बाबरी मसजिद का साया हिंदू आस्था पर मंडराता रहेगा। यह तब तय हो गया जब राम मंदिर के निर्माण के लिए गठित न्यास के अध्यक्ष के रूप में नृत्य गोपाल दास और सचिव के रूप में विश्व हिंदू परिषद के उपाध्यक्ष चंपत राय की नियुक्ति की गई। अख़बारों और दूसरी जगह यह ख़बर तो छपी, लेकिन इसके महत्व पर कोई टिप्पणी नहीं दिखी।
ये दोनों ही सज्जन 6 दिसंबर, 1992 को बाबरी मसजिद के ध्वंस के अपराध की साज़िश में शामिल रहे हैं। सीबीआई ने इन दोनों को अभियुक्त बनाया और इनकी गिरफ़्तारी का आदेश अदालत ने दिया था। इन दोनों ने अदालत में समर्पण किया था। बाद में इन्हें ज़मानत पर छोड़ा गया था।
तो अब दो ज़मानती अभियुक्तों के नेतृत्व में राम मंदिर का निर्माण किया जाएगा। इससे हिंदुओं की धार्मिक भावना आहत होगी या नहीं? अब तक इसे लेकर किसी तरह की कोई अस्वस्ति का कोई प्रमाण हिंदू समाज के भीतर से नहीं मिला है।
यह सवाल उठाने पर कुछ झुँझलाहट ज़रूर दिखलाई पड़ी है। कब तक ‘राम मंदिर, राम मंदिर करते रहेंगे’ ऐसा कहते हुए लोग सुने गए हैं। यानी उन्हें इस व्यवस्था से कोई उज़र नहीं।
लेकिन यह दुबारा एक मौक़ा है इस पूरे प्रसंग में छिपी आपराधिक धोखाधड़ी पर विचार करने का।
हिंदू आस्था का अपमान?
बाबरी मसजिद राम मंदिर को तोड़कर उसके ऊपर बनाई गई थी। इस तरह यह न सिर्फ़ हिंदू आस्था का अपमान था बल्कि हिंदुओं को भी नीचा दिखाने की कार्रवाई थी। यही प्रचार कोई तीन दशकों तक किया गया। यह भी कि बाबरी मसजिद ठीक वहीं खड़ी है, जो राम जन्म स्थल है। यह प्रचारित किया गया कि राम जन्मभूमि हिंदू आस्था है।
हम जैसे लोग, जो हिंदू परिवारों में पैदा हुए और हिंदू परिवेश में पले बढ़े, याद करने पर भी नहीं याद कर पाते कि राम जन्मभूमि का ज़िक्र कभी भी हिंदुओं के लिए अनिवार्य पवित्र स्थलों में होता हो, जिनका दर्शन किया जाना चाहिए। यह आस्था पिछली सदी के अस्सी के दशक के उत्तरार्द्ध में गढ़ी जाने लगी। इसके सबसे बड़े प्रवक्ता लाल कृष्ण आडवाणी थे।
यादों का मलबा!
अब जब कि मसजिद मिसमार हुए ज़माना बीत चुका है और सिर्फ़ उसकी याद का मलबा बिखरा पड़ा है, हिंदू यह भी ईमानदारी से बताएँ कि रामलला जैसा कोई आराध्य उनका कब था। राम की इस रूप में पूजा होते क्या आपको याद है?
1949 की एक रात जो मूर्तियाँ मसजिद में चोरी-चोरी रख दी गयी थीं, वे क्या राम की प्रतीक थीं या एक राजनीतिक ताक़त का मोहरा?
मिथक बना सच
क्यों हमने इस मिथ को सच बन जाने दिया कि यह सब कुछ हिंदू आस्था का अंग था? आख़िरकार आडवाणी ने ही क़बूल किया कि इस पूरे अभियान में धर्म सिर्फ़ एक आवरण था, यह पूरी तरह राजनीतिक अभियान था। बाबरी मसजिद का ध्वंस किसी ऐतिहासिक अपमान का हिसाब-किताब न था, वह वर्तमान में उसे मुसलमानों का प्रतीक मानकर उसके ध्वंस के सहारे एक राजनीतिक संदेश देना था।
जब ईंटें इकट्ठा की जा रही थीं, तब भी ‘राम की जय’ से ज़्यादा मुसलमानों के ख़िलाफ़ नारे लगते थे। संदेश स्पष्ट था। बाबरी मसजिद के बहाने वे निशाने पर थे, जिन्हें ‘बाबर की औलाद’ कहकर पाकिस्तानी या क़ब्रिस्तान भेजने का इरादा ज़ाहिर किया गया।
झूठ की बुनियाद पर अभियान
इस अभियान में जो शामिल थे, वे अगर घृणा की बात न भी करें तो भी इससे इनकार नहीं कर सकते कि राम के नाम पर चलाया गया यह पूरा अभियान झूठ और धोखे की नींव पर खड़ा था।
अभियान चलानेवाले हिंदूजन से झूठ बोल रहे थे, उनके नेता अदालत से झूठ बोल रहे थे। शायद सरकारों को भी पता था और अदालत को भी कि यह झूठ है।
उत्तर प्रदेश सरकार जब लाखों की भीड़ से मसजिद को नुक़सान न होने देने का हलफ़नामा अदालत में भर रही थी तो क्या सचमुच हमारे न्यायाधीशों और केंद्र सरकार को उस पर यक़ीन था?
जिस सर्वोच्च न्यायालय ने मंदिर निर्माण का आदेश दिया, उसी ने पहले माना कि मसजिद तो 500 साल से वहाँ थी। यह भी कि उसके भीतर हिंदू देवताओं की मूर्तियाँ चोरी चोरी रखी गई थीं, कि मसजिद का गिराया जाना ग़ैरक़ानूनी और आपराधिक कृत्य था।
अब उस अपराध के अभियुक्त हिंदुओं की आस्था का पुनर्निर्माण करने जा रहे हैं। इसका रास्ता अदालत ने हमवार किया, शिशु राम के हितू के रूप में विश्व हिंदू परिषद के प्रतिनिधि को ज़मीन के दावेदार के रूप में मान्यता देकर, मसजिद के वजूद को क़बूल करने के बाद भी सिर्फ़ शांति बनाए रखने के लिए पूरी ज़मीन तथाकथित हिंदुओं को मंदिर के लिए देकर, मुसलमानों को उनके साथ नाइंसाफ़ी के बावजूद उस ज़मीन से बेदख़ल करके।
यह सब अपराध को क़ानूनी बनाने की कसरत थी। वह फल ले आई।
तो जो मंदिर बनेगा, इसमें हिंदू आस्था की किसी भी पवित्रता की जगह कहाँ है?
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