‘आख़िर नाम में क्या रखा है?’, लिखनेवाला भारतीय न था, यह तो सवाल से ही मालूम हो जाता है। भले ही सदियों पहले उसने यह लिखा हो और वह ऐसे मुल्क़ का बाशिंदा हो, जिसने भारत को ख़ुद को देखने का तरीक़ा सिखाने की कोशिश की। लेकिन जो भारत का है, ख़ासकर उत्तर भारत का, उसे मालूम है कि नाम में ही सब कुछ रखा है।
अतिशी मरलेना कौन हैं? एक पार्टी ने बताया, अरे, आपको नाम से मालूम नहीं पड़ता? यह ज़रूर ईसाई है! दूसरी ने, जो शायद ईसाइयों को ज़्यादा जानती हो, कहा कि यह नाम कुछ अजीब-सा है, ईसाई नहीं, यह यहूदी है। आप चाहें तो शेक्सपीयर की तरह कह उठें, अरे, नाम में क्या है? या भारतीय कवि की तरह, ‘जात न पूछो साधु की’ लेकिन अतिशी को मालूम है कि राजनीतिज्ञ साधु नहीं और जो ख़ुद को साधु कहते हैं उन्हें भी चुनाव के वक़्त बताना पड़ता है कि वे ठाकुर हैं! तो इस वक़्त के भारत में कवि काम न आएँगे। इसलिए उन्होंने प्रेस के ज़रिए जनता को बताया कि मेरा नाम अतिशी मरलेना है, लेकिन इससे भ्रम में न पड़ जाइए कि मैं ईसाई या यहूदी हूँ, मैं पूरी हिंदू हूँ, बल्कि और भी पक्की क्योंकि मैं क्षत्रिय हिंदू हूँ। दुष्प्रचार के झाँसे में न आइए।
फिर उन्होंने नाम का राज बताया।
अतिशी के माँ-पिता, दोनों ही दिल्ली विश्वविद्यालय के अध्यापक, खाँटी कम्युनिस्ट रहे हैं। दोनों ने ही बेटी का नाम रखते वक़्त अपने पसंदीदा नेताओं का नाम मिलाकर अतिशी का आख़िरी नाम रखा जो अक्सर कुलनाम होता है। यह मार्क्स और लेनिन के पहले हिस्सों को मिलाकर बनाया गया: मरलेना।
तो भारतीय कानों और दिमागों के लिए मरलेना एक पहेली हो गया। अतिशी नाम भी ऐसा नहीं जो आम हो। मरलेना तो और भी अजूबा! इसलिए जो अजनबी और अजूबा हो, वह हिंदू कैसे हो सकता है?
क्या जिन्होंने यह प्रचार किया वे वास्तव में इस भ्रम के शिकार थे? और थे भी तो यह तथ्य क्यों महत्त्वपूर्ण होना चाहिए? क्यों यह ऐसी सूचना है जो भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस, दोनों के नेताओं ने जनता को देना ज़रूरी समझा? वह जनता जो मतदाता है, यह हम याद रखें।
इसलिए कि चुनाव में हिंदू के अलावा अगर आप कुछ और हैं या साबित कर दिए जाएँ कि और हैं, तो आपको मतदाताओं के बहुलांश के चित से उतार दिया जा सकता है: यह जो है, वह आपमें से नहीं है। इसलिए वह आपकी भी नहीं हो सकती। फिर आप उसे अपना क्यों बनाएँ?
इसीलिए भारत के चुनावों में जो उम्मीदवार हैं, उनके नाम एक तरह के हैं। इसके और भी अभिप्राय हैं, लेकिन अभी हम उनको छोड़ दें, नाम पर ही लौट आएँ।
हाल में पटना में एक कार्यशाला के दौरान एक स्कूली छात्रा ने बताया कि उसके नाम के चलते उसे अक्सर परेशानी होती है। नाम है सूफ़ी। उसके हिन्दू मित्र उसे मुसलमान समझते हैं और मुसलमान पूछते हैं कि अगर तुम मुसलमान नहीं तो फिर यह नाम क्यों!
