कुछ वर्ष पहले की बात है। अचानक मुझे 'वर्ल्ड ब्राह्मण कॉउंसिल' नामक संस्था से ईमेल आने लगी। फिर एक फोन आया। यह किसी दिसंबर की बात है। फोन करने वाले ने बतलाया कि आने वाली जनवरी के पहले हफ्ते में वे 'रन फ़ॉर वेदाज़' का आयोजन करना चाहते हैं और इसी सिलसिले में उन्होंने मुझे फ़ोन किया है। वेदों के लिए दौड़ने की बात कुछ अटपटी लगी। स्वास्थ्य के लिए दौड़ना समझ में आता है। पिछले कुछ वर्षों से देखता हूँ, कुछ सामाजिक मसलों के लिए दौड़ होने लगी है।
'रन फ़ॉर यूनिटी'!
दौड़ के जरिए जनजागरण किया जाता है या लोगों को उस विषय को लेकर जागरूक बनाया जाता है। इस सरकार के आने के बाद 2014 में अपने तत्कालीन कुलपति को 31 अक्टूबर को दौड़ लगाते देखा। ध्यान गया सरदार पटेल की जयंती है। सरकार ने उस दिन एकता के लिए दौड़ने के लिए कहा था। 'रन फ़ॉर यूनिटी'!
2014 के पहले भी 31 अक्टूबर की तारीख हर साल आती रही थी। कुलपति सुशिक्षित व्यक्ति हैं। देश की एकता की आवश्यकता और पटेल से जन्मदिन के अन्योन्याश्रय संबंध का ज्ञान उन्हें सरकार के बतलाने पर ही हो, यह मानना कठिन है।
हाँ! यह कहा जा सकता है कि इसके लिए दौड़ना चाहिए, यह इसके पहले उन्होंने नहीं सोचा होगा। अगले साल वे नहीं दौड़े और कुलपति रह जाने के बाद तो कतई नहीं।
उसी साल 2 अक्टूबर को सरकार के कहने पर झाड़ू लेकर आर्ट्स फ़ैकल्टी का चक्कर लगाते देखा। फिर नहीं। या तो स्वच्छता और एकता का बोध देश के पोर-पोर में समा गया होगा, उस वर्ष और फिर देश को जगाने की ज़रूरत नहीं रह गई होगी या दूसरे और ज़रूरी विषय आ खड़े हुए होंगे जिनके लिए दौड़ना पड़े।
'रन फ़ॉर वेदाज़' कानों को खटकता है। लेकिन इस पर भी सोचता रहा हूँ कि भारत की जनता को जगाने के लिए उसे 'रन' करने को कहना कितना राष्ट्रवादी है। लेकिन रन जिस भाषा का शब्द है, उसका राष्ट्रीयकरण तो हमने कर ही डाला है।
वेदों को लेकर नकारात्मक बातें?
तो, 'रन फ़ॉर वेदाज़' प्रसंग पर लौट आएँ। मैंने फ़ोन के दूसरे छोर पर जो भी वेदों के शुभेच्छु थे, उनसे पूछा कि वेदों के लिए दौड़ना क्यों? उन्होंने मुझे जो समझाया उसका लब्बो लुआब यह था कि वेदों को लेकर समाज में कई तरह की नकारात्मक बातें प्रचारित हैं। जनता को वेदों के प्रति जागरूक करना अत्यावश्यक है। इसीलिए यह सार्वजनिक दौड़ प्रस्तावित है।
मैंने जानना चाहा कि आखिर कौन है जो वेदों को लेकर यह भ्रम फैला रहा है, जनता को उस तरफ जाने से रोक रहा है। बार-बार एक नाम लेने को कहने पर वे बोले- रोमिला थापर।
रोमिला कैसे और क्योंकर भारतजन को वेदविमुख करेंगी, समझना दुष्कर था। लेकिन अतर्क का भी एक तर्क होता है। वे माने बैठे थे कि रोमिला थापर साजिशन ऐसे गिरोह में शामिल हैं जो वेदों के विषय में दुष्प्रचार करते रहा है और उनके प्रभाव से भोले-भाले लोग वेदों से दूर हो गए हैं।
वेदों के लिए बैठना होगा
हाजिर जवाब होने का इल्ज़ाम मुझ पर मेरे करीबी दोस्त भी नहीं लगा सकते लेकिन उस वक्त मैंने उनसे कहा कि देखिए, अगर आपको वेदों को लेकर गलत धारणाओं को मिटाना है तो दौड़ने की जगह बैठना पड़ेगा। तो वेदप्रेमी दौड़ाक खोजने की जगह आप ऐसे लोगों की तलाश करें जो दिन ही नहीं हफ्ते ही नहीं, सालों-साल बैठने को तैयार हों।
वह फ़ोन वार्ता और आज का दिन। लगता है मेरे अजाने मित्र ने मेरा नाम अपनी फ़ेहरिस्त से उसी वक़्त काट दिया। यह प्रसंग लेकिन मेरी याद में अटका रह गया। इस बीच गंगा और सूख गई और यमुना में और प्रदूषण का झाग भर गया।
देश के सभी शिक्षा केंद्रों में अब वैसे वेद प्रेमियों का बोलबाला है जो वेद के लिए दौड़ लगा देंगे लेकिन बैठने के नाम पर उनके प्राण सूख जाएँगे। इन 7 वर्षों में एक भी ऐसा ग्रंथ प्रकाशित नहीं हो पाया जिससे वेद की महिमा बढ़े।
अब दक्षिणपंथियों की बारी!
