ये हमले क्यों हुए, तीन खास वजहें
अलग-अलग विश्लेषक इसको अलग तरीके से देख रहे हैं। सत्य हिन्दी चैनल पर वरिष्ठ पत्रकार और सत्य हिन्दी के संपादक आशुतोष के कार्यक्रम में वरिष्ठ पत्रकार क़मर आग़ा ने अपना नजरिया पेश करते हुए बताया कि फिलिस्तीन का मुद्दा कई वर्षों से गुमनामी में चला गया था। सऊदी अरब और इजराइल के नए संबंध बन गए हैं। जबकि दूसरी तरफ अल अक्सा और आसपास फिलिस्तीनियों पर जुल्म बढ़ता जा रहा है। उसकी चर्चा दुनिया में होना बंद हो गई थी। इधर इजराइल ने जब कहा कि वो अल अक्सा का दो तिहाई हिस्सा अपने कब्जे में ले लेगा तो हमास को मौका हाथ लग गया। इसीलिए हमास ने फिलिस्तीन के मुद्दे को चर्चा में लाने के लिए हमले का रास्ता अपनाया। वो लोग पिछले डेढ़-दो साल से तैयारी कर रहे थे, रॉकेट बना रहे थे। यह लड़ाई कब्जे की लड़ाई है। अब इस मामले की अंतरराष्ट्रीय स्तर पर चर्चा हो रही है। इजराइल बार-बार कह रहा है कि वो हमास और हिजबुल्लाह को खत्म कर देगा। लेकिन इजराइल भूल गया है कि आप विचारधारा की हत्या नहीं कर सकते।बाकी दो वजहें
प्रिन्सटन यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर बर्नार्ड हेकेल ने इंडियन एक्सप्रेस में लिखे गए लेख में इसकी दो और वजहें भी बताई हैं। उन्होंने लिखा है कि हमास फिलिस्तीन में नेतृत्व की लड़ाई लड़ रहा है। उसका फिलिस्तीनी प्राधिकरण (पीए) के साथ मुकाबला है और ऐसे हमलों की सफलता इसे हासिल करने का एक तरीका है। पीए फ़िलिस्तीनियों की आधिकारिक सरकार है जिसने इज़राइल के साथ ओस्लो शांति समझौते पर हस्ताक्षर किए, जिसके परिणामस्वरूप वादा किया गया फ़िलिस्तीनी राज्य कभी नहीं बनेगा। इसके अलावा पीए भ्रष्टाचार और कुशासन से भरा हुआ है। इसने फिलिस्तीनी प्रतिरोध को प्रतिबंधित कर दिया है, इसे इज़राइल के साथ मिलीभगत के रूप में देखा जाता है। उसने फिलिस्तीन में अपनी वैधता लगभग खो दी है। ग़ज़ा में हमास बचेगा या नहीं, कुछ नहीं कहा जा सकता। लेकिन वो उस फिलिस्तीन का नेतृत्व कर रहा है जो आजादी और आत्मनिर्णय चाहता है। दूसरी बड़ी वजह है उस पहल को खत्म कर देना, जो अभी सऊदी अरब और खाड़ी के अन्य मुस्लिम देशों ने इजराइल के साथ संबंध सामान्य बनाकर की थी। हमास को ईरान का समर्थन और समर्थन प्राप्त है। जब सऊदी अरब और खाड़ी देशों ने इजराइल के साथ दोस्ती शुरू की थी, फिलिस्तीन का मुद्दा खत्म हुआ मान लिया गया था।“
सऊदी अरब के तमाम शहरों में इजराइल के खिलाफ प्रदर्शन हो रहे हैं। इसके अलावा कुवैत, कतर, यमन, ईरान, इराक, दुबई समेत तमाम देशों में इजराइल विरोधी मूड के कारण वहां के शासक भी सहम गए हैं। खबर है कि सऊदी अरब ने इजराइल के साथ फिलहाल हर तरह की बातचीत रोक दी है। शांति समझौते का तो अब सवाल ही नहीं पैदा होता है।
ईरान का इस हमले से क्या है कनेक्शन
ऐसे हमले के लिए जिस लेवल की योजना की जरूरत होती है, उससे यह सवाल उठने लगा कि क्या हमास इसे अकेले कर सकता था। और अगर उसे मदद मिली है, तो क्या वो ईरान से आई थी। हालांकि ईरान ने हमास के ऑपरेशन की सराहना की है, लेकिन इसमें शामिल होने से इनकार किया है। संयुक्त राष्ट्र (यूएन) में ईरान ने एक अधिकृत बयान जारी कर हमले को "पूरी तरह से स्वायत्त और फिलिस्तीनी लोगों के वैध हितों के साथ अटूट रूप से जुड़ा हुआ" बताया है। लेकिन कोई इसे मानने को तैयार नहीं है। ईरान इस क्षेत्र में हमास का सबसे लंबे समय से समर्थक है, ऐसे में किसी को ईरान का बयान सच नहीं लग रहा है।
सीएनएन ने अमेरिका के उप राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार जॉन फाइनर के हवाले से बताया कि यूएस का मानना है कि इज़राइल में हमास के हमलों में ईरान "मोटे तौर पर शामिल" है, लेकिन कहा कि अमेरिका के पास इस समय इन हमलों को ईरान से जोड़ने वाली "प्रत्यक्ष जानकारी" नहीं है।
इज़राइल का आरोप है कि ईरान हमास को हर साल लगभग 100 मिलियन डॉलर की मदद करता है। 2021 में अमेरिकी विदेश विभाग ने कहा था कि हमास को ईरान से धन, हथियार और प्रशिक्षण प्राप्त होता है, साथ ही कुछ धन अरब और अन्य खाड़ी देशों में जुटाया जाता है। इस इलाके में ईरान समर्थक लेबनान के शिया सशस्त्र समूह हिजबुल्लाह ने बार-बार फिलिस्तीनी इस्लामी समूहों के साथ मजबूत सुरक्षा समन्वय का दावा किया है। बता दें कि पश्चिमी दुनिया के अधिकांश और कुछ अरब देश हिजबुल्लाह, हमास और इस्लामिक जिहाद को आतंकवादी समूह मानते हैं।
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