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मैं अकेला रह जाऊं तो भी मेरा मार्ग स्पष्ट है: महात्मा गाँधी

महात्मा गाँधी को एक औरत ने सलाह दी कि उन्हें अब हिमालय पर चले जाना चाहिए क्योंकि वह अप्रासंगिक बातें बोल रहे हैं। फिर भी गाँधी बोलते रहे और वही बोलते रहे जो लोगों को नापसंद था, जिससे लोग सहमत नहीं थे। गाँधी ने यह नहीं सोचा कि वह अलोकप्रिय हो रहे हैं। अकेले पड़ जाने का ख़तरा उठाकर भी वही बोलना जो नैतिक और उचित लगता है, गाँधी का रास्ता था। अपूर्वानंद का यह लेख अगस्त 2019 में प्रकाशित हुआ था। 
अपूर्वानंद

क्या लिखें? और क्यों लिखें? आपके लिखे पर जब आपके मित्र आपको बता रहे हों कि वह व्यर्थ है, कि आपका लिखना कुछ वैसा ही है जैसे एक अँधे कुँए में अंदर मुँह करके कोई पुकार रहा हो, आपकी आवाज़ दीवारों और तलहटी से टकरा कर आप तक लौट आती है। आप किसी को संबोधित नहीं कर रहे, जैसे ख़ुद से बात किए जा रहे हैं। इस बात का क्या लाभ? 

अपने ही तरह के लोगों से बात करते रहने और उन्हीं से अपनी बात की तस्दीक कराते रहने से एक तसल्ली तो मिल सकती है लेकिन क्या आप एक नया श्रोता, नया पाठक बना पा रहे हैं? क्या आप अपनी बात किसी भी नए व्यक्ति तक पहुँचा पा रहे हैं? क्या कोई भी नया शख़्स आपकी राय से सहमत हो पा रहा है?

इस आरोप और लानत में दम है। लेकिन ऐसा नहीं है कि यह पहली बार और सिर्फ़ हमारे साथ हो रहा है। आज से 73 साल पहले एक बूढ़ा दिल्ली में बैठा यही अफ़सोस जाहिर कर रहा था, “एक वक्त था जब पूरा हिन्दुस्तान मेरी एक आवाज़ पर एक इंसान की तरह उठ खड़ा होता था, आज मेरी कोई नहीं सुनता!” उसकी आवाज़ वीराने में गूँज कर उसी के पास लौट आती है, यह उस बूढ़े ने कहा। वह हमारी तरह का मामूली शख़्स न था। महात्मा कहे जानेवाले गाँधी जब नोआखाली, बिहार, कलकत्ता और दिल्ली में भटक रहे थे तो बार-बार उन्हें इसका अहसास हो रहा था कि उन्हें सुना नहीं जा रहा है। 
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यह कहना लेकिन ग़लत है कि गाँधी को सुना नहीं जा रहा था। वरना दिल्ली की सड़कों पर गाँधी के ख़िलाफ़ नारे न लगते, उनकी प्रार्थना सभाओं में आकर उनका विरोध न किया जाता। लोग उन्हें सुन रहे थे और ठुकरा रहे थे। उन्हें एक औरत ने सलाह दी कि उन्हें अब हिमालय पर चले जाना चाहिए क्योंकि वह अप्रासंगिक बातें बोल रहे हैं।
फिर भी गाँधी बोलते रहे और वही बोलते रहे जो लोगों को नापसंद था, जिससे वे सहमत न थे। गाँधी ने यह नहीं सोचा कि वह अलोकप्रिय हो रहे हैं। अकेले पड़ जाने का ख़तरा उठाकर भी वही बोलना जो नैतिक और उचित लगता है, गाँधी का रास्ता था।

क्या इस बात पर कोई बहस है कि हिंसा और अहिंसा में किसपर ज़्यादा लोग विश्वास करते हैं? निश्चय ही हिंसा पर। तब आप क्या करें? यह अक्सर मान लिया जाता है कि कांग्रेस गाँधी से सौ फ़ीसद सहमत रहा करती थी, अहिंसा को उसने अपना रास्ता इसीलिए चुना था। लेकिन ऐसा है नहीं। कांग्रेस में भी गाँधी का यह ख्याल कोई लोकप्रिय न था। 