प्रश्न ही विडम्बनापूर्ण है क्योंकि सूफ़ी तो इस पहचान के सवाल से जूझते रहे: मैं क्या जानूँ और कैसे जानूँ कि मैं कौन! और तुम मेरी पहचान कैसे तय कर दोगे?
सूफ़ी अपने माँ-पिता के आदर्शवाद की शिकार हैं। वह अभी भी युवा ही हैं, इसलिए इसे पिछले ज़माने की, जो अतिशी के माँ-पिता की पीढ़ी का था, ज़िद नहीं माना जा सकता। अतिशी मरलेना की उलझन सुनकर बेटे का नाम रखते वक़्त अपने मित्र दम्पति का नाम का तीन दशक पहले किया फ़ैसला याद आया: पुश्किन शानिव। दोनों कम्युनिस्ट थे लेकिन उनके नाम से आप उन्हें हिंदू-मुसलमान ही कहते। नास्तिक माता-पिता ने नाम के ही ज़रिए लेकिन बेटे को धर्म की छाया से दूर रखने के लिए एक कवि का सहारा लिया और फिर अपने नामों के हिस्से लेकर उसका दूसरा नाम रखा।
पुश्किन उस उम्र में हैं जब वे चुनाव में उम्मीदवार हों। अगर वे ऐसा करें तो उनपर भी कुछ अतिशी जैसा ही वार होगा। लेकिन अतिशी जैसी सुविधा उन्हें नहीं। वे साफ़ एक पहचान का दावा न कर पाएँगे। वहाँ मिश्रण है।
मिश्रण संदेह का स्रोत बना दिया गया है, भले ही भारतीय संस्कृति के अध्येता हजारीप्रसाद द्विवेदी ने बुलंद आवाज़ में कहा हो, ‘देश और जाति की विशुद्ध संस्कृति केवल बाद की बात है। सब कुछ में मिलावट है, सबकुछ कुछ अविशुद्ध है।’
गुरु की महिमा गानेवाला यह देश लेकिन अपने इस गुरु को सुनने की जगह शुद्ध की तलाश में वैसे ही रहता है जैसे जर्मनी का हिटलर था, जो हर मिलावट के निशान और स्रोत को जड़ से मिटा देना चाहता था।
एक दूसरा नाम याद आया जिसके दूसरे हिस्से में था होराइज़न। मेरे मित्र हैं। लेकिन ज़ाहिरा तौर पर इस नाम से वे चुनाव नहीं लड़ सकते थे। होराइज़न अंग्रेज़ी है और इससे उनकी पहचान संदिग्ध बना दी जा सकती थी। इसलिए इसे नाम से हटाना ही था।
कई और नाम याद आए। पत्रकार मित्र हैं, लेकिन गुजरते ज़माने के : फ़ैसल अनुराग। उनके बारे में क्या फ़ैसला करेंगे मतदाता? किनके वे हैं और किनके नहीं? दूसरे मित्र हैं, अरविंद अंजुम। यह भी भ्रमात्मक है। आख़िर वे हैं क्या, यह इस देश की सबसे बड़ी पार्टी चीख-चीख कर पूछेगी।
अरविन्द हों या अनुराग, उन्होंने अपने नामों को बदला था ऐसे वक़्त में जब यह यक़ीन बचा था कि नयी पहचानें गढ़ी जा सकती हैं। यह जयप्रकाश नारायण के आन्दोलन का समय था। बाद में इस आन्दोलन में जिसके कंधों पर हाथ रखकर जयप्रकाश चले, उसी ने इसपर हमला किया। नई पहचान संदिग्ध है। सबको उन पहचानों में लौटना होगा जो उनके धर्मों और जातियों से बनती हैं।
मिलावट की इजाज़त नहीं, व्यक्ति के अपने निर्णय की भी नहीं। वह बने हुए दड़बों में कैद रहने को अभिशप्त है।
फिरोज़ गाँधी मुसलमान है, नेहरू छिपा मुसलमान है, यह बचपन से सुनता आया हूँ। चूँकि वे ऐसे हैं, गाँधी परिवार में मिलावट है और वह विश्वसनीय नहीं है हिंदुओं के लिए। सोनिया गाँधी के आने के बाद सिर्फ़ धर्म की नहीं, देशों की भी मिलावट हो गई, संदेह और बढ़ गया। पारसी, ईसाई, इतालवी: इनके मिश्रण को हिंदू अपना कैसे मानें?
