'हम कौन थे, क्या हो गए हैं और क्या होंगे अभी?': हिंदी पढ़ने, जानने वालों के लिए यह प्रश्न कितना जाना हुआ है! निहायत ही गद्यात्मक और सपाट लेकिन मैथिलीशरण गुप्त के इन शब्दों की हैसियत क्लासिक की-सी है। प्रत्येक पीढ़ी, प्रत्येक समाज, राष्ट्र यह प्रश्न अपने आप से करता रहता है। इससे उसके जीवित होने का प्रमाण मिलता है। यह प्रश्न कौन कर रहा है, यह कम महत्वपूर्ण नहीं।
प्रश्न करने वाले के व्यक्तित्व की सतह से भी तय होता है कि वह इनके उत्तर कैसे खोजेगा। 'हम कौन थे' का उत्तर खोजना क्या इतना आसान है? हम गौरवशाली अतीत के स्वामी हैं, अगर यह इस प्रश्न का उत्तर है तो निश्चय ही हमारे अंदर कोई हीन भाव है।
अतीत के प्रति एक आलोचनात्मक रुख रखते हुए उससे वर्तमान और भविष्य के लिए रौशनी हासिल करना ही एक जीवित समाज का रवैया हो सकता है।
अपने लिए कौन सा अतीत हम चुनते हैं, यह फिर वर्तमान के प्रति हमारे नज़रिए से ही तय होगा। क्या अतीत हमारे लिए वर्तमान के द्वेष और घृणा को उचित साबित करने का साधन भर है? दूसरा, एक समाज क्या एक साझा अतीत की कल्पना कर सकता है?
मेरा अतीत आपके अतीत का अगर हमेशा प्रतिद्वंद्वी होगा तो आज हम एक समाज कैसे बन पाएँगे? लेकिन यह भी सच है कि कई बार हमें साहसपूर्वक अतीत का सामना करना चाहिए और यह भी कबूल करना चाहिए कि समान में विभाजन रहे हैं और अतीत भी विभाजित होंगे ही। एक काले व्यक्ति का अतीत एक गोरे व्यक्ति के अतीत से किस प्रकार से रिश्ते में हो?
एक औरत का अतीत का एक पुरुष के अतीत से तनावग्रस्त रिश्ता होना अस्वाभाविक नहीं। एक दलित और एक सवर्ण के अतीत के बारे में भी यही कहा जा सकता है।
प्रश्न यह है कि क्या आज एक गोरा एक काले के अतीत से कोई रिश्ता महसूस करता है, एक पुरुष एक औरत के अतीत की साझेदारी कर सकता है! हम किन्हें अपने पूर्वज चुनते हैं, इससे यह तय होगा कि हम आज कौन हैं और आगे क्या होंगे।
वर्तमान की उपेक्षा तो नहीं?
यह भी सच है कि जब भी किसी समाज में अतीत के प्रेतों को जगाया जाता है तो वर्तमान के जीवितों के प्रेत में बदल जाने की आशंका बढ़ जाती है। जो जीवित हैं, क्या उनके प्रति आदर है? अतीत के प्रति आदर में वर्तमान के प्रति उपेक्षा तो नहीं? या उसका तिरस्कार? वर्तमान को अतीत की शक्ल में ढालने की कोशिश वर्तमान की संभावना को कुचल सकती है। अतीतजीवी और अतीतमोह से ग्रस्त समाज आखिरकार एक बीमार समाज में शेष होने को अभिशप्त होता है।
लेकिन यह भी सच है कि अतीत कई बार वर्तमान की आलोचना हो सकता है और उसे स्वस्थ कर सकता है। मसलन,आज अंग्रेज़ी हुकूमत से आज़ादी के 74 साल गुजर जाने के बाद उपनिवेशकालीन भारत आज के भारत को किंचित निराशा और क्षोभ से देखता होगा।
औपनिवेशिक भारत में जीवित अब हमारे प्रेतों में अनेक यह कहेंगे कि हमने अतीत और भविष्य की जो कल्पना से जीवन की जो कसौटी गढ़ी, तुम उसपर कतई खरे नहीं उतरे। लेकिन क्या सारे भारतवासियों के प्रति वे इतने ही निराश होंगे?
