भारत में अभी नागरिकता की कक्षाएँ चल रही हैं। शाहीन बाग़ में, खजूरी में, घंटा चौक में, सब्ज़ी बाग़ में, लाल बाग़ में, मुस्तफाबाद में, रखियाल में। इन कक्षाओं की अध्यापक औरतें हैं और उनमें भी अनेक जो उस भाषा में शिक्षित नहीं कही जा सकतीं जिसकी हमें आदत है। ये सब कामकाजी औरतें हैं, अगर हम यह न भूलें कि घरेलू काम भी एक काम है जिसकी तनख्वाह कभी नहीं दी जाती।
ये औरतें घरों की चौखट लाँघ आई हैं इसलिए कि इस बार सरकार का हमला उनके वजूद पर हुआ है और उसे उन्होंने महसूस किया है। वे जो ज़ुबान बोल रही हैं उसे राजनीतिक कहा जाना चाहिए। गाँधी के नेतृत्व के भारतीय उपनिवेशवाद विरोधी आन्दोलन के बाद क्या हम कह सकते हैं कि यह औरतों की सबसे बड़ी राजनीतिक गोलबंदी है? इस बार लेकिन कोई गाँधी नहीं है।
हम यह भी लगे हाथ कह लें कि ये मुसलमान औरतें हैं। तो मुसलमान औरतों के इस तरह मुखर होने पर हमें खुश होना चाहिए या चिढ़ जाना चाहिए?
मुझसे शाहीन बाग़ में एक औरत ने पूछा, “आरिफ़ मोहम्मद ख़ान कहाँ हैं?” यह सवाल बहुत व्यंजक था। आरिफ़ साहब शाह बानो प्रसंग के कारण ही मशहूर हुए। उस वक्त वह कट्टरपंथी मुसलमानों के ख़िलाफ़ मुसलमान औरतों के हक़ की तरफ़दारी करने वाले शख्स के तौर पर जाने गए थे। आज तक उनकी राजनीतिक पूँजी कुल यही है। अपने समाज की कूढ़मग्ज़ी से वह इस कदर ख़फा हुए कि उसे सबक सिखाने भारतीय जनता पार्टी में चले गए।
मुसलिम औरतों की हितैषी है बीजेपी!
वह औरत शायद यह कहना चाहती थी कि अब जब हम मुसलमान औरतें सड़क पर हैं और ख़ुद बोल रही हैं, बिना मर्दों के सहारे बोल रही हैं तो हमारे हितचिंतक कहाँ हैं! ख़ान साहब को छोड़ दें तो मुसलमान औरतों की दूसरी बड़ी हितैषी खुद ख़ान साहब की भारतीय जनता पार्टी बनती है। तीन तलाक़ जैसे “ख़तरनाक मुसलमान औरत विरोधी” रिवाज के ख़िलाफ़ क़ानून बना कर उसने ऐतिहासिक काम किया है, यही तो वह बार-बार कह रही है। वह उनकी मुक्तिदाता है! यह बिलकुल अलग बात है कि ख़ुद मुसलमान औरतें इस क़ानून में छिपे धोखे को अच्छी तरह पहचानती हैं। यह जितना उनकी चिंता से नहीं उतना मुसलमान मर्दों को बेइज्जत करने के ख्याल से लाया गया क़ानून है, इस बात को एक साधारण मुसलमान औरत एक शिक्षित व्यक्ति से कहीं बेहतर जानती है।
लांछन लगा रहे लोग
अब वह मुसलमान औरत जब खुले मुँह और नक़ाब, हिजाब और बुर्के, सबके साथ सड़क पर है तो उसे तरह-तरह से लांछित किया जा रहा है कि वह पांच सौ रुपये रोज़ाना लेकर धरने में आ रही है, कि उसे मुफ्त बिरयानी मिल रही है, इस वजह से वह बाहर है, आदि, आदि। यह तो पहले कहा ही गया कि भोली-भाली औरतें बहका ली गई हैं अपने मर्दों के द्वारा और वे बेचारी क़ानून की बारीकियाँ क्या समझें!
वैसे इस क़ानून में कुछ भी बारीक नहीं है, इसमें मुसलमानों के प्रति दुराव इतना है कि उसे सहज बुद्धि से ही समझ लिया जा सकता है।
औरत के मुखर होने पर आम तौर पर मर्दों के भीतर हिंसा पैदा होती है। इस बार मर्द उनकी मदद कर रहे हैं। इस पर बीजेपी के नेताओं का यह कहना है कि औरतों को ढाल बनाकर आगे रखा जा रहा है। मानो औरतें कभी अपने दिमाग से, आज़ादख्याली से सोच ही नहीं सकतीं!
जो मुसलमान औरतों को आज़ाद करने की बात करते हैं, उन्हें याद कर लेने की ज़रूरत है कि जब औरतों ने बोलना शुरू किया तो हमारे उन पुरुषों ने कैसा बर्ताव किया जिन्हें हम अपना आदर्श मानते हैं! पंडिता रमाबाई को लोकमान्य तिलक का विरोध सहना पड़ा। युवकों के आदर्श स्वामी विवेकानंद के समर्थकों का रोष रमाबाई पर इसलिए बरस पड़ा कि वे अमरीका में भारतीय, हिंदू औरतों की दुर्दशा पर भाषण दे रही थीं।
मुसलमान मर्द का दिमाग कोई विलक्षण नहीं, वह भी मर्द का दिमाग है। इसलिए वह औरत को अगर आज्ञाकारी, सुघड़ गृहिणी, आदर्श योग्य माता के तौर पर प्रशिक्षित करना चाहता है तो क्या ताज्जुब है! भारतेंदु हरिश्चंद्र हों या डिप्टी नजीर या मौलाना अशरफ अली थानवी जिनकी किताब “बहिश्ती ज़ेवर” स्त्रियों की अनिवार्य पाठ्यपुस्तक थी।
मुसलमान औरतों के पिछड़ेपन और मर्दों की गुलाम की जो छवि बीजेपी प्रचलित करना चाहती है और जिसमें ढेर सारे लोग यकीन करते हैं, वह कितनी भ्रामक है, यह पिछली सदी को पलट कर देखने पर ही मालूम हो जाता है। पूर्वा भारद्वाज ने कोई दस बरस पहले एक किताब संपादित की थी, “कलामे निस्वाँ”। यह आज से कोई सौ साल पहले उर्दू पत्रिकाओं में छपी ऐसी चुनी हुई रचनाओं का संकलन है जो मुसलमान औरतों ने लिखी थीं। इन पर सरसरी नज़रसानी से मालूम हो जाता है कि मुसलमान औरत मर्दों की गिरफ्त में जकड़े हुए वक्त में कितनी आज़ादी से सोच रही थीं।
‘तहज़ीबे निस्वां’ में 1927 में एक बिना नाम के छपे एक लेख में अलबानिया के सफ़र का ब्यौरा है। उसका एक हिस्सा पढ़िए और लेखिका का नज़रिया समझिए, “तुर्की हुकूमत का जुवा उतार फेंकने के बाद मस्तूरात अपनी हालत की तरफ मुतवज्जो हुईं। दौराने जंग में अमरीका की अंजुमन “सलीबे अहमर” ने मुल्क में जगह-जगह खैराती मरकज़ कायम कर दिए। तो उन्हें भी महसूस होने लगा कि अभी हमारे सामने किस क़दर काम पड़ा है। सलीबे अहमर तो चली गईं, लेकिन तराना में उसकी यादगार एक सनअती स्कूल हमेशा कायम रहेगा।...जो इस स्कूल से मुल्हिक हैं, वे अपनी दूसरी बहनों को जिन्हें आज़ादी नसीब नहीं हुई तरगीब देती हैं कि अपनी सेहत की हिफाज़त के लिए बुर्क़ा उतार फेंको और मुल्क में तरह-तरह की बीमारियों ने जो तूफ़ान खड़ा कर रखा है उसका मुक़ाबला करने में हमारा हाथ बँटाओ...।”