2 अगस्त, 1942 को गाँधी लिखते हैं - ‘कांग्रेस अहिंसा को धर्म के रूप में नहीं मानती। जैसा कि ‘मैंचेस्टर गार्जियन’ ने ठीक ही कहा है, इस मामले में मैं जिस चरम सीमा तक जाता हूँ, उस तक बहुत थोड़े ही लोग जाते हैं। मौलाना आज़ाद और पंडित नेहरू सशस्त्र प्रतिरोध करने में विश्वास रखते हैं।  और मैं इसमें यह और जोड़ दूं कि बहुतेरे कांग्रेसजन भी रखते हैं। इसलिए, समूचे देश में कहिए या कांग्रेस में कहिए, मेरे साथ तो बहुत ही थोड़े लोग होंगे। लेकिन, जहाँ तक मेरा संबंध है, मैं यदि सिर्फ़ अकेला रह जाऊं तो भी मेरा मार्ग तो स्पष्ट ही है...।’

‘...यह मेरी अहिंसा की परीक्षा का समय है। मुझे आशा है कि मैं इस अग्नि-परीक्षा से अछूता बाहर आ सकूंगा। अहिंसा की प्रभावकारिता में मेरी श्रद्धा अटल है। अगर मैं हिन्दुस्तान, ब्रिटेन, अमेरिका और धुरी-राष्ट्रों सहित सारी दुनिया को अहिंसा की दिशा में मोड़ सकूं तो जरूर ही मोड़ना चाहूंगा। लेकिन अकेले मानवी पुरुषार्थ से यह चमत्कार हो नहीं सकता। यह तो भगवान के हाथ की बात है।  मेरा काम तो ‘करना या मरना’ है। निश्चय ही ‘मैंचेस्टर गार्जियन’ इस सच्ची चीज से - शुद्ध अहिंसा से - नहीं डरता। इससे कोई भी नहीं डरता। न डरने की जरूरत है।’

‘अव्यक्त’ ने गाँधी की भाषा पर विचार करते हुए उन्हें “सत्याग्रह” के अपने एक लेख में (https://satyagrah.scroll.in/article/108872/august-kranti-quit-india-movement-mahatma-gandhi-statemen...) कुछ इस तरह उद्धृत किया है। भाषा के अलावा जिस बात पर ध्यान जाना चाहिए वह यह कि गाँधी कबूल कर रहे हैं कि वह कांग्रेस में लोकप्रिय नहीं हैं। लेकिन गाँधी वह बोलने से इनकार करते हैं जो लोग सुनना चाहेंगे।
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हमेशा हिंदू ही क्यों रहें बहुसंख्यक?

भारत में प्रायः हिन्दुओं को यह कहकर डराया जाता है कि एक दिन ऐसा आएगा जब मुसलमान उनसे अधिक हो जाएँगे। कई भले लोग इसका प्रतिकार करने के लिए आंकड़ों के साथ बहुत श्रम करते हैं। हिंदू ही इस मुल्क में हमेशा अधिक रहेंगे, यह आश्वासन वे हिन्दुओं को देते हैं। इस आश्वासन में एक बौद्धिक भीरुता है। क्यों भारत में हमेशा हिन्दुओं को ही बहुसंख्या में होना चाहिए? क्यों मुसलमान या पारसी यहाँ चिरकाल तक अल्पसंख्यक रहें?

पटेल, अजमल का नाम लेकर डराया

यह प्रश्न अटपटा लग सकता है। जैसे यह कि गुजरात के मुख्यमंत्री अहमद पटेल हो सकते हैं।  कांग्रेस साज़िश कर रही है कि अहमद पटेल मुख्यमंत्री हों, जब यह कहकर हिंदुओं को डराया गया, तब किसी ने खड़े होकर नहीं कहा कि यह पटेल का संवैधानिक अधिकार है। अगर कांग्रेस बहुमत हासिल करे और उन्हें अपना नेता चुने तो वह मुख्यमंत्री बन ही सकते हैं। लेकिन यह सीधी-सी बात नहीं कही जा सकी। क्योंकि यह कहना लोकप्रिय नहीं था। असम के चुनाव के समय वहाँ की हिंदू जनता को इसी तर्क से फिर डराया गया, यह कहकर कि बदरुद्दीन अजमल मुख्यमंत्री बन जाएँगे। उस समय भी किसी ने नहीं पूछा, “इसमें ग़लत क्या होगा?”