कौन है जो साहसी है और कौन हिंसक? जो साहसी है, वह दूसरे की क्षति पर अपने जीवन की कल्पना नहीं कर सकता। वह अपने दायरे से निकलकर एक अनजान लोक में कदम रख सकता है। वह अनिश्चित है, उसमें जोखिम है लेकिन इस अनजान का आमंत्रण उसके लिए दुर्निवार हो सकता है।
ऐसे साहसी अतीत में कौन थे? क्या वे हमारे पूर्वज हैं? या वे जिन्होंने अपनी अपने चारों ओर 'लक्ष्मण-रेखाएँ' खींच लीं और उनकी दीवारें खड़ी कर लीं? जिन पूर्वजों की हम तलाश कर रहे हैं, क्या उन्होंने खुद अपने लिए अतीत चुनते हुए साहस-यात्राएँ कीं? या वे सुरक्षाएँ खोज रहे थे? क्या वे अतीत से अपने आग्रहों का आश्वासन मांग रहे थे या उन्होंने ऐसा अतीत चुना जो उन्हें लगातार चुनौती दे रहा था? और वह चुनौती थी एक साहसी व्यक्ति बनने की?
साहस उदारता का, विशालता का, अज्ञात को ज्ञात बनाने का। साहसी व्यक्ति निष्कवच भी होता है। वह रणनीतिक नहीं होता। वह हर किसी से बराबरी की सतह पर भेंटना चाहता है। बराबरी न मिलने पर वह विद्रोह कर उठता है। यह बराबरी हर किस्म की होगी। सीमित न होगी।
समानता का अधिकार
जो समानता मुझे चाहिए वह हर किसी का अधिकार है। समानता स्वाधीनता के बिना सम्भव नहीं। अगर मैं स्वाधीन हूँ लेकिन और नहीं तो निश्चय ही मेरी स्वाधीनता में दोष है, वह हीन है। वह आपराधिक तब हो जाती है जब मेरे नाम पर औरों की स्वाधीनता को सीमित या संकुचित किया जाता है। तब मेरा कर्तव्य खुद को उस और में मिलाने का, उसके अतीत का उत्तराधिकार लेने का, जो अन्याय, अपमान और अत्याचार से परिभाषित है, हो उठता है।
आत्मग्रस्त समाज आत्मसजग समाज नहीं। जो अपनी रूह में और रूहों को जोड़ने की हिम्मत नहीं करता वह कायर ही हो सकता है। क्या दूसरा भय और वितृष्णा पैदा करता है या उत्सुकता? इससे दूसरे के बारे में जितना नहीं उतना अपने बारे में मालूम होता है।
वे कौन थे, सिर्फ उस भूभाग में नहीं जिसे भारत कहते हैं जिन्होंने अपने अतीत में इस महत्वाकांक्षा के साथ यात्रा की? क्या उनसे हम लगाव महसूस करते हैं? क्या हम उनकी तरह के रोमांस कर सकते हैं?
हम कौन थे, इस प्रश्न का एक ही उत्तर नहीं होगा। 'कौन थे' में 'कैसे थे' की ध्वनि मुखर है। हम कैसे लोग थे? लेकिन क्या आश्चर्य की बात नहीं कि हम खुद को कितना विस्तारित कर लेते हैं जब हम यह प्रश्न पूछते हैं? इस प्रश्न के साथ ही, अपने आपको उस अतीत में प्रक्षेपित करते ही हम कितनी जिम्मेदारियों से भर उठते हैं?
अज्ञेय की कविता 'इतिहास की हवा' की अंतिम पंक्तियों से ही क्यों न आज के दिन की शुरुआत करें?
"इतिहास उत्तर नहीं देता, इतिहास भी उत्तरदायी नहीं है:
परंपरा भी उत्तरदायी नहीं है ...
पर झरो खे में से इतराता आता हुआ
बहकी हवा का झोंका पूछता है:
मैं, मैं, क्या मैं भी उत्तरदायी नहीं हूँ?
इतिहास के प्रति
चेहरे के प्रति
परंपरा के प्रति
...बालकों के भवितव्य के भोले विश्वास के प्रति
क्या मैं उत्तरदायी नहीं हूँ?"
मैथिलीशरण गुप्त का प्रश्न और प्रश्न अज्ञेय का! दोनों कितने भिन्न थे? लेकिन याद कैसे न करें कि अज्ञेय मैथिलीशरण को गुरु मानते थे। तो बिना उनके प्रश्न से जूझे उनके गुरु के प्रश्न का उत्तर कैसे दिया जा सकता है?
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