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वे कौन हैं और हम कौन? यह बहस दूसरी कक्षा की अंग्रेज़ी की एक किताब के बहाने ट्विटर पर शुरू हुई। यह दूसरी कक्षा की अंग्रेज़ी की एक किताब है जिसमें त्योहारों के बारे में छात्रों को जानकारी दी जा रही है। सबसे पहले पूछा गया है कि गुरबानी और कड़ाह परसाद क्या हैं। इनके बारे में मालूम करने को कहा गया है। फिर आगे तीन त्योहारों के बारे में संक्षेप में सूचना दी गई है। सबसे पहले ईद उल फ़ित्र के विषय में बतलाया गया। यही कि रमज़ान पवित्र माह है जिसमें मुसलमान उपवास रखते हैं। रमज़ान के बाद ईद मनाई जाती है। इस रोज़ लोग एक दूसरे से गले मिल ईद मुबारक कहते हैं। वे मस्जिद में नमाज़ पढ़ते हैं और एक मिष्टान्न खाते हैं जिसे सेवई कहते हैं।
फिर होली और गणेश चतुर्थी के बारे में ऐसे ही छोटे-छोटे अंश हैं। होली रंगों का त्यौहार है। यह सर्दियों के समाप्त होने और गर्मी की शुरुआत की सूचना देता है। लोग होली की पूर्व संध्या को मिल कर अलाव जलाते हैं। अगले दिन वे एक दूसरे पर रंग डालते हैं और गुलाल लगाते हैं। घरों में गुझिया बनाई जाती है जिसे सब मज़े लेकर खाते हैं। गणेश चतुर्थी में हम भगवान गणेश का जन्मोत्सव मनाते हैं। लोग गणेश की प्रतिमाएँ घर लाते हैं और उनकी पूजा की जाती है। मोदक बनाया जाता है और गणेश भगवान को चढ़ाया जाता है। अंत में मूर्तियाँ किसी जलाशय में विसर्जित की जाती हैं।
सरसरी तौर पर पढ़ने पर इन अंशों में कोई दिक्कत नहीं है। लेकिन ट्विटर पर एक ने ध्यान दिलाया कि किताब ईद का वर्णन करते हुए यह कहती है कि वे मस्जिद में नमाज पढ़ते हैं। जबकि गणेश चतुर्थी के विषय में वह लिखती है कि हम गणेश का उत्सव मनाते हैं। यह हम कौन है और वे कौन हैं? पाठक की आपत्ति में कोई झोल नहीं था। उसका कहना था कि क्या इस प्रकार एक त्यौहार उनका और एक हमारा बतलाकर कक्षा में दो समूह नहीं बनाए जा रहे हैं?
अच्छी बात यह है कि प्रकाशक ने तुरत ही भूल कबूल की और उसे सुधारने का वादा किया। किताब के इस संस्करण को रद्द करने के बारे में भी लिखा। इसका स्वागत किया जाना चाहिए। कुछ लोगों ने कहा कि यह बाल की खाल निकालना है। किताब का इरादा देखा जाना चाहिए। आख़िर सबसे पहले वह सिखों के धर्म के बारे में बात करती है। फिर ईद और तब होली और गणेश चतुर्थी का ज़िक्र आता है। इसलिए अगर इस क्रम को देखें तो ईद को पहले रखा गया है। तो मुसलमानों की उपेक्षा का तो प्रश्न ही नहीं। अगर यह लिख दिया कि वे मस्जिद में नमाज़ पढ़ते हैं तो इतना बड़ा अपराध कैसे हुआ?
जिसने ऐतराज़ किया वह सिर्फ यह बतलाना चाहता था कि यहाँ जिस तरह वे और हम आते हैं, उससे जाहिर होता है कि किताब लिख कौन रहा है और वह अपने प्राथमिक पाठकों की धार्मिक पहचान के विषय में क्या राय रखता है। किताब कक्षा में अध्यापक के द्वारा ज़ोर-ज़ोर से बोलकर पढ़ाई जा सकती है और छात्र मिलकर या अकेले में भी उसे पढ़ सकते हैं। पढ़ानेवाली सायमा या कँवलप्रीत या जेसिंता मुर्मू भी हो सकती है और पढ़नेवाले मनीष, गुंजाम, लवप्रीत, इक़बाल या माइकेल हो सकते हैं। जब वे हम या वे पढ़ रहे हों तो कहीं अटक न जाएँ और दुविधा में न पड़ जाएँ, आशंका यह है।
जेसिंता मुर्मू या लवप्रीत गणेशोत्सव नहीं मनाते। फिर वे इस अंश को कैसे पढ़ें? और अध्यापक क्या करे?
