फिर दुहराव। फिर वही एक बात। फिर से मुसलमान। लेकिन शुरू करने से पहले ही सावधान करना ज़रूरी है कि वजह मुसलमान नहीं, हिंदुओं के भीतर पैठ कर गई और गहरी हो रही व्याधि है। विषय इसीलिए मुसलमान नहीं, हिंदुओं के भीतर की मुसलमान ग्रंथि है। जो हिंदी भूल गए हैं, वे ग्रंथि को कॉम्प्लेक्स पढ़ लें, जैसे आजकल किताब को हिंदी वाले बुक कहने लगे हैं और लेकिन को बट। टोकने पर बुरा मानकर पुस्तक और किंतु का उच्चारण करते हैं। वह शायद इसलिए कि किताब और लेकिन में भी छूत है।
एक और बात। वह यह कि मुसलमान विषय नहीं है, व्यक्ति है। यह समझना इतना मुश्किल नहीं होना चाहिए था लेकिन एक भारी विश्वव्यापी बीमारी ने इस साधारण सी बात को समझना इतना कठिन कर दिया है। इससे दुखी या क्षुब्ध होकर एक युवती ने दो साल पहले हैदराबाद की एक सभा में जो कहा था, वह मैं भूला नहीं हूँ। जो उसने कहा था उसका मतलब यह था- मुसलमानों को लेकर हर बातचीत अब अश्लील लगती है। इतना ज़िक्र शायद किसी का न होता हो। पहले तो उसे अदृश्य किया जाता है। आप संसद को देख लें या विधान सभाओं को। सेना को देख लें या पुलिस को। वह अदृश्य है। दिल्ली, मुंबई, अहमदाबाद, जिन्हें भद्रजन के इलाक़े कहते हैं, उनके मकानों पर लगी नाम पट्टियाँ पढ़ते जाइए, यह अदृश्यता उभरने लगेगी। लेकिन यह हमें अस्वाभाविक कभी लगी नहीं। हमने कभी पूछा नहीं कि नव धनाढ्य वर्ग हो या नया पेशेवर समाज, उनकी बस्तियों से एक तरह के नाम क्यों ग़ायब हैं। इसे उसी की कमी बताया जाता है।
फिर वह दृश्य बनता है। मुहम्मद अखलाक़, अलीमुद्दीन, जुनैद, पहलू खान..., सूची बहुत लंबी है। यह है व्यक्ति दृश्य। सामूहिक दृश्य हैं - नेल्ली, भागलपुर, गुजरात, मुज़फ़्फ़रनगर और सबसे ताज़ा उत्तर-पूर्व दिल्ली। यह दृश्य हैं मुसलमानों को अदृश्य करने के आयोजन का। इन सभी दृश्यों में वह कमज़ोर, पिटता हुआ, मारा जाता हुआ और उसके बाद राहत माँगता हुआ दिखता है। वह जो सिर्फ़ एक शारीरिक इकाई में शेष रह गया है। राहत शिविरों में, राशन के लिए कतारबद्ध। सरकारी मुआवजे का मुंतज़िर और सामाजिक करुणा का पात्र।
दृश्य करने के और भी तरीक़े हैं। एक जो अभी तब्लीग़ी जमात के सामूहिक दृश्यों में दिखता है। अख़बार और सोशल मीडिया पर पिछले एक हफ़्ते से जो दृश्य गढ़े जा रहे हैं, उनके पीछे मुसलमानों को ग़ैर-ज़िम्मेदार दिखलाने का मक़सद है। उनमें से प्रायः सभी झूठे हैं, यह बार-बार साबित किया जा चुका है। लेकिन ऐसा करने वाले बाज नहीं आते।
मुसलमानों की सामूहिकता को हमेशा ख़तरनाक बताया जाता है। मुसलमानों के कौन से सामूहिक दृश्य हिन्दू निगाह को प्रिय लगते हैं और कौन से नहीं, यह अध्ययन का विषय है।
जुमे की सामूहिक नमाज़ का दृश्य आजकल एक साज़िश के लिए हुए जमावड़े के तौर पर पेश किया जाने लगा है। इसके अलावा आपने नोट किया होगा कि होली में टोपी लगाकर रंग लगाते मुसलमान या कृष्ण जन्माष्टमी में अपने बच्चे को बालगोपाल के भेष में गोद में लिए बुर्कापोश महिला या टोपी पहने पुरुष की तसवीर अख़बारों को प्रिय है। यह है ‘अच्छे’, भारतीय मुसलमान की तसवीर। मुसलमान की यह दृश्यता ‘सकारात्मक’ है। वैसे ही जैसे कावड़ियों को पानी पिलाते मुसलमानों की तसवीर।
व्यक्तिगत तौर पर अब्दुल कलाम जो कम मुसलमान दिखते हैं, अच्छे मुसलमान की छवि पेश करते हैं। वैसे ही जैसे होली, दीवाली पर की गई उर्दू शायरी प्रिय है।
आमिर खान या सानिया मिर्जा देश की शान हैं लेकिन जिस क्षण उन्होंने अपनी मुसलमान पहचान का एक अंश भी उजागर किया, निराशा जाहिर की जाती है, “आखिर ये भी मुसलमान ही निकले!”
