पश्चिम बंगाल के श्यामपुकुर विधान सभा क्षेत्र से भारतीय जनता पार्टी के उम्मीदवार संदीपन बिस्वास चुनाव प्रचार करते हुए वाम दलों के नेताओं के घर गए और उनसे अपने पक्ष में मतदान की प्रार्थना की।
अन्ना हज़ारे के आंदोलन में लोकपाल क़ानून जिस तरह बना उससे सरकार को बिना चर्चा क़ानून बनाने के रास्ते मिले। बहुमत से क़ानून बन जाता है। विचार-विमर्श की क्या ज़रूरत?
फिर छत्तीसगढ़ से सीआरपीएफ़ के जवानों के मारे जाने की ख़बर आ रही है। लिखते वक़्त 22 जवानों की मौत का पता चला है। संख्या बढ़ सकती है। ये सब माओवादी विरोधी अभियान में हिस्सा ले रहे थे।
अनुयायी एक अकेले बच्चे पर मंदिर के प्रांगण में हिंसा कर सकते हैं, उसके गाली गलौज कर सकते हैं क्योंकि वह पानी पीने वहाँ आ गया था। उसे क्या पता था कि यहाँ हृदय घृणा से जलकर राख हो चुके हैं।
2002 की हिंसा ने गुजरात में विभाजन मुकम्मल कर दिया। इस हिंसा ने हम जैसे बहुत से ग़ैर गुजरातियों का परिचय गुजरात से करवाया। गुजरात में जो हो रहा था, वह हमारे राज्यों में नहीं हो सकता, इस खुशफहमी में भी हम काफ़ी वक़्त तक रहे।
यह हुक्म सिर्फ विश्वविद्यालयों या शिक्षण संस्थानों के लिए नहीं है। शोध संस्थान, प्रयोगशालाएँ भी इसके घेरे में हैं। इस परिपत्र का अर्थ होगा व्यावहारिक रूप में किसी भी अकादमिक विचार विमर्श का अंत।
कृषि क़ानून और किसान आन्दोलन पर क्यों सरकार ढिठाई से बिना पलक झपकाए उस सदन में झूठ बोल रही है, जहाँ संसद को गुमराह करना जनप्रतिनिधियों के विशेषाधिकार का हनन है?
नेताजी सुभाष चंद्र बोस जयंती पर जब ममता बनर्जी बोलने खड़ी हुईं तो श्रोताओं के बीच से ’जय श्री राम’ के नारे लगाए जाने लगे। वहाँ मौजूद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उन हुल्लड़बाजों को नहीं रोका।
मार्टिन नीमोलर राष्ट्रवादी होने के साथ-साथ यहूदी-विरोधी भी थे। उन्होंने हिटलर का उत्साहपूर्वक स्वागत किया था। पर बाद में उन्हें अपराधबोध हुआ कि यहूदियों के नरसंहार के पीछे उन जैसे लोगों की चुप्पी भी थी। पढ़ें अपूर्वानंद का लेख।
पिछले 6 वर्षों में न तो राष्ट्र ध्वज और न राष्ट्रगीत के मायने इस देश में सबके लिए एक रह गए हैं। एक पूरी आबादी को अपमानित करने के हथियार के तौर पर इनका इस्तेमाल किया जा रहा है। इसकी वजह बता रहे हैं लेखक अपूर्वानंद।