चीन के साथ तनातनी के बीच भारत ने ताईवान के साथ कूटनीतिक स्तर ऊपर कर दिया है यानी अपग्रेड कर दिया है? क्या यह पारंपरिक वन चाइना पॉलिसी (एक चीन नीति) को छोड़ने का सोच समझ कर लिया गया रणनीतिक फ़ैसला है या चीन पर दबाव डालने का फ़ौरी तरीका?
दरअसल, भारत सरकार ने विदेश मंत्रालय में संयुक्त सचिव गौरांगलाल दास को राजनयिक पद की ज़िम्मेदारी के साथ ताईपेई भेजने का फ़ैसला किया है।
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ताईवान से कूटनीतिक रिश्ते?
ताईवान के साथ भारत के कूटनीतिक रिश्ते नहीं हैं और इसलिए ताईपेई में भारत का कोई राजदूत नहीं है। गौरांगलाल दास भी राजदूत नहीं होंगे। पर उनका स्तर ऊँचा होगा। वह इंडिया ताईपेई एसोसिएशन के महानिदेशक पद का काम संभालेंगे।यह महत्वपूर्ण फ़ैसला इसलिए है कि गौरांगलाल दास संयुक्त सचिव स्तर के अधिकारी हैं, वह पूरे अमेरिकी महादेश में भारत के हितों की रक्षा करते हैं। वह कहने को राजदूत नहीं होंगे, पर उनका पद राजदूत के समकक्ष ही होगा।
ताईवान का मामला क्या है?
बता दें कि 1949 में चीन में कम्युनिस्ट क्रांति होने के बाद तत्कालीन चीनी प्रमुख च्यांग काई शेक भाग कर चीन के द्वीप ताईवान चले गए और उसे स्वतंत्र घोषित कर दिया।बीजिंग आज भी ताईवान को अपना हिस्सा ही मानता है। उसने सभी अंतरराष्ट्रीय मंचों से ताईवान को निकलवा दिया है। इसे वह 'वन चाइना पॉलिसी' यानी 'एक चीन नीति' कहता है।
भारत अब तक इस 'वन चाइना पॉलिसी' को मानता रहा है, जिसके मुताबिक एक ही चीन है, जिसकी राजधानी बीजिंग है। इसलिए ताईवान के साथ भारत का कूटनीतिक संबंध भी नहीं है। भारतीय विदेश मंत्रालय का एक अधिकारी ताइपेई में वीज़ा वगैरह का काम देखता है।
शपथ ग्रहण में बीजेपी सांसद
लेकिन जिस समय भारत-चीन तनाव बढ़ा हुआ था और वास्तविक नियंत्रण रेखा पर चीनी सैनिकों का जमावड़ा लगा हुआ था, त्साई इंग-वेन दुबारा ताईवान की राष्ट्रपति चुनी गईं। उनके पद ग्रहण समारोह में बीजेपी सांसद राहुल कासवान और मीनाक्षी लेखी ने वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के ज़रिए भाग लिया था।डब्लूएचओ में ताईवान?
लगभग इसी समय विश्व स्वास्थ्य संगठन में ताईवान को शामिल करने की माँग यह कह कर उठी कि उसने कोरोना से लड़ने में महत्वपूर्ण कामयाबी हासिल की है, लिहाज़ा उसे इस संगठन में होना चाहिए।यह माँग मूल रूप से अमेरिका ने की, भारत इस पर चुप रहा, पर भारत ने इसका विरोध भी नहीं किया। समझा जाता है कि भारत की चुप्पी को मौन समर्थन माना गया।
ताईवान से नज़दीकी
लगभग इसी समय अलग-अलग मंचों से यह बात उठने लगी कि भारत को ताईवान से रिश्ते और मजबूत करने चाहिए क्योंकि प्रशांत सागर इलाके में उसकी अहम मौजूदगी है। लेकिन सच तो यह है कि चीन को संकेत देने के लिए ताईवान से रिश्ते सुधारने की बात कही जा रही है।इलेक्ट्रॉनिक्स उद्योग की बहुत बड़ी कंपनी फ़ॉक्सकॉन मूल रूप से ताईवान की ही है। कंपनी की सालाना बैठक में इसके अध्यक्ष लिउ यंग-वे ने भारत की तारीफ 'ब्राइट स्पॉट' कह कर की थी।
मोदी सरकार ने बदली नीति?
दरअसल नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद से ही ताईवान की ओर भारत का झुकाव हुआ है। मोदी ने जब 2014 में पहली बार प्रधानमंत्री पद की शपथ ली, उस कार्यक्रम में भारत में चीन के प्रतिनिधि चुंग क्वांग तिएन और केंद्रीय तिब्बती प्रशासन के प्रमुख लोबसांग सांगेय को भी आमंत्रित किया गया था।इसके बाद 2018 में भारत-चीन संबंध की संसदीय समिति ने भी अपनी रिपोर्ट में कहा था कि भारत को ताईवान के साथ साझेदारी मजबूत करनी चाहिए।
चीन से क्या तुलना?
चीन के साथ ताईवान की तुलना नहीं की जा सकती है, न आर्थिक क्षेत्र में, न रणनीतिक क्षेत्र में न ही सामरिक क्षेत्र में। उसकी यह भौगोलिक स्थिति ज़रूर है कि वह दक्षिण चीन सागर में है और वहाँ किसी देश की सैनिक मौजूदगी चीन को परेशान कर सकती है।चूंकि बीजिंग ताईवान से परेशान रहता है और उसे एक और चीन के रूप में स्वीकार नहीं कर सकता है, किसी अंतरराष्ट्रीय मंच पर उसकी मौजूदगी बर्दाश्त नहीं कर सकता है, इसलिए उसे परेशान करने के लिए ताईवान का इस्तेमाल किया जा सकता है, ठीक वैसे ही जैसे तिब्बत के नाम से ही बीजिंग परेशान हो जाता है।
तो क्या भारत चीन को परेशान करने के लिए शतरंज की बिसात पर ताईवान को आगे बढ़ा रहा है, या वाकई वह उससे बेहतर रिश्ते बनाना चाहता है?
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