स्कूलों में प्रार्थना हो या नहीं? यह बहस एक बार फिर छिड़ गई है। संदर्भ है पीलीभीत के एक स्कूल के हेडमास्टर का निलंबन इस आरोप के बाद कि वह छात्रों को एक धार्मिक प्रार्थना करने को मजबूर कर रहे थे। मालूम हुआ कि यह मदरसे की प्रार्थना वास्तव में इक़बाल की लिखी मशहूर दुआ है जिसे सुनते हुए पीढ़ियाँ बड़ी हुई हैं, मुसलमान और ग़ैर मुसलमान दोनों और किसी को कोई ऐतराज़ कभी न हुआ। किसी ग़ैर मुसलमान का धर्म इस दुआ, या प्रार्थना को सुनकर या गाकर भ्रष्ट हुआ हो यह शिकायत किसी ने नहीं की। लेकिन हम एक अजीब से वक़्त में हैं जिसमें प्रेम और सद्भाव के शब्द सुनकर एक पक्ष हिंसा पर उतारू हो जाता है।
मुझे 2007 का गुजरात का एक वाक़या याद आ गया। विधान सभा चुनाव का प्रचार ज़ोरों पर था। हमारी दोस्त शबनम हाशमी और उनकी संस्था ‘अनहद’ ने गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री के विधान सभा क्षेत्र में एक अभियान चलाया। मुन्ना भाई के गुलाबी मुहब्बती तर्ज़ पर एक जत्था हर किसी को गुलाब बाँटते हुए घूम रहा था। जत्थे के आगे एक बैनर था जिसपर गाँधी की मुस्कराती तस्वीर थी। उनका कौन-सा उद्धरण था, यह याद नहीं लेकिन सामाजिक सद्भाव से जुड़ा उनका कोई संदेश ही था। कुछ दूर जाने पर जत्थे को एक आक्रामक झुंड ने घेर लिया। उस झुंड में से एक ने गाँधी की तस्वीरवाले बैनर पर एक लात लगाई। किसी ने गुलाब छीन लिए। धमकी भरी आवाज़ आई, ‘अभी प्रेम सूझ रहा है!’ हमारे साथ जुलेखा कैमरा लिए थीं, तस्वीरें उतारती। किसी ने उनका कॉलर पकड़कर उन्हें मारा और कैमरा छीन लिया। उसकी चिप निकालकर काफ़ी बहस के बाद कैमरा वापस किया।
मतलब यह कि मुन्ना भाई के निर्देशक राजकुमार हिरानी का गुलाबी फ़ॉर्मूला कुछ जगहों पर नकारा साबित होता है। यह प्रसंग याद आ गया जब अभी कुछ रोज़ पहले हिरानी अपने बाक़ी फ़िल्मी सितारों के साथ उस व्यक्ति से प्रेरणा लेने गए कि गाँधी के संदेश को कैसे जन-जन तक ले जाएँ जिसके लोग गाँधी और हिरानी के गुलाब को देखकर ही भड़क उठे थे और जिन्होंने गाँधी को ठोकर मारी थी। तब के गुजरात के मुख्यमंत्री की अब भारत के प्रधान मंत्री पद तक तरक़्क़ी हो गई है।
प्रेम से प्रेम जगे इसके लिए पात्र की पवित्रता भी शायद एक शर्त हो। लेकिन प्रेम अपात्र को देखकर अपना स्वभाव तो नहीं छोड़ सकता। 2007 से 2019 तक भारत ने काफ़ी तरक़्क़ी की है। हिंसा वैष्णव भजन गा रही है और सब जानते हुए भी सयाने विभोर भाव से आँख मूँदे उसके साथ ताल दे रहे हैं!
इस माहौल में इक़बाल की इस शीरीं दुआ को राष्ट्र विरोधी ठहराया जाना कोई हैरानी की बात नहीं।
बाद में शोर उठने पर प्रशासन ने अपनी ग़लती तो ठीक की लेकिन बिना उसे स्वीकार किए। हेडमास्टर फुरकान साहब का निलंबन वापस तो लिया गया लेकिन उनका तबादला दूसरे स्कूल में कर दिया गया। फिर अपनी जाँच में यह कहा कि वह राष्ट्र गान, जन गण मन नहीं गवा रहे थे। इसके बाद की कोई ख़बर नहीं।
इस घटना से लेकिन स्कूल में प्रार्थना के औचित्य पर चर्चा शुरू हुई। विधिवेत्ता फ़ैज़ान मुस्तफ़ा और शिक्षाविद कृष्ण कुमार के बीच हिंदू अख़बार में एक बहस हुई।
फ़ैज़ान मुस्तफ़ा की समझ है कि भारतीय संविधान वैसे स्कूलों में किसी भी प्रकार की धार्मिक शिक्षा या किसी भी धार्मिक विधि विधान की इजाज़त नहीं देता जो राज्य द्वारा पूर्णतः या अंशतः पोषित हैं।
सुबह की सभा में प्रार्थनाओं का गायन, जिनमें किसी भी रूप में ईश्वर का उल्लेख हो, धार्मिक अभिव्यक्ति की श्रेणी में आ जाता है। उनके मुताबिक़ ऐसा करना संविधान सम्मत नहीं है।
‘प्रार्थनाओं में सामूहिकता का बोध’
कृष्ण कुमार का तर्क है कि प्रार्थनाएँ अनेक प्रकार की हैं। वर्षों पहले दिनमान के लिए किए गए एक सर्वेक्षण के दौरान उन्होंने कोई 400 प्रार्थनाओं को देखा। स्कूल इनसे कई काम लेते हैं। उनमें आध्यात्मिक पुट है लेकिन असल चीज़ उनकी सांगीतिकता है। यह भी कि उनसे एक सामूहिकता का बोध पैदा होता है। फिर वे घरों के वातावरण से और समुदायों की परम्पराओं से भी स्कूल को जोड़ती हैं।
फ़ैज़ान मुस्तफ़ा एक दूसरी जगह अमेरिका और यूरोप के कई मुक़दमों का और अदालती फ़ैसलों का हवाला देते हुए कहते हैं कि प्रार्थना नितांत निजी दायरे की गतिविधि है और इसे किसी भी तरह स्कूल में बाध्यकारी नहीं बनाया जा सकता।
तो क्या रघुपति राघव या वैष्णव जन या सूर, तुलसी के भजन या लीड काइंडली लाइट अथवा टैगोर भी इस वजह से स्कूल से बाहर कर दिए जाएँ? संविधान वैज्ञानिक चेतना के विकास का दायित्व निर्धारित करता है। क्या प्रार्थना उसके रास्ते में बाधक है?
सागर के कुछ मित्रों की अर्ज़ी अभी उच्चतम न्यायालय की संविधान पीठ के सामने है जिसमें उन्होंने केंद्रीय विद्यालय में प्रार्थना पर ऐतराज़ जताया है। उनका कहना है कि प्रार्थना के दौरान सभी छात्रों से जिस मुद्रा की अपेक्षा की जाती है वह सिर्फ़ हिंदू मतावलंबियों की मुद्रा है। अन्य धर्म के छात्र सामूहिकता के दबाव में ही इसमें शामिल होते हैं। अगर उन्होंने ख़ुद को इससे अलग किया तो वे चिह्नित कर लिए जाएँगे।
इसका अर्थ यह है कि स्कूल को सामूहिकता में विविधता के तत्व को अनिवार्य रूप से शामिल करना पड़ेगा। धर्म से सिर्फ़ स्कूल में भागकर उसके असर से हम अपने बच्चों को बचा नहीं सकते। स्कूल शायद उन्हें समाज में सक्रिय विविध धार्मिक परंपराओं से अवगत कराके अधिक ज़िम्मेदारी का काम करेगा। लेकिन यह ऐसे माहौल में कैसे हो जिसमें यह माना जाता हो कि हिंदू जीवन पद्धति ही भारतीय जीवन पद्धति है?
क्या सरस्वती वंदना धार्मिक नहीं?
उच्चतम न्यायालय ने ही यह मुश्किल खड़ी की जब उसने हिंदूपन को इसलाम या ईसाईयत या दूसरे धर्मों से अलग जीवन पद्धति कहकर सबके ऊपर स्थापित कर दिया। इस तर्क से हिंदू पद्धतियाँ स्वतः ही धर्मनिरपेक्ष और भारतीय इसलिए अधिक व्यापक हो उठती हैं जबकि बाक़ी सब सिर्फ़ धर्म बने रहकर संकुचित और इसलिए हीन बन जाते हैं। इसीलिए सरस्वती वंदना तो धार्मिक नहीं, सांस्कृतिक है जबकि अन्य धर्मों की वंदना सिर्फ़ धार्मिक है!
ऐसी ही समस्या का समाधान अमेरिका और यूरोप में मौन के अधिकार का प्रावधान करके किया गया। छात्र मौन रहकर अपनी प्रार्थनाएँ कर सकते हैं।
भारत में और किसी ने नहीं, गाँधीजी ने सर्वधर्म प्रार्थना का आविष्कार करके एक राह सुझाई थी। वह स्वाधीनता आंदोलन की अनोखी खोज और विरासत है। फ़ैज़ान मुस्तफ़ा को इस विरासत को संभालने में ऐतराज़ नहीं। कई स्कूल इसका पालन अभी ही कर रहे हैं। फिर इसे चलन क्यों नहीं बनाया जा सकता?
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