जाहिरा तौर पर इस पाठ में इरादा कोई बुरा नहीं। यह हमारी पाठ्यपुस्तक का अवचेतन है जो उजागर हो गया है। हम बहुसंख्यक का हम है। जबकि वे या वह स्थानानुसार बदल सकते हैं और अल्पसंख्यक हैं।
इस विवाद से जिस सवाल पर हमारा ध्यान जाना चाहिए, वह यह है कि आख़िर कक्षा का हम कैसे बनता है और उसमें किताब और अध्यापक की भूमिका क्या है। भारत और पूरी दुनिया में पाठ्यपुस्तकों का अध्ययन करनेवालों ने बतलाया है कि स्कूल और उसकी सारी गतिविधियाँ एक सामाजिकता का निर्माण करने के दायित्व बोध से परिचालित होती हैं। उस सामाजिकता या सामूहिकता का विस्तार कितना है और वह कितनी विविध है यह प्रायः इससे तय होता है कि स्कूल के बाहर उस सामाजिकता की कौन सी समझ प्रभावी और प्रचलित है। अमेरिका की किताब का हम क्या ईसाई, श्वेत हम है? अफ्रीका की किताब का? या श्रीलंका की किताब का हम क्या बौद्ध हम है?
'हम कौन थे, क्या हो गए हैं और क्या होंगे अभी', यह प्रश्न जिस हम से किया जा रहा है वह मैथिलीशरण गुप्त की नज़र में साफ़ तौर पर हिंदू है। लेकिन स्कूल को यह छूट नहीं। वह हम को बहुसंख्या के आधार पर चित्रित नहीं कर सकता। उसे एक नया हम बनाने की ज़िम्मेवारी का अहसास है। इसलिए उसे बहुसंख्यकवादी हम की धारणा में हस्तक्षेप करना होता है और उसे विविधता का प्रतिनिधि हम बनाना पड़ता है।
आप आज से 20 वर्ष पहले की स्कूली किताब देखें और आज की किताबों से उनकी तुलना करें तो 'हम' के निर्माण की यात्रा दिखलाई पड़ेगी। पहले की किताबों के चित्रों से मालूम होता था कि यह हम प्रायः पुरुष हम है। सक्रियता पुरुष के पास है। उसी प्रकार आप रंग-रूप से भी जान सकते थे कि स्कूली किताब के हम में आदिवासी कहीं नहीं हैं। पटना या दिल्ली का अध्यापक झुंझलाकर कह सकता है कि वे कक्षा में नहीं हैं। फिर उनकी बात करने का क्या प्रसंग?
जो कक्षा में नहीं हैं, उन्हें होना चाहिए। एक औसत भारतीय कक्षा में प्रत्यक्ष और परोक्ष किन्हें उपस्थित होना ही चाहिए? आप अपनी कल्पना कितनी फैला सकते हैं? क्या एक मणिपुरी औरत या एक गोंडी बोलनेवाला आपके ध्यान में आता है? क्या जब आप बोलते हैं हमारी संस्कृति में तो क्या इन सबकी सांस्कृतिक अभिव्यक्तियाँ, उनके सांस्कृतिक प्रतीकों की समूलियत हो पाती है?
कुछ लोगों को यह सब कुछ राजनीतिक प्रतीकात्मकता लगती है। यह राजनीतिक तो है लेकिन यह शिक्षा का दायित्व है। जर्मन हम में यहूदी हम शामिल है, जबतक यह निश्चित न किया जाए, हिटलर की पुनरावृत्ति रोकी नहीं जा सकती। उसी प्रकार जबतक अमेरिका में स्थानीय आबादियों को इस हम में जगह नहीं मिलेगी,अमेरिकी समाज उस जनसंहार पर विचार नहीं कर पाएगा, जिसने आज का अमेरिका बनाया।
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