वह आगे लिखती हैं, “...अब एक औरतों का सियासी क्लब भी कायम हो गया है। जिसके अरकान की तादाद तीन सौ है। इस क्लब की सदर ऐडोशकिया जर्मन जी हैं।...वे एक माहवार रिसाले की एडिटर भी हैं।... “हमारी सबसे बड़ी ज़रूरत तालीम है”, ये अल्फ़ाज़ कहते वक़्त ऐडोशकिया की आँखों में आँसू डबडबा आए।”
इन आँसुओं को जो निगाह देखती और दर्ज करती है, उसकी तीक्ष्ण संवेदनशीलता को कैसे न महसूस किया जाए! इस एक छोटे से लेख में सियासत और तालीम के बीच का रिश्ता और औरतों के लिए सियासत की अहमियत की समझ की झलक मिलती है।
एक दूसरा दिलचस्प लेख है, “अंग्रेजी और हिन्दुस्तानी बेगमात का मेलजोल।” 1909 में प्रकाशित इस लेख में सुल्तान बेगम अंग्रेज़ औरतों से मेलजोल की वकालत करती हैं, “मिलने में कुछ रेस से, कुछ शरमा-शरमी से अपनी हालत को खुद सलीके से बदलेंगी। अभी तो हमें सिवाय खाने-खाने और उम्दा से उम्दा कपड़े और ज़ेवर पहन लेने के और दुनिया के किसी मामले की खबर ही नहीं।”
इस मेल-जोल में लेकिन बराबरी रहनी चाहिए, “बहुत सी बीबियों को मैंने देखा है कि अंग्रेज़ बीबियों से ऐसी गिरकर मिलती हैं कि चाहे वे हिक़ारत से भी बोलें, मगर बुरा मानने के बजाय हँसकर चुप हो जाएँगी। और कुछ जवाब न देंगी कि कहीं ख़फ़ा होकर मिलना न छोड़ दें। मिशनरियों से पढ़ेंगी तो भी यही हाल है। वे मज़हब पर कितने ही तूफ़ान लगाएँ ख़ामोशी से सुनती रहेंगी। मिशनरियों को जबकि फ़ीस दी जाए तो फिर क्यों दबकर गुज़ारा करें। हमको इनसे मिलने में बराबरी का तरीक़ा इख्तियार करना चाहिए...अगर हम इनसे खुद्दारी से मिलेंगी तो इसमें उनकी नज़र में हमारी वक़अत होगी।”
अंग्रेज़ औरतों से मिलने की बात करने वाले इस लेख में इसपर दुख व्यक्त किया गया है कि हिंदू और मुसलमान औरतें आपस में भी नहीं मिलतीं! “...जो एक मुल्क में रहने वाले हैं उनमें आपस में मिलने का ख़याल भी नहीं आता। आपस में मुल्की बीबियों को भी चाहे किसी मजहब की हों मिलना चाहिए...।” यह कमी आज भी है, यह दुराव आज भी है।
शाहीन बाग़, सब्ज़ी बाग़, लाल बाग़ में जो औरतें बाहर बैठी हैं, वे सुल्तान बेगम की वारिस हैं। वे जो सियासत कर रही हैं, वह बिना मुल्की बीबियों के आपसी मेलजोल के मुमकिन नहीं। क्या ताज्जुब कि हमारी नौजवान औरतें, जो हिंदू भी हैं और सिख भी, आदिवासी हैं और ईसाई भी, वे सबकी सब इन दिशाओं में जाती दीख रही हैं।
यह सियासत मुसलमानों की खुद्दारी की तो है ही, सबके मेलजोल की भी है। जो इसका मज़ाक उड़ाए, इस पर छींटाकशी करे उसकी क्षुद्रता की इस वक्त चर्चा ही क्यों करनी! ये खुद्दार औरतें ही सरकार को कह सकती हैं कि वह हव्वा नहीं है। 1919 में ‘उस्तानी’ पत्रिका में अलीगढ़ की अज़ीज़ा ख़ातून के लेख का शीर्षक ही है, “गवरमेंट हव्वा नहीं है.”। वह लिखती हैं और इसपर खासकर ध्यान देना चाहिए कि अगर मन में शैतानी न हो, दुश्मनी का ख़याल न हो तो ऐतराज़ और नुक्ताचीनी बुरी चीज़ नहीं बल्कि उससे फ़ायदा ही होता है।
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