“चारों दिशाओं से चारों दिशाओं में
उजड़े घर छोड़कर
दूसरे उजाड़ों में लोग जा रहे हैं
भूख और अपमान की ठोकरें खाकर
इतिहास, पीड़ा का इतिहास उनको बताता है
यह ज़मीन यहाँ से वहाँ तक जुड़ी है
वह उनका घर नहीं
उनके बच्चे ही उनका घर हैं”
रघुवीर सहाय की कविता ‘आज़ादी’ जैसे आज ही लिखी गई हो!
चारों दिशाओं से चारों दिशाओं में चलते ही चले जाते लोग कहाँ से आ रहे हैं और कहाँ जा रहे हैं? क्या वे भारत से निकल कर भारत को जा रहे हैं? क्या वे भारत नाम के किसी राष्ट्र या देश में रहते थे या हैं? या इस वायरस के संक्रमण की आशंका ने आख़िर साबित कर दिया कि भारत एक नहीं है। भारत को जेएनयू वालों ने नहीं तोड़ा, ‘अर्बन माओवादियों’ ने भी नहीं, न ‘जेहादियों’ ने। ऐसे किसी ‘टुकड़े टुकड़े गैंग’ का यह काम नहीं है जिसकी कल्पना से ‘भारतवासियों’ को डराकर अपना अनुचर बनाया जाता रहा है। एक विपदा या उसकी आशंका मात्र ने भारत को टुकड़ों में बाँट दिया। क्या इस आशंका ने? या, क्या उन्हें तोड़नेवाले वे हैं जो सबसे अधिक उसका नामजाप करते हैं?
या क्या ये टुकड़े पहले से ही एक दूसरे से ही विच्छिन्न थे और उनके ऊपर भारत के नाम की चादर बस पड़ी हुई थी? इस चादर को कोरोना वायरस की आशंका की आँधी ने उड़ा दिया है और वह विभाजन उघड़ गया है या वह सीवन दीखने लगी है जो भारत नाम की है और इन्हें एक दूसरे से जोड़े हुए लगती थी।
इन दो महीनों में हमें मालूम हुआ कि लोग उड़ीसावासी हैं, बिहारवाले हैं, मध्य प्रदेश के हैं, असम और बंगाल के हैं। नहीं है कोई तो भारत का नहीं है। अभी जिन्हें भारत नाम के विचार की मिल्कियत सौंप दी गई है, वे इन सब टुकड़ों पर इल्ज़ाम लगा रहे हैं कि वे अपने लोगों का ख़्याल नहीं कर रहे। वे ख़ुद जैसे भारत के शिखर पर विराजमान हैं और भारत पर उनका अधिकार सुरक्षित है। वे इन आते-जाते लोगों को उनकी जगह बताने का हक़ भी रखते हैं और इन टुकड़ों को भी भारत के साथ उनके रिश्ते की हैसियत बता रहे हैं।
‘आप कहाँ के हैं?’ का उत्तर अब बहुत साफ़ हो गया है। भले ही राजस्थान में काम करते हुए बरसों बरस में उसे हर तरह से समृद्ध कर रहा होऊँ, किसी विपदा के समय उसपर मेरा अधिकार देसवालों के मुक़ाबले कम ही होगा। अगर आप केरल की जैसे अपवाद को छोड़ दें तो जिस तरह आज सारी सरकारें एक दूसरे पर यह इल्ज़ाम लगा रही हैं कि वे अपने लोगों का ध्यान नहीं रख रहीं, उससे ज़ाहिर हो गया है भारत जैसी किसी एक इकाई का विचार अपवाद ही है।
सीमा भारत और पाकिस्तान, नेपाल, बांग्लादेश या म्यांमार के बीच नहीं रह गई है, अब बिहार और उत्तर प्रदेश, राजस्थान और गुजरात, असम और मेघालय या कर्नाटक और केरल के बीच खिंच गई है।
कर्नाटक की सरकार कासरकोड के लोगों को सटे हुए शहर मंगलोर में इलाज के लिए आने की इजाज़त नहीं दे रही है। लोग सीमाओं के इस पार और उस पार खड़े हैं और पुलिस उन्हें वापस उस तरफ़ धकेल रही है जिधर से वे आ रहे हैं।
चुनावी राजनीति के उद्देश्य से भले ही अपने राज्यों के निवासियों को, जो अब सिर्फ़ ‘प्रवासी’ की संज्ञा में शेष हो गए हैं, लाने को सरकारें बाध्य कर दी गई हैं, उनका मन से स्वागत नहीं है। वे उस राज्य की अर्थव्यवस्था पर दोहरे बोझ की तरह गिर पड़े हैं, ऐसा उन राज्यों की सरकारों से बात करने पर आपको मालूम होगा।
यह सब लेकिन हुआ एक केंद्रीय, भारतीय निर्णय के चलते है जो वे लोग ले रहे हैं जो मानते हैं कि इस भारत पर उनका क़ब्ज़ा है। ये भारत के उन सूबों पर हमला कर रहे हैं, उन्हें जीवन-साधनों से वंचित कर रहे हैं, जिनपर अब तक उनका क़ब्ज़ा नहीं हो सका है। रेल मंत्री चुन कर उन राज्यों पर आक्रमण करें जहाँ उनके दल की सरकार नहीं है, वह भी इस विपदा की घड़ी में, इससे ज़ाहिर होता है कि भारतीयता जैसी कोई उदात्त भावना नहीं जो राजनीति से ऊपर उठाने की ताक़त रखती हो।
यही हमने केरल की बाढ़ के वक़्त भी देखा था। भारतीय जनता पार्टी के नेताओं और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के विचारों से जुड़े लोगों ने भरपूर प्रचार किया था ताकि केरल को न बाहरी मदद मिले, न देश के भीतर से। यह केरल के ख़िलाफ़ घृणा प्रचार था। केंद्रीय राहत कोष से भी उसे उसका पावना नहीं दिया गया था। फिर केरल भारत का अंग क्योंकर है जब शेष भारत, बल्कि राजकीय भारत उसके साथ संकट में नहीं खड़ा होना चाहता?
भारत फिर क्या है, किसका हक़ उस पर ज़्यादा है और किसका कम? वह कैसे, किस रूप में किसी को महसूस होता है?
दिनकर यह स्पष्ट नहीं करते कि यह गुण क्या है लेकिन अगली पंक्तियों से शायद उसका अन्दाज़ किया जा सकता है,
‘एक देश का नहीं, शील यह भूमंडल भर का है,
जहाँ कहीं एकता अखंडित, जहाँ प्रेम का स्वर है,
देश-देश में वहाँ खड़ा भारत जीवित भास्वर है।’
दिनकर को राष्ट्र कवि कहा जाता है लेकिन इस कविता में वह पूछते हैं कि क्या वे जन्मभूमि को नमन करें या निखिल विश्व को?
दिनकर को भारत से मोहब्बत है, वे उसे इसी रूप में देखना चाहते हैं। लेकिन उनके परवर्ती कवि रघुवीर सहाय की दृष्टि इस रूमानियत से आज़ाद है। जिस कविता की पंक्तियों से यह टिप्पणी शुरू की गई है, उसी की अगली पंक्तियाँ हैं,
'बहुत बड़े देश में बहुत से मनुष्यों की पीड़ाएँ
अगर उसे बड़ा नहीं करती हैं तो ज़मीन को
उसके हत्यारे छोटा कर देते हैं
बेचकर विदेश में भेजने के लिए'
तो वह भारत का भाव क्या है? कवि का स्वर निर्मम है,
'देश में बर्बरताहत्याएँ चीथड़े खून और मैल आज भारतीय संस्कृति के मूल्य हैंऔर दया करते हैं लोग यह मानकर कि कष्ट अनिवार्य हैदया के पात्र कोभारत में क्या हमारे क़रीब है और क्या हमसे दूर है?हम अपना भूगोल ही भूल गए हैंहर हत्या हमसे कुछ दूर हुई दीखती हैजबकि वह हमारे बहुत पास में हुई हैतो भारत एक किस तरह होता है?आज यही कफ़नढँके चेहरे हैं एक साथ रहने केबचे खुचे कुछ प्रमाण और इन्हें जो याद नहीं रख सकते हैंवे ही समाज पर राज कर रहे हैं'
कवि के अनुसार ये बेचेहरा लोग हैं जो किसी बड़े देश के ग़ुलाम हो ही जाएँगे। और हम इस देश के उजाड़ों में अपना चेहरा खोजते रह जाएँगे।
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