हैदराबाद की उस युवती ने कहा कि इस प्रकार दृश्य करके अदृश्य करने में जो हिंसा है उसी वजह से मुसलमानों पर कोई भी चर्चा उसे अब विकर्षक और अश्लील लगती है। वह नहीं चाहती कि मुसलमानों पर सहानुभूति व्यक्त करते हुए कोई बात करे।
मैं अगर उसे ठीक समझ पाया तो वह यही कहना चाह रही थी कि मुसलमान हमेशा आपका विषय होकर रहना नहीं चाहता। वह अलग-अलग इंसान है। आप उसे इस समूहवाचक संज्ञा में शेष करके आसानी से ख़त्म कर सकते हैं।
उसे यह भी मालूम है कि एक मुसलमान व्यक्ति कितना ही अपनी मुसलमान पहचान से मुक्त होने की कोशिश करे, जब निर्णायक क्षण आएगा तो वह उनके साथ ही निशाना बनाया जाएगा जो मुसलमान दिखते हैं। उनकी नियति एक है। राष्ट्रवादी मुसलमान किसी गफ़लत में न रहें। वे मुसलमान विरोधी हिंसा में काम लाए जानेवाले हथियार ही हैं।
हमने, यानी ग़ैर-मुसलमानों ने, अपने व्यवहार पर ठहर कर सोचा नहीं। अगर क्लास के किसी छात्र का नाम याद न आ रहा हो तो पूछते हैं, “अरे, वह जो मुसलमान लड़का था न?’’ कितनी बार कहते हुए सुना है, “ओह! वह मुसलमान क्या कह रही थी?” हमने कभी विचार नहीं किया कि इसी रूप या संज्ञा में ये व्यक्ति क्यों याद रह जाते हैं?”
यह टिप्पणी लेकिन हिंदुओं की मुसलमान ग्रंथि पर थी। यानी वह जो लगातार मुसलमान को देखते ही रहना चाहता है, सोते-जागते और उसकी कल्पनाएँ करता रहता है और उन पर यक़ीन करने लगता है। वह मुसलमान को किस रूप में देखना चाहता है और वैसी तसवीरें गढ़ भी लेता है।
मुसलमानों के ख़िलाफ़ मिथ्या प्रचार
जैसे, अभी साइबर संसार में सैकड़ों वीडियो ऐसे घूम रहे हैं जिनमें मुसलमानों को आपत्तिजनक व्यवहार करते दिखलाया गया है। जाँच करने वालों ने बताया कि ये नक़ली और झूठे हैं। उसी तरह मुसलमानों को लेकर ऐसी “सूचनाएँ”, जो मिथ्या प्रचार हैं, तथ्य से कोसों दूर, ऐसे चुटकुले और मुहावरे जो मुसलमानों का अपमान करने की नीयत से बनाए गए हैं, लगातार साइबर जगत में चक्कर काटते रहते हैं।
मुसलमान विरोधी सामग्री की खपत ज़्यादा
जितनी इनकी (वीडियो, चुटकुले आदि) संख्या है, अगर इन्हें बनाने वाले भी उतने ही हैं तो हिंदुओं के सामूहिक मानसिक स्वास्थ्य की स्थिति चिंताजनक है। लेकिन हमें बताया गया है कि प्रायः इन्हें तैयार करवाया जाता है और फिर प्रसारित किया जाता है। इसका अर्थ यह है कि कुछ लोग पेशेवर तौर पर इस तरह की सामग्री तैयार करते हैं। लेकिन इस तरह की मुसलमान विरोधी सामग्री की खपत बहुत है।
प्रायः लोग इस तरह की मुसलमान विरोधी घृणा के प्रचार का आनंद लेते हैं। ख़बरनबीस ग़लत ख़बरें तैयार करते हैं। संपादक और मालिक इसका आदेश देते हैं। मुसलमान विरोधी नफ़रत में खाद-पानी देने वाली फ़िल्में बनाई जाती हैं। सबके पीछे तर्क यह है कि आख़िर यह भी एक विचार है और इसमें यक़ीन करने वाले लोग अच्छी तादाद में हैं।
ऐसे लोग भी आपको मिल जाएँगे जो ख़ुद को उदार, सहिष्णु बताते हैं लेकिन वे इस मुसलमान विरोधी कुत्सा का आनंद लेने में हर्ज नहीं समझते। इस सब को वे 'लाइट्ली' लेने का मशविरा देते हैं।
मुझे हरतोष बल की एक बात याद रह गई है। उन्होंने पूछा था कि आख़िर भारत के अल्पसंख्यक कब तक हिंदुओं के स्वस्थ होने का इंतज़ार करें। यह प्रश्न सारे हिंदुओं को सुनना ही होगा। उन्हें भी आत्मावलोकन करना होगा। देखना होगा कि “दूसरों” को लेकर घृणा के स्रोत ख़ुद उनके अंदर हैं। जो उनकी घृणा के निशाने पर हैं, उनमें नहीं।
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