पश्चिम बंगाल में डॉक्टरों की हड़ताल के कई दिन बीत जाने और अस्पतालों में इलाज न होने से मरने वाले मरीजों की तादाद बढ़ने के बाद ममता बनर्जी का गुस्सा सातवें आसमान पर है। वह गुस्साती हैं, तिलमिलाती हैं, शांत होती हैं, डॉक्टरों से अपील करती हैं और फिर गुस्सा हो जाती हैं। क्या यह ममता बनर्जी का नया रूप है या यही उनकी कार्यशैली है, यह सवाल पूछा जाने लगा है।
माँगें स्वीकार, फिर भी हड़ताल!
शनिवार को उन्होंने प्रेस कॉन्फ्रेंस कर दावा किया कि डॉक्टरों की सारी माँगें राज्य सरकार ने स्वीकार कर ली हैं। उन्होंने दावा किया कि एनआरएस अस्पताल के डॉक्टरों पर हमला करने के कुछ घंटों के अंदर ही 5 लोगों को गिरफ़्तार कर लिया गया। उन्हें अदालत से ज़मानत तक नहीं मिली है। ममता बनर्जी का यह भी कहना है कि वह किसी से बात करने को तैयार हैं, वह अपने दफ़्तर में 5 घंटे तक प्रतिनिधिमंडल का इंतजार करती रहीं, पर कोई नहीं आया। उन्होंने कहा कि इससे यह साफ़ है कि बाहर के लोग इस हड़ताल के पीछे हैं, जो नही चाहते कि किसी तरह इस समस्या का समाधान निकले।
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लेकिन हड़ताल की वजह से हालत इतनी बुरी हो चुकी है कि बंगाल की दीदी के बिल्कुल नज़दीक के लोग भी अब उनकी आलोचना करने लगे हैं।
उनके नज़दीक के नेता और कोलकाता के मेयर फ़रहाद की बेटी शब्बा फ़रहाद, मशहूर फ़िल्म अभिनेत्री और निर्देशक अपर्णा सेन, उनके एक और नज़दीकी नेता सव्यसाची मुखर्जी और ख़ुद उनका अपना भतीजा आबेश बनर्जी उनकी आलोचना कर चुके हैं। आख़िर ममता को क्या हो गया है? क्या वह सनक गई हैं?
इसके साथ ही सवाल यह उठता है कि क्या ममता बनर्जी के हाथ से पश्चिम बंगाल निकलता जा रहा है? क्या वह पार्टी और प्रशासन पर से नियंत्रण खोती जा रही हैं? लोकसभा चुनावों में पार्टी की क़रारी हार और बीजेपी की अप्रत्याशित जीत ने राज्य की सियासी तसवीर बदल दी है। ममता बनर्जी या तो इसे ठीक से समझ नहीं पा रही हैं या वह बीजेपी को संभाल नहीं पा रही हैं।
क्या वह भारतीय जनता पार्टी के जाल में फँस कर अपना संतुलन खो रही हैं या उनकी कार्यशैली ही ऐसी रही है? गुस्सैल, तुनकमिजाजी, तानाशाह, किसी की न सुनने वाली, मनमर्जी से काम करने वाली! मामला क्या है? हाल के दिनों में ये सवाल उठने लगे हैं।
तेज़ खोती ममता
लेकिन वही ममता अब अपना तेज़ खोती जा रही हैं। पार्टी पर उनकी पकड़ ढीली होती जा रही है। इससे इससे समझा जा सकता है कि उनके एकदम नज़दीक रहे और पार्टी में नंबर दो की हैसियत रखने वाले मुकुल राय ने उनका साथ छोड़ कर बीजेपी का दामन थाम लिया। उन पर सारदा चिटफंड घोटाले में शामिल होने का आरोप था। समझा जाता है कि उससे बचने के लिए ही उन्होंने पाला बदला। पर यह भी कहा जाता है कि सारदा घोटाले में तो दूसरे कई नेताओं की सीबीआई जाँच हो रही है, उन्होंने तो पाला नहीं बदला। अब ममता के ख़िलाफ़ बीजेपी की पूरी रणनीति बनाने का काम मुकुल राय ही कर रहे हैं।इसी तरह दो मौकों पर ममता बनर्जी ने अपना आपा खोया और बीजेपी के जाल में फँस गईं। चुनाव प्रचार के दौरान उनके बगल से गुजरते हुए बीजेपी समर्थकों ने उन्हें देखते ही ‘जय श्री राम’ का नारा लगाया। जाहिर है, यह चिढ़ाने के लिए ही किया गया था। ममता चिढ़ गईं, वह गाड़ी से उतरीं और जाकर उन लड़कों को डाँट लगाई। बीजेपी ने इसे मुद्दा बना लिया और प्रचारित कर दिया कि बंगाल में ‘जय श्री राम’ कहने पर पुलिस गिरफ़्तार कर लेती है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अमित शाह ने इसे खूब भुनाया और ललकारा कि उन्हें भी गिरफ़्तार किया जाए। तृणमूल को चुनाव में इससे नुक़सान हुआ।
डॉक्टरों की हड़ताल से निबटने में मुख्यमंत्री बुरी तरह नाकाम रहीं। इससे उनके व्यक्तित्व पर भी सवालिया निशान लगाया। यह पूछा जा रहा है कि ममता हड़ताल के चरित्र को समझने में नाकाम कैसे रही हैं और क्यों हड़ताली उनकी बात नहीं सुन रहे हैं।
बंगाल में बांग्ला बोलना होगा!
