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हिन्दुओं के 'गुंडाकरण' के लिए कौन से तत्व/लोग जिम्मेदार?

हिंदू समाज के लिए उसके इतिहास का सबसे संकटपूर्ण क्षण है। यह भी कहा जा सकता है कि यह उसका सबसे संघर्षपूर्ण क्षण है।हिंदू ख़ुद सभ्य समाज के रूप में बचाए रखने की जुगत तलाश रहे हैं।कोई भी समाज एक स्वर में कभी नहीं बोलता, वह संगठित नहीं होता। उसका कोई एक प्रतिनिधि नहीं होता। हिंदुओं में भी अगर बिखराव है तो स्वाभाविक ही है। लेकिन यह भी उतना ही सच है कि संगठित तौर पर उसका गुंडाकरण किया जा रहा है। 
भारतीय जनता पार्टी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के हिंसक पर्यावरण में फलने फूलनेवाले छोटे बड़े संगठन और व्यक्ति यह काम कर रहे हैं। इसमें राज्य की संस्थाएँ सक्रिय तौर पर हाथ बँटा रही हैं। देश का मीडिया हिंदुओं के लफ़ंगाकरण के अभियान में जुटा है।देश के प्रधानमंत्री और भारतीय जनता पार्टी के बड़े नेता हिंदू समाज को हिंसक बनाने का अभियान चला रहे हैं। उसका नतीजा मिला है।हिंसक और गुंडागर्द तत्व अब हिंदू समाज की पहचान बनते जा रहे हैं। 
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इसे पढ़कर  हो सकता है लोग नाराज़ हो जाएँ।कहा जाएगा कि यह सामान्यीकरण है। साफ़ होना चाहिए कि यह नहीं कहा जा रहा कि संपूर्ण समाज हिंसक हो गया है।लेकिन यह स्वीकार करने में दुविधा नहीं होनी चाहिए कि अभी हिंदू समाज पर हिंसक या गुंडा तत्व हावी हैं और उसके भीतर से इसका प्रतिकार होता नहीं दीख रहा। इसके उत्तर में भी कहा जा सकता है कि शायद ही कोई समाज कभी गुंडा तत्वों का विरोध करने में सफल होता है क्योंकि हिंसा के साधन उनके पास होते हैं और समाज में लोग उनसे लड़ नहीं सकते। वे हावी दीखते हैं क्योंकि हिंसा दृश्यमान होती है और उसकी आवाज़ भी अधिक होती है। 
उनकी चीख चिल्लाहट का मुक़ाबला करना कठिन है। लेकिन जब समाज उन्हें अपने नेता के तौर पर चुनने लगे तब मानना चाहिए कि हिंसा के आगे उसकी लाचारी वजह नहीं है कि वह चुप दीखता है।अगर उसका बड़ा हिस्सा इसमें ख़ुद भाग न भी लेता हो तो उसे इससे उज्र हो, इसका भी सबूत नहीं। बल्कि जब वह घृणा और हिंसा के प्रचारकों को अपना प्रतिनिधि बना लेता है तो वह इस गुंडा प्रवृत्ति पर अपनी मुहर लगता है और उसे बढ़ावा ही देता है। समाज को इसका ज़िम्मा लेना ही होगा।
लंबे समय तक कहा जाता रहा कि भारत में अगर धर्मनिरपेक्षता है तो उसका श्रेय हिंदुओं को मिलना चाहिए। एक हद तक यह बात ठीक भी है। हिंदू भारत में बहुसंख्यक हैं। उनकी सहमति और सक्रिय सहमति के बिना किसी भी राजकीय नीति का बने रहना, चलना संभव नहीं। अल्पसंख्यक कितना भी चाह लें, कोई नीति अगर बन भी जाए तो चल नहीं सकती। इसलिए हिंदुओं को धर्मनिरपेक्षता का श्रेय मिलना चाहिए।और वह मिला भी है। ख़ासकर पाकिस्तान के बनने के साथ जब भारत ने धर्मनिरपेक्षता की नीति अपनाई तो पूरी दुनिया ने कुछ अचरज और प्रशंसा के साथ उसे देखा।
भारतीय धर्मनिरपेक्षता पूर्ण नहीं थी, सर्वथा निर्दोष न थी लेकिन विविध प्रकार के आचार व्यवहार वाले समूहों के सह अस्तित्व के लिए, जिसमें आपस में कम से कम टकराव हो और कोई समूह ख़ुद को किसी से कमतर न समझे, यह सबसे अच्छी नीति थी।कोई ख़ुद को हीन न समझे, सबको राज्य में भागीदारी का अहसास हो, यह अच्छी राजकीय नीति का प्रमाण है।

धर्मनिरपेक्षता समाज में हिंसा को कम करने का भी तरीक़ा है।वह मानवीय जीवन पद्धति है। वह महत्तम स्तर पर दूसरे या अजनबी के प्रति उत्सुकता या सम्मान है और न्यूनतम रूप में अनजान या अन्य के प्रति सहनशीलता है। अंग्रेज़ी उपनिवेशवाद से मुक्त होने के बाद से हिंदू समाज इस न्यूनतम और अधिकतम के बीच रहा है। उसने अगर दूसरे को अपना नहीं बनाया, पूर्णतः स्वीकार नहीं किया तो उसे धकिया कर ख़ुद से अलग भी नहीं किया। हम सबकी ज़िंदगी की कहानियाँ इसका सबूत हैं। दुनिया भर में इसलिए माना गया कि हिंदू सहिष्णु होते हैं, वे स्वभावतः विविधता को स्वीकार करनेवाले हैं।हिंदुओं ने भी गर्व से कहा, और वे बहुत ग़लत न थे कि हमने भारत में धर्मनिरपेक्षता को सुरक्षित रखा है।    