इस बीच अपने कई मित्रों को कहते सुना कि ग़लती हमारी भी है। इन 70 धर्मनिरपेक्ष वर्षों में दक्षिणपंथी भारतप्रेमी बौद्धिकता को कहीं ठौर नहीं दी गई। वामपंथियों ने विद्वत्ता की सारी जगहें हथिया लीं और राष्ट्रवादियों को देश निकाला दे दिया।
अब उनकी बारी है। अगर वे पिछले अन्याय की स्मृति के कारण प्रतिशोध ले रहे हैं तो यह स्वाभाविक ही है। सुनने में कितना ही ठीक जान पड़े, क्या यह सच है? क्या दक्षिणपंथी बौद्धिकता के विरुद्ध षड्यंत्र किया गया और उसे उसके प्राप्य से वंचित किया गया?
आरोप सिर्फ भारत में ऐसा हो, यह नहीं। और मुल्कों में भी शिकायत की जाती है कि बौद्धिक जगहें वामपथियों ने घेर ली हैं और दक्षिणपंथियों को घुसने नहीं दिया है। अगर शिक्षा और विद्वत्ता का सारा स्थान वामपंथियों ने छेंक रखा है तो अभी अचानक इतने सारे दक्षिणपंथी अध्यापक कैसे दिखलाई पड़ने लगे हैं? क्या वे अवसरवादी हैं?
दक्षिणपंथी विचार के प्रभाव का एक प्रमाण हमारे समाज में है। लगभग 60 साल के धर्मनिरपेक्ष शासन के बावजूद और 'वामपंथी' इतिहासकारों किताबों के पाठ्यक्रम में होने के बाद भी आम तौर पर इतिहास की समझ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के अनुकूल ही रही है।
हिंदी की स्कूली शिक्षा पर जिन्होंने ध्यान दिया है, वे प्रायः हिंदी अध्यापकों के शुद्धतावाद से भी परिचित हैं और उर्दू शब्दों के प्रति उनके विराग से भी। यह तो विशुद्ध दक्षिणपंथ है। क्या यह चोरी-चोरी पनप रहा था? या यह भूमिगत था?
यह बात कुछ लोगों को सतही लग सकती है लेकिन है विचारणीय कि यदि दक्षिणपंथी विचारों को बहिष्कृत कर दिया गया था तो ऐसे अध्यापक कैसे बने रहे और इतिहास और भाषा का सामान्य बोध भी क्यों उदार न बन सका? संस्कृत के बारे में भी हमारा सामान्य बोध दक्षिणपंथी ही कहा जाएगा। यह कैसे हुआ होगा?
फिर भी पिछले कई दशकों में बार-बार यह शिकायत की गई है। लेकिन मौक़ा मिलने पर देखा गया है कि जो कुछ भी बौद्धिक 'सृजन' दक्षिणपंथ की तरफ से किया जाता है, वह सतही और शोध के मानकों पर खोटा साबित होता है।
तो आप न पद्धति पर सवाल उठा सकते हैं न प्रक्रिया पर क्योंकि सब कुछ विश्वास का मामला हो जाता है। तो वेदों पर किसकी बात मानी जाए? उसकी नहीं जिसने उसे पढ़ने, समझने, उसके अध्ययन की परंपरा को आलोचनात्मक तरीके से देखने में बरसों लगाए हैं बल्कि उनकी जो उन्हें सारे ब्रह्मांड के सम्पूर्ण ज्ञान का आदिस्रोत मानते हैं।
अगर आप ऐसा न करें तो आप पर आरोप लग सकता है कि आप अपने अध्ययन के जरिए वेद का अवमूल्यन करना चाहते हैं।
तर्क नहीं बाहुबल का सहारा
इस हीनताभाव के कारण सत्ता हाथ में आने के बाद यह दक्षिणपंथी समूह आक्रामक हो उठा है। वह अपनी बात तर्क से नहीं, शासनादेश से और बाहुबल से स्थापित करना चाहता है। वह अध्ययन के लिए आसन जमाने की जगह भारत महान का ध्वज लेकर सिर्फ दौड़ना चाहता है। यह तय हमें करना है कि हम ज्ञान के लिए बैठें या दौड़ें।
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