मुख्यमंत्री ने पहले तो चार घंटे के अंदर डॉक्टरों को हड़ताल ख़त्म करने की चेतावनी दी। उसके बाद कांचरापाड़ा के एक कार्यक्रम में कह दिया कि बाहर से आए लोग डॉक्टरों की हड़ताल को हवा दे रहे हैं। उसी कार्यक्रम में उसी सांस में उन्होंने कह दिया कि बाहर के लोगों को पश्चिम बंगाल में बांग्ला सीखनी होगी। उन्होंने तर्क भी दिया कि जब वह उत्तर प्रदेश या बिहार जाती हैं तो हिन्दी बोलती हैं। बाहर के लोग पश्चिम बंगाल में बांग्ला बोलें।ये दोनों ही बातें ग़ैर ज़रूरी और अप्रासंगिक थीं। कई लोगों ने पूछा, आखिर ममता ऐसा क्यों कर रही हैं।यही सवाल है, जिसका जवाब ख़ुद तृणमूल कांग्रेस के लोग ढूंढ रहे हैं। क्या ममता बनर्जी को ऐसा लगने लगा है कि बीजेपी ने उनकी घेराबंदी कर ली है और अगला चुनाव उनके हाथ से निकलने जा रहा है, इस वजह से वह बदहवास हैं। इसे इससे समझा जा सकता है कि संसदीय चुनाव में लगभग 128 विधानसभा सीटों पर बीजेपी आगे रहीं और 50 से अधिक सीटों पर वह दूसरे नंबर पर आई।
अपने जाल में उलझीं ममता?
यही सवाल है, जिसका जवाब ख़ुद तृणमूल कांग्रेस के लोग ढूंढ रहे हैं। क्या बीजेपी के मुसलिम तुष्टीकरण के आरोप पर लोगों ने भरोसा कर लिया है और भगवा पार्टी को उनके ख़िलाफ़ उतारा है, यह सवाल पूछा जा रहा है। ख़ुद उनकी पार्टी के कुछ लोग यह कहते हैं कि अल्पसंख्यक समुदाय के नज़दीक दिखने का सियासी फ़ायदा जितना मिलना था, मिल चुका। लेकिन उसके जवाब में खड़ा किया गया बहुमतवाद का जिन्न बोतल से निकल चुका है। इसे कोई नहीं रोक सकता, तृणमूल को इसका ख़ामियाज़ा भुगनता होगा। लोग इसके लिए दीदी को ही ज़िम्मेदार मानते हैं। पर अब मामला हाथ से निकल चुका है और दीदी भी कुछ नहीं कर सकतीं।पर्यवेक्षकों का कहना है कि दरअसल ममता बनर्जी अपने ही जाल में उलझ गई हैं। उन्होंने सीपीएम को मात देने के लिए अपनी पार्टी को मुसलिम हितैषी दिखाने की कोशिश की। उन्होंने ऐसे कई फ़ैसले किए जिसे बीजेपी बड़ी आसानी से मुसलिम तुष्टीकरण बता सकती है, बता भी रही है। समझा जाता है कि पश्चिम बंगाल में बीजेपी की ज़बरदस्त जीत बहुसंख्यक हिन्दू समुदाय की प्रतिक्रिया है। इससे ममता बनर्जी बौखलाई हुई हैं। पर उनके पास कोई उपाय नहीं है।
मुख्यमंत्री ने उग्र हिन्दुत्व की काट के लिए रूप में बांग्ला राष्ट्रवाद और बंगाली अस्मिता को मुद्दा बनाया है, वह इसे और तेज़ करेंगी, ऐसा माना जा रहा है। यह कितना कारगर होगा, यह कहना मुश्किल है।
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