किसी भी कीमत पर व्यक्तिगत या निजी स्वतंत्रता की रक्षा की जानी चाहिए। प्रताप भानु मेहता ने फ्रांस में ‘शार्ली एब्दो’ पत्रिका के द्वारा हज़रत मुहम्मद साहब के कार्टूनों के छापे जाने के बाद हुई हिंसा और फिर उसपर चल रहे विवाद के सन्दर्भ में लिखते हुए इस पर ज़ोर दिया है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की कोई सीमा नहीं हो सकती।
अल्पसंख्यकों के सन्दर्भ में भी कोई संरक्षणवादी रवैया नहीं अख़्तियार किया जाना चाहिए। उनके मुताबिक़, जैसे ही इस मामले में हम कोई हदबंदी करने लगते हैं, उन सारे व्यक्तियों के साथ हम नाइंसाफी कर रहे होते हैं जो ईशनिंदा को लेकर बनाई गई जकड़नों से लड़ रहे हैं और उनसे आज़ाद होने की कोशिश कर रहे हैं।
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फ़िल्म पर विवाद
मसलन ईरान में कुछ वक़्त पहले बनी एक फ़िल्म में मुहम्मद साहब के चित्रण को लेकर विवाद खड़ा हो गया था। मशहूर निर्देशक माजिद माजीदी की फ़िल्म ‘मोहम्मद, खुदा के पैगंबर’ पर पाबंदी लगाने की माँग चारों तरफ से उठ रही थी।विडंबना यह है कि माजीदी के मुताबिक़ उन्होंने यह फ़िल्म आज जो इसलाम के ख़िलाफ़ विद्वेष है, उसका मुक़ाबला करने के लिए बनाई है। अरब देशों के सुन्नी नेता ईरान से इस फ़िल्म पर पाबंदी की माँग कर रहे हैं। भारत में भी पाबंदी की माँग की गई है।
हालाँकि कई मुसलिम बुद्धिजीवियों और विद्वानों ने इस फ़िल्म को दिखलाए जाने के पक्ष में भी बयान दिया है। इस फ़िल्म में कोई अभिनेता मुहम्मद साहब का अभिनय करता हुआ नहीं दिखलाया गया है।
सीरियाई फ़िल्म
इस विवाद से कोई 40 साल पहले सीरियाई मूल के हॉलीवुड के निर्देशक मुस्तफ़ा अकाद की महत्त्वाकांक्षी फ़िल्म ‘द मैसेज (पैगाम)’ की याद आ गई। इस फ़िल्म का नाम भी ठीक वही था, जो माजीदी की फ़िल्म का है। लेकिन उस वक़्त फ़िल्म के नाम को लेकर ही इतना विवाद हुआ कि नाम से भी मुहम्मद हटा दिया गया।अकाद ने यह महाकाव्यात्मक फ़िल्म इस मक़सद से बनाई थी कि इसलाम को लेकर पश्चिमी दुनिया में समझ बन सके। लेकिन इसे भारी विरोध का सामना करना पड़ा और इसके परदे पर आते ही कम से कम एक हिंसक वारदात वाशिंगटन में हुई। निर्देशक चाहते थे कि उनके दर्शक मुहम्मद साहब को एक इंसान की तरह महसूस करें। लेकिन वे इस इस्लामी रवायत की इज्ज़त भी करते थे कि मुहम्मद साहब का चित्रण नहीं किया जाना चाहिए।
मुसलमान छुईमुई नहीं
प्रताप के अनुसार, हमें मानकर चलना चाहिए कि गाहे बगाहे इस प्रकार की अभिव्यक्ति भी हो सकती है जो हज़रत की शान में गुस्ताख़ी मालूम पड़े। उसे सह लेना चाहिए या नज़रअंदाज कर दिया जाना चाहिए। मुसलमानों को कुछ खास प्रकार की अभिव्यक्तियों से बचाया जाना ही चाहिए, प्रताप के मुताबिक़ यह एक तरह का मुसलमान-विरोधी विचार ही है।एक तरह से यह मान लेना है कि वे ज़रूरत से ज्यादा संवेदनशील हैं और छुईमुई हैं। वे इतने कमजोर हैं कि इस तरह की चीज़ों से विचलित हुए बिना नहीं रह सकते। इस तरह वे ईसाइयों और हिन्दुओं, आदि से कमतर इंसान हैं।
उनकी आस्था में उदारता नहीं है; इस प्रकार के विचार मुसलमानों के बारे में प्रचलित हैं। फ्रांस और दूसरे देशों में हुई हिंसा के लिए कोई भी कारण या तर्क खोजना ख़तरनाक है।
अभिव्यक्ति के मामले में किसी भी तरफ की हद खींचे जाने के परिणाम अदेखे भी हो सकते हैं। अनेक प्रकार की संवेदनशीलताएँ एक दूसरे से प्रतियोगिता करती हुई दिखलाई पड़ेंगी। किसी समूह की संवेदना को दूसरे से कम सुरक्षा का पात्र क्यों माना जाए?