ऐसा कह पाने के लिए गाँधी जैसी नैतिक स्पष्टता चाहिए। भारत छोड़ो आंदोलन के प्रस्ताव पर विचार के लिए हुई अखिल भारतीय कांग्रेस कमिटी की बैठक में गाँधीजी ने कहा - ‘स्वतंत्रता प्राप्त करके ही आपका काम ख़त्म नहीं हो जाएगा।  हमारी कार्ययोजना में तानाशाहों के लिए कोई जगह नहीं है। हमारा ध्येय स्वतंत्रता प्राप्त करना है और उसके बाद जो भी शासन संभाल सके संभाल ले। संभव है कि आप सत्ता पारसियों को सौंपने का फ़ैसला करें। आपको यह नहीं कहना चाहिए कि सत्ता पारसियों को क्यों सौंपी जाए। संभव है कि सत्ता उन्हें सौंपी जाए जिनके नाम कांग्रेस में कभी सुने न गए हों। यह फ़ैसला करना लोगों का काम होगा। आपको यह नहीं सोचना चाहिए कि संघर्ष करनेवालों में अधिक संख्या हिन्दुओं की थी और मुसलमानों और पारसियों की संख्या कम थी।  ...यदि आपके मन में लेशमात्र भी सांप्रदायिकता की छाप है तो आपको संघर्ष से दूर रहना चाहिए।’

अधिक संख्यावाले समूह का दावा भारत पर अधिक होगा और कम संख्यावाले का कम, इसे मानने को गाँधी कभी राजी न होते। लेकिन क्या यह आज का कोई राजनेता कह सकता है?
आज सारे राजनेता, ख़ासकर कांग्रेस के, दलील दे रहे हैं कि अगर उन्होंने धारा 370 पर सरकारी फ़ैसले की आलोचना की तो जनता, जिसका अर्थ है हिंदू जनता उनके ख़िलाफ़ हो जाएगी। इस भय को छिपाने के लिए वे देशभक्ति की आड़ लेते हैं। लेकिन स्वाधीनता के मूल्य और देशभक्ति या राष्ट्रवाद में किसे चुना जाना चाहिए? फिर गाँधी को ही सुनिए - ‘...अगर आप सच्ची आज़ादी पाना चाहते हैं तो आपको मेल-जोल पैदा करना होगा। ऐसे मेल-जोल से ही सच्चा लोकतंत्र पैदा होगा, ऐसा लोकतंत्र जैसा कि पहले देखने में नहीं आया और न ही जिसके लिए पहले कभी कोशिश ही की गई।...मेरे लोकतंत्र का मतलब है कि हर व्यक्ति अपना मालिक ख़ुद हो।...कुछ लोग शायद कहें कि मैं ख़यालों की दुनिया में रहता हूं।’

गाँधी के इस प्रस्ताव के विरुद्ध वोट देनेवाले 13 लोग ही थे। गाँधी ने उन्हें राष्ट्र विरोधी नहीं कहा, जनता को उनके विरुद्ध भड़काया नहीं बल्कि इन आलोचकों को बधाई देते हुए उन्होंने कहा- ‘आपने ऐसा कोई काम नहीं किया है जिसके लिए आपको शर्मिन्दा होने की ज़रूरत है। पिछले बीस वर्षों से हम यही सीखने की कोशिश करते आए हैं कि हमारे समर्थकों की संख्या बहुत कम हो और लोग हमारी हंसी उड़ाएं, तब भी हमें हिम्मत नहीं हारनी चाहिए। हमने अपने विश्वासों पर दृढ़ रहना सीखा है - यह मानते हुए कि हमारे विश्वास ठीक हैं। यह उचित ही है कि हम अपने विश्वासों के अनुसार काम करने का साहस पैदा करें, क्योंकि ऐसा करने से आदमी का चरित्र और उसका नैतिक स्तर ऊंचा होता है।’

अगर यह साहस हो, तो हम अपनी बात की परीक्षा कुछ उसूलों की कसौटी पर करेंगे, लोकप्रियता के आधार पर नहीं। आज जो लोग कश्मीर के प्रसंग में राजकीय कार्रवाई के आलोचक हैं, उन्हें इससे घबराने की आवश्यकता नहीं कि वे अकेले पड़ रहे हैं। उनके साथ उनके उसूल हैं। 

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