लेकिन राहुल ने जब शिव के प्रति भक्ति निवेदित की, तो फिर त्योरियाँ चढ़ गईं। यह नकली है, ढोंग है। यह अधिकार राहुल गाँधी को नहीं कि वह अपनी पहचान एक हिंदू देवता से कर सकें!
आशुतोष ने बताया था कि जब वे चुनाव में खड़े हुए तो उनकी पार्टी ने उनकी अनिच्छा के बावजूद मतदाताओं को बताया ही कि वे सिर्फ़ आशुतोष नहीं, गुप्ता भी हैं। यानी, मतदाताओं के एक हिस्से को उन्हें अपनाने का पर्याप्त कारण मौजूद है और वह उनके आख़िरी नाम से जाना जा सकता है।
तो अतिशी मरलेना से मरलेना को हटाने का तात्पर्य या आशय भारत के लिए क्या है?
कबीर का किस्सा
कबीर का किस्सा हम सब जानते हैं। मरने के बाद, उनके शरीर को जलाया जाए या दफ़नाया जाए, इस झगड़े के बीच जब देह के ऊपर पड़ी चादर हटाई गई तो नीचे देह की जगह फूल निकले। लेकिन कबीर नामधारी व्यक्ति की आज के भारत में क्या जगह होगी? अशोक वाजपेयी ने अपने बेटे कबीर के साथ हुई घटना बताई थी। ट्रेन में सफ़र करते वक़्त हमसफ़र ने नाम पूछा। कबीर सुनने पर माहौल बदल गया। फिर किताब पढ़ते कबीर कुछ वक़्त के लिए अपनी किताब छोड़ कर डब्बे से बाहर गए। लौटने पर सहयात्रियों में उत्साह और अपनापन था। किसी ने किताब उलट-पलट कर पहले पन्ने पर किताब के मालिक का नाम पढ़ लिया था: कबीर वाजपेयी। उन्होंने कबीर को प्यार से कहा कि उन्हें पूरा नाम बताना था न! जहाँ एक मिनट पहले अजनबीपन था, अपनेपन की गर्माहट भर गई। लेकिन कबीर को बेगानगी का अहसास होने लगा और उन्होंने डब्बा बदल लिया।
तो अतिशी बेचारी क्या करें? इस मुल्क़ में उन्हें चुनाव लड़ना है। हमारे मित्र विजय सिंह और तृप्ता वाही भी क्या करें? उनकी अंतरराष्ट्रीयता की आकांक्षा बेटी के लिए सरदर्द बन जाएगी, वे कहाँ सोच पाए थे?
या, फ़िराक के बारे में सोचें। अव्वल तो उनके चुनाव लड़ने के बारे में सोचा नहीं जा सकता, मगर फ़र्ज़ कीजिए कि वे यह फ़ैसला कर ही लेते तो क्या बयान जारी करते कि मेरे नाम से किसी धोखे में न रहिए, मैं हूँ दरअसल रघुपति सहाय!
इसलिए शेक्सपीयर की जगह शायद फिर हजारीप्रसाद द्विवेदी के पास ही जाना होगा: ‘नाम इसलिए बड़ा नहीं है कि वह नाम है। वह इसलिए बड़ा होता है कि उसे सामाजिक स्वीकृति मिली होती है। रूप व्यक्ति सत्य है, नाम समाज सत्य। नाम उस पद को कहते हैं जिसपर समाज की मुहर लगी होती है, आधुनिक शिक्षित लोग जिसे ‘सोशल सैंक्शन’ कहा करते हैं।’
किस नाम को समाज स्वीकार करेगा, इससे क्या सिर्फ़ नामधारी का या नाम का मूल्य तय होता है? समाज अगर किसी नाम से बिदक जाए तो क्या इससे समाज का मूल्य तय नहीं होता? क्या उस ‘सोशल सैंक्शन’ का चरित्र नहीं मालूम होता?
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