प्रताप ने हाल में गुजरात में एक दलित वकील की हत्या का उदाहरण दिया है, जिनके फेसबुक पोस्ट से ब्राह्मणों की संवेदना को चोट पहुँचने का आरोप लगाया गया। फिर इस हत्या के लिए भी ब्राह्मण संवेदना को चोट पहुँचने का तर्क पेश किया जा सकता है।
अभेद्य संवेदना
आज की दुनिया में किसी भी भावना या संवेदना के लिए अभेद्य सुरक्षित भूगोल बनाना कठिन है। टेक्नोलॉजी ने मुमकिन कर दिया है कि अब हर चीज़ सार्वजनिक बनाई जा सकती है और उसे उसके संदर्भ से काट कर प्रसारित किया जा सकता है या उसे नितांत संदर्भ दिया जा सकता है।जो बहस क्लास रूम या एक स्कूल तक सीमित रहनी चाहिए थी, वह पूरी दुनिया की बना दी गई और उसमें वे लोग हिस्सा लेने लगे जो अध्यापक सैमुअल पैती का दृष्टिकोण जान नहीं सकते थे या उसमें उनकी कोई रुचि भी न थी या उसकी योग्यता भी उनके पास न थी। पैती वह नहीं कर रहे थे जो शार्ली एब्दो ने किया था।
लेकिन पैती की क्लास का संदर्भ बदल दिया गया। प्रताप के अनुसार यह नहीं किया जा सकता कि पैती के अभिव्यक्ति के अधिकार की तो आप वकालत करें, लेकिन शार्ली एब्दो को उससे वंचित कर दें।
अभिव्यक्ति की आज़ादी
अभिव्यक्ति की आज़ादी असीमित ही हो सकती है।प्रताप का यह कहना ठीक है कि हमारा काम यह नहीं हो सकता कि धर्म क्या है और कैसा हो, यह हम बताएँ, जैसा फ्रांस के प्रमुख मैक्रों करने की कोशिश कर रहे हैं। धर्म सुधार हमारा काम नहीं हो सकता। हम इतना ही कर सकते हैं कि एक साझा समाज में साथ रहने के उसूल और दस्तूर क्या हों, इसपर बात करें।इसका जो सरल अर्थ है, वह यह कि मूर्खता, बदतमीजी, बचकानेपन और फूहड़पन को नज़रअंदाज करना हम सीखें। यह शायद इसलिए कि वह स्वर्णिम काल कभी नहीं आएगा जब इन निम्न वृत्तियों से मानव समाज पूरी तरह से मुक्त हो जाए। इस प्रस्ताव से असहमति नहीं हो सकती। लेकिन बात यहाँ ख़त्म भी नहीं हो सकती।
जब हम अभिव्यक्ति की अबाधित स्वतंत्रता की माँग करते हैं तो यहाँ इसपर भी विचार किया जाना चाहिए कि अभिव्यक्ति के क्षेत्र में अनेक प्रकार की असमानताएँ हैं।
आशिस नंदी का मामला
कुछ साल पहले एक साहित्य उत्सव में दलितों और भ्रष्टाचार के बीच की आनुपातिकता को लेकर आशिस नंदी के एक वक्तव्य के विरुद्ध दलित समुदाय के कुछ बुद्धिजीवियों की तरफ से विरोध जताया गया और उनपर मुक़दमा भी दायर कर दिया गया। हम सबने उस समय यह कहकर आशिस नंदी का पक्ष लिया था कि क़ानून के डंडे की जगह उनकी अभिव्यक्ति का उत्तर अभिव्यक्ति से दिया जाना चाहिए।आख़िर वे सिर्फ अभिव्यक्ति के अधिकार का इस्तेमाल कर रहे थे और जो उनसे असहमत हैं, उन्हें भी यह अधिकार है। इसके जवाब में एक बात कही गई जो मुझे याद रह गई है। वह यह कि इस प्रस्ताव में ही खोट है। आशिस की अभिव्यक्ति के जवाब में दलित कभी उनकी बराबरी नहीं कर सकेंगे। इसलिए कि एक तो उनके पास इतने मुखर स्वर नहीं हैं, दूसरे अभिव्यक्ति की सारी जगहें उनको उपलब्ध नहीं हैं। इसलिए वे आशिस नंदी की अभिव्यक्ति का उत्तर उसी प्रकार नहीं कर सकते। इसके अलावा, उन्हें जो अपमान महसूस हुआ है, अगर वे उसे अभिव्यक्त करें तो भी कम समझदार माने जाएँगे!
असमानता
इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि इस प्रकार की असमानता हर जगह है। एक अभिव्यक्ति हमेशा ही बहुसंख्यक की होती है जो सार्वजनीन होने का दावा करती है। उसके मुक़ाबले की आवाज़ संकुचित हो जाती है। इसलिए सभी समाज नियंत्रण के उपाय करते हैं।भारत में आप दलितों, स्त्रियों के विरुद्ध अपमानजनक अभिव्यक्ति नहीं कर सकते। और उसका एक कारण यह भी है कि वे असमानता के शिकार हैं।
शार्ली एब्दो की अभिव्यक्ति
फ्रांस में ‘शार्ली एब्दो’ को आधिकारिक फ्रांसीसी अभिव्यक्ति ठहराया जा रहा है। साफ़ है कि इसमें उन लाखों मुसलमानों को धृष्टतापूर्वक बाहर कर दिया गया है जो हिंसा के ख़िलाफ़ हैं, लेकिन जो ‘शार्ली एब्दो’ की अभिव्यक्ति को साझा नहीं करते बल्कि उससे अपमानित महसूस करते हैं। इतनी बड़ी जनसंख्या को फ्रांस के राष्ट्रपति ने आखिर किस अधिकार से नज़रअंदाज कर दिया? फ्रांसीसी अभिव्यक्ति किसकी अभिव्यक्ति रह गई?दूसरे, जिनके पास अभिव्यक्ति के साधन और अवसर हैं, उन्हें अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के साथ उसके उत्तरदायित्व को भी न भूलना चाहिए।
अभिव्यक्ति का मक़सद समाज में एक दूसरे के प्रति सद्भाव पैदा करना, बढ़ाना ही होना चाहिए। एक की अभिव्यक्ति को हमेशा ही दूसरे की अभिव्यक्ति का सहारा बनना चाहिए। उसे वाक् रुद्ध करना नहीं।
व्यक्तिगत स्वतंत्रता की किसी भी कीमत पर हिफ़ाजत की ही जानी चाहिए। लेकिन जब एक बड़ा हिस्सा हो जिसे व्यक्ति होने का अधिकार और गरिमा न दी जाए, जिसके स्वतंत्र मत को उसकी किसी सामूहिकता या सामुदायिकता में शेष कर दिया जाए तो फिर यह प्रश्न भी बना ही रह जाता है कि क्या हर किसी को व्यक्तिमत्ता का अधिकार उपलब्ध है। ये प्रश्न कठिन हैं। इनकी आड़ में हिंसा को जगह नहीं दी जा सकती, लेकिन इनपर बात करना ज़रूरी तो है ही।
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