अतिशी मरलेना को प्रेस के ज़रिए जनता को बताना पड़ा कि मेरा नाम अतिशी मरलेना है, लेकिन इससे भ्रम में न पड़ जाइए कि मैं ईसाई या यहूदी हूँ, मैं पूरी हिंदू हूँ, बल्कि और भी पक्की क्योंकि मैं क्षत्रिय हिंदू हूँ। दुष्प्रचार के झाँसे में न आइए।
बेगूसराय में बाहर से गए लोग यह देखकर लौट रहे हैं कि कन्हैया को उन्हीं का समर्थन नहीं मिले शायद जिन्हें पारंपरिक तौर पर अपना जन कहा जाता है। तो कन्हैया के जीतने की उम्मीद कितनी है?
हमें ऐसी राजनीति को परास्त करना होगा जो जुनैद या अलीमुद्दीन के क़ातिल पैदा करती है। हमें सरकार के विरोधी रवैए के बावजूद इंसाफ़ के लिए आख़िरी दम तक लड़ना होगा।
आडवाणी ने कहा है कि बीजेपी अपने विरोधियों या आलोचकों को कभी राष्ट्रविरोधी नहीं कहती। लोग कहने लगे कि वह उदार नेता हैं, लेकिन क्या वे भूल गये कि आडवाणी का रथ जिधर से गुज़रा वहाँ ख़ून की लकीरें खिंच गयीं?
कन्हैया के चुनाव लड़ने की घोषणा होते ही कन्हैया के ख़िलाफ़ घृणा अभियान शुरू हो गया है। यह राष्ट्रवादियों की ओर से नहीं, ख़ुद को वामपंथी कहनेवाले और दलित या पिछड़े सामाजिक समुदायों की ओर से है। ऐसा क्यों?
प्रोफ़ेसर कृष्ण कुमार ने इसलामोफ़ोबिया शब्द के इस्तेमाल को ग़लत बताया। उनका कहना है कि यह शब्द उस मनोवृत्ति को व्यक्त नहीं करता जो अभी पूरी दुनिया में अलग-अलग रूप में प्रकट हो रही है। क्या सच में ऐसा है?
जैसे यहूदी विरोध आपके भीतर संस्कार की तरह सोया रहता है, वैसे ही मुसलमान विरोध भी। इसे इसलामोफ़ोबिया कहा गया है। कुछ विद्वानों का कहना है कि लोगों के भीतर मुसलमानों को लेकर तरह-तरह के पूर्वग्रह हैं।
मुखीम कोर्ट के निर्णय की रिपोर्ट करके सिर्फ़ अपने धर्म का निर्वाह कर रही थीं। जनतांत्रिक मूल्यों को लेकर ऐसी प्रतिबद्धता राष्ट्रीय संपादकों में शायद ही देखी जाती है।
सीमा के इस और उस पार से कुछ घरों से विलाप उठ रहा है। लेकिन यह विलाप राष्ट्रीय शोक का विषय नहीं बन पाता क्योंकि वह युद्ध में गोलियाँ चलाते लोगों की ‘शहादत’ नहीं है।
यह धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र की जगह अब एक 'मुसलमान-शंकालु' राष्ट्र में तब्दील हो रहा है। धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र का मतलब सिर्फ़ एक क़ानूनी अवस्था नहीं। उसका मतलब था, अलग-अलग समुदायों का साथ जीने का एक तरीक़ा।
जिस तरह यह अधिनायकवादी बहुसंख्यकवाद एक-एक कर सारी जनतांत्रिक संस्थाओं को ध्वस्त कर रहा है, वह अगर जारी रहा तो अभी तो राजनीति की दिशा ही बदलती दीखती है, देश के बदलते देर नहीं लगेगी।
आनंद तेलतुमडे फिर से आज़ाद हैं। ऐसे लोगों का आज़ाद रहना हमारी आज़ादी के लिए अनिवार्य है। वह इसलिए कि आधुनिक समय जनतंत्र का है जिसकी बुनियाद विचार की आज़ादी है।