजें नियंत्रण के बाहर हो जाती हैं, बीच-बीच में दंगे और मुसलमानों पर हमले करते रहते हैं।' ब्रीविक ने बीजेपी, आरएसएस, एबीवीपी और विश्व हिन्दू परिषद के वेबसाइट्स को 'लाइक' कर रखा था।
टैरंट ने अपने मेनिफेस्टो में ख़ुद को साधारण घर का सामान्य श्वेत आदमी बताया है। उसने कहा है कि वह अपने नस्ल के लोगो का भविष्य सुनिश्चित करना चाहता है और इसलिए उसने एक स्टैंड लिया है। वह लिखता है कि उसने हमला इसलिए किया ताकि यह संकेत दिया जा सके कि दुनिया में कहीं भी मुसलमान सुरक्षित नहीं हैं। उसने यह भी लिखा है कि वह कुछ समय के लिए ही न्यूज़ीलैंड आया था, पर उसने पाया कि यह उसके मिशन का सही लक्ष्य है। टैंरट ने अपने मेनिफेस्टों में हथियारों के चुनाव पर भी रोशनी डाली।
“
मैंने हथियार चुनने में यह ध्यान रखा कि सामाजिक बहस पर इसका असर पड़े, इसका व्यापक मीडिया कवरेज हो, अमेरिका की राजनीति पर इसका असर पड़े और इसके बाद पूरी दुनिया की राजनीतिक परिस्थिति बदल जाए।
ब्रेन्टन टैरंट, श्वेत नस्लवादी
नफ़रत का मेनिफ़ेस्टो
टैरंट ने 74 पेज के मेनिफेस्टो में यह भी कहा है कि वह मुसलमानों के ख़िलाफ़ डर का वातावरण बनाना चाहता है। उसने यह भी लिखा है कि लंदन के मेयर सादिक़ ख़ान, जर्मन चांसलर एंगला मर्कल और तुर्की के राष्ट्रपति रीचत तैयप अर्दोवान को निशाने पर लिया जाना चाहिए। वह बाहर से आए लोगोें के ख़िलाफ़ है और उन्हें खदेड़ देना चाहता है। वह चाहता है कि ऐसा माहौल बनाया जाए जिसमें मुसलमान ख़ुद को असुरक्षित महसूस करें और दूसरे देश न जाएँ। क्राइस्टचर्च की इस वारदात से भारत यह सीख ले सकता है कि उसके यहाँ ऐसा वातावरण कभी न बने, जिसमें मुसलमान ख़ुद को असुरक्षित महसूस करते हों। भारत को यह भी देखना होगा कि यहाँ के वातावरण में वह ज़हर न घुले, जिसमें कोई आदमी किसी को सिर्फ़ इसलिए मार देना चाहता हो कि वह दूसरे धर्म का है।
भारत के लिए यह चिंता की बात इसलिए है कि यहां की फिजाँ में नफ़रत का ज़हर घोला जा रहा है। भारत में एक राजनीतिक विचारधारा के लोग मुसलमानों को दोयम दर्जे का मानते हैं, यह सच है। भारत में मुसलमानों के ख़िलाफ़ नफ़रत का माहौल बनाया जा रहा है, यह भी सच है।
ख़तरे में हैं हिन्दू?
हिंदुओं की आबादी 85 प्रतिशत होते हुए भी कहा जा रहा है कि हिन्दू ख़तरे में हैं। हिन्दू धर्म को दूसरे से श्रेष्ठ साबित करने की होड़ मची हुई है। इन मुद्दों का विरोध करने वालों को सोशल मीडिया में निशाने पर लिया जाता है और उन्हें बुरी तरह ट्रोल किया जाता है। इसलिए भारत एक तरह से विस्फोटकों के ढेर पर बैठा हुआ है। यहाँ रेडिकलाइजेशन इस तरह हो रहा है कि कहीं भी, कभी भी क्राइस्टचर्च जैसी वारदात हो सकती है।
भारत मे मुसलमानों को लेकर बनाए जा रहे वातावरण को 'मुसलिम्स ऑफ़ यूरोप : द अदर यूरोपियन्स' नामक किताब के लेखक एच. ए. हेलियर के 'द गॉर्डियन' में छपे लेख से समझा जा सकता है। उन्होंने इसमें लिखा है, 'कुछ लोग यह समझ सकते हैं कि न्यूज़ीलैंड की यह वारदात किसी एक व्यक्ति का सिरफिरे की करतूत है, पर यह सोचना ग़लत है। यह इसलाम को लेकर फैलाए जा रहे डर और रेडिकलाइजेश से आगे की बात है।' वह तर्क देते हैं कि मुसलमानों के बारे जो कहा जाता है कि वे आक्रामक हैं, बाहर से आए हुए हैं, हमारी संस्कृति को नष्ट करने पर तुले हुए हैं, इस वजह से एक ऐसा माहौल बनाया जा रहा है जहाँ मुसलमानों के ख़िलाफ़ एक वातावरण बन रहा है। भारत में यह काम एक ख़ास विचारधारा के तहत किया जा रहा है। यह विचारधारा भी श्वेत नस्लवादी विचारधारा की तरह ही अपने नस्ल को सर्वोत्कृष्ट मानता है, दूसरों को दोयम। भारत में इसी लिए अधिक चिंता की बात है।
अपनी राय बतायें