प्रोफ़ेसर कृष्ण कुमार ने इसलामोफ़ोबिया शब्द के इस्तेमाल को ग़लत बताया। उनका कहना है कि यह शब्द उस मनोवृत्ति को व्यक्त नहीं करता जो अभी पूरी दुनिया में अलग-अलग रूप में प्रकट हो रही है और मुसलमान जिसका निशाना बन रहे हैं।
इस शब्द में क्या समस्या है, इस पर हम विचार नहीं करते और दिमाग़ी आलस के चलते जो शब्द हवा में तैर रहे हैं, उन्हीं से काम चला लेते हैं। न्यूज़ीलैंड में अभी मसजिदों पर हुए हमले के बाद यह फिर चर्चा में लौट आया है। यह नहीं कि सिर्फ़ ग़ैर-मुसलमान इसका प्रयोग कर रहे हैं, ख़ुद मुसलमान भी इस शब्द का प्रयोग कर रहे हैं।
इसलामोफ़ोबिया बाक़ी फ़ोबिया जैसा ही लगता है। फ़ोबिया एक प्रकार का मनोविकार है। इससे शिकार व्यक्ति को किसी वस्तु, परिस्थिति, जीवित प्राणी, आदि से अतिरंजित और अतार्किक भय लगता है।
उस वस्तु विशेष या परिस्थिति विशेष के सामने पड़ते ही उसमें अत्यधिक बेचैनी, डर पैदा हो जाता है। वे उससे बचने की कोशिश करते हैं क्योंकि वह उन्हें ख़तरनाक मालूम होता है। यह वास्तविक नहीं, काल्पनिक भय है।
फ़ोबिया कई तरह का होता है। यह सामाजिक भी है। कई लोगों को पानी से, कुछ को ऊँचाई से डर लगता है। ऐसे लोग भी आपको मिलेंगे जो भीड़ या लोगों के जमावड़े से घबराते हैं। यह संकोची स्वभाव से भिन्न है। कुछ ऐसे भी हैं जिन्हें बाहर निकलने से ही डर लगता है। वे शायद ही घर से निकलते हैं। ऐसी हालत में अनचाहे पड़ जाने पर उन्हें घबराहट होने लगती है, पसीना चल पड़ता है। सर घूमने लगता है। जानते हुए भी कि यह नितांत अतार्किक है, वे उससे बच नहीं सकते।
इसलामोफ़ोबिया या मुसलिमफ़ोबिया
क्या इसलामोफ़ोबिया इसी तरह का एक मनोविकार है? इसका अध्ययन करनेवाले विद्वानों में एक मत यह भी है कि इसलामोफ़ोबिया शब्द की जगह मुसलिमफ़ोबिया का इस्तेमाल करना चाहिए। इस शब्द का इतिहास एक सदी से भी अधिक पुराना है। पहले इसका प्रयोग उदार मुसलमानों और मुसलमान नारीवादियों के इसलाम के ख़ास किताबी रूढ़िवाद से भय को व्यक्त करने के लिए किया गया। एक बेल्जियन हेनरी लम्मेंस के छद्म वैज्ञानिक अभियान की आलोचना के लिए कभी इसका प्रयोग किया गया जो इस्लाम को एकबारगी नष्ट कर देना चाहता है।
- बहरहाल, इस शब्द का इस्तेमाल पिछली शताब्दी के अंतिम दशक में धड़ल्ले से होने लगा। ख़ासकर अमेरिका में ट्रेड सेंटर पर हुए जहाज़ी हमले के बाद से। लेकिन यूरोप में भी मुसलमानों के पहुँचने के साथ-साथ उनके ख़िलाफ़ तरह-तरह की हिंसा की घटनाओं के बाद इंग्लैंड और दूसरे देशों में भी इसे समझने, पहचानने की सरकारों की ओर से कोशिश हुई।
मुसलमानों के ख़िलाफ़ पूर्वग्रह बढ़ा
1997 में इंग्लैंड में रनीमीड ट्रस्ट में एक आयोग बनाया गया जिसने इसपर रिपोर्ट जारी की। उसका नाम ही है, इसलामोफ़ोबिया : हमारे लिए चुनौती। आयोग ने इस शब्द के पक्ष में कहा कि पिछले समय में मुसलमानों के ख़िलाफ़ पूर्वग्रह इतना बढ़ गया है कि उसके लिए शब्दकोश में एक नए शब्द की ज़रूरत महसूस होने लगी है।
आयोग ने कहा कि इसलाम को लेकर एक खुला रवैया हो सकता है और एक बिलकुल बंद। बंद रवैया इसलाम को एक स्थिर धर्म के रूप में देखता है जिसमें कोई तब्दीली नहीं होती। यह बाक़ी सबसे अलग होता है, इसपर किसी भी संस्कृति का कोई असर नहीं होता, यह पाश्चात्य मूल्यों के ठीक उलट है, हिंसक, क्रूर और स्त्री विरोधी है। इसका उद्देश्य राजनीतिक प्रभुत्व स्थापित करना है। इन सब कारणों का सहारा लेकर उन्हें समाज से अलग-थलग करने या उनके ख़िलाफ़ भेदभावपूर्ण नीतियों और कार्रवाइयों को जायज़ ठहराया जाता है।
- इसे पढ़ते हुए लगता है मानो हम अपने देश के बारे में पढ़ रहे हैं। जबकि इस देश में मुसलमान ज़माने से हैं और हम यह भी जानते हैं कि उनकी उपासना भी एक तरह की नहीं और देश के भिन्न-भिन्न हिस्सों में भिन्न प्रकार के मुसलमान हैं। फिर भी मुसलमानों को हिंदुओं के ठीक उलट समाज के रूप में देखकर उनके प्रति भय या चिढ़ पैदा किया जाता है।
क्या क़ुरान हिंसा का पाठ पढ़ाती है?
हम यह सुनते आए हैं कि क़ुरान हिंसा का पाठ पढ़ाती है। यह कि मसजिदों में हथियार जमा किए जाते हैं। कि मुसलमान अपने बच्चों को हिंसा की शिक्षा बचपन से देते हैं। कि वे गंदे होते हैं, चार शादियाँ करते हैं, वे सब मिले हुए हैं और दूसरे धर्मों के ख़िलाफ़ साज़िश करते हैं। उनका सारा कुछ हिंदुओं के उलट होता है।
- यह सब हमने अपने बचपन में सुना था, और अब आज के बच्चे भी यही सुन रहे हैं। इनमें एक और चीज़ जुड़ गई है, इसलाम दहशतगर्दों का धर्म है।
बड़ी वज़ह बहुसंख्यकवादी विचार
मुसलमान विरोध का एक बड़ा स्रोत बहुसंख्यकवादी विचार है। वह मुसलमान के ख़िलाफ़ घृणा, घिन का बाक़ायदा प्रचार करता है। ऐसा करके उसे एक मुसलमान विरोधी हिंदू का गठन करने में आसानी होती है। यह बहुसंख्यकवादी हिंदू है जो ख़ुद को प्रतिमान मानता है।
इस बहुसंख्यकवाद पर चर्चा करना ज़रूरी है जो यह भ्रम पैदा करता है कि समस्या की जड़ मुसलमान हैं और उन्हें अनुशासित करना या सभ्य बनाना ही इसका मक़सद है। ऐसा करके वह मुसलमानों का भला ही कर रहा है।
इस मुसलमान विरोधी घृणा को स्वाभाविक या जैविक ठहराना बहुसंख्यकवादी राजनीति के ख़तरे को कम करके देखना है।
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