अगर आज़ादी 60 साल तक भारत में धर्मनिरपेक्षता के लिए हिंदुओं को श्रेय मिला तो इधर के 10 सालों में सांप्रदायिकता या बहुसंख्यकवाद के उभार और उसके प्रभुत्व के लिए भी उन्हें दोष लेना चाहिए। पहली बार भारत के किसी प्रधानमंत्री ने गर्व से कहा कि उसने धर्मनिरपेक्षता को भारतीय राजनीति के शब्दकोश से बाहर कर दिया है।उसने कहा कि हमने ऐसा माहौल बना दिया है कि कोई नेता, कोई राजनीतिक दल अब इस लफ़्ज़ को ज़ुबान लाने की हिम्मत नहीं करता।और हिंदू समाज ने प्रधान मंत्री की इस दंभोक्ति को  चुपचाप सुना।
बाबरी मस्जिद ध्वस्त हिंदुओं ने ही की लेकिन उसके ध्वंस के वक्त उस समाज में छाई स्तब्धता की याद हमें है। इसी वजह से उस ध्वंस अभियान के सरग़ना लालकृष्ण आडवाणी को भी कहना पड़ा कि यह उनके जीवन का सबसे दुखद दिन था।उनके चतुर मित्र अटल बिहारी वाजपेयी को आँसू बहाने पड़े। 
2002 में गुजरात के जनसंहार के बाद भी पूरे देश में अफ़सोस और ग़ुस्से से भरी प्रतिक्रिया हुई। सरकार भाजपा नीत ही थी फिर भी वाजपेयी को दुख व्यक्त करना पड़ा,अपने मुख्यमंत्री को ताड़ित करना पड़ा।मानवाधिकार आयोग सक्रिय हुआ, अदालतों ने भी इंसाफ़ की कोशिश की। भारत भर के मीडिया ने इस हिंसा की निंदा की।
उस वक्त भी एक आदमी था जो हिंदुओं के भीतर की लज्जा को कुचल रहा था। गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री ने घूम घूमकर हिंदुओं को समझाया कि इस जनसंहार में शर्म की कोई बात नहीं। पहली बार किसी राजनेता ने हिंसा से बचने को अपने घरों, इलाक़ों से बचकर भागे लोगों के लिए बनाए गए राहत शिविरों को तुड़वा दिया। उनमें पनाह लिए लोगों की खिल्ली उड़ाई, पनाहगाहों को आतंकवादियों को पैदा करने की फ़ैक्टरी बतलाया। 
धीरे धीरे वह आदमी भाजपा का सबसे बड़ा नेता हो गया। भारत के पूँजीपतियों ने उसे सिरमौर बनाया और मीडिया ने उसका गुणगान शुरू किया। फिर वह भारत का प्रधानमंत्री बना। यह वही व्यक्ति है जिसने 2019 में चुनाव जीतने के बाद गर्वपूर्वक कहा कि उसने धर्मनिरपेक्षता को भारतीय राजनीति से बहिष्कृत कर दिया है।
2014 से जो सिलसिला शुरू हुआ, वह थमा नहीं है। हिंदुओं के हर पर्व त्योहार का अपहरण कर लिया गया है। ऐसे सारे धार्मिक अवसर अब मुसलमानों के ख़िलाफ़ नफ़रत और हिंसा फैलाने का बहाना बन गए हैं। हिंदुओं के ‘आध्यात्मिक’ नेता अपने सत्संग में गाली गलौज करते हैं, मुसलमानों के ख़िलाफ़ हिंसा भड़काते हैं।हिंदू भक्त ताली बजाते हैं, हँसते खिलखिलाते हैं। हिंदुओं के बहुमत ने उस राजनेता को देश का नेतृत्व दिया जिसके अस्तित्व का आधार ही है मुसलमान विरोधी घृणा और हिंसा।असत्य और अर्धसत्य। इसे स्वीकार किया गया। 

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उससे जुड़ी संस्थाओं और व्यक्तियों को मानो हिंदू धर्म और हिंदू जनता के एकमात्र प्रवक्ता का पद मिल गया। यह हिंदू कौन है? इसे कैसे परिभाषित किया गया ? या कैसे गढ़ा गया?


आर एस एस के मुताबिक़ हिंदू अनिवार्यतः मुसलमान विरोधी होगा। कोई ऐसा हित नहीं जो दोनों साझा करते हों।मुसलमान से सावधान रहना या आशंकित रहना हिंदू जागृति का दूसरा नाम है। यह जागा हुआ हिंदू डरा हुआ हिंदू है और हीनता ग्रंथि से पीड़ित।हालाँकि वह मानता है कि हिंदू इस ब्रह्मांड का सर्वश्रेष्ठ प्राणी है। इस संसार का सारा ज्ञान हिंदू निर्मित है लेकिन उससे छीन लिया गया है।वह सदियों से इस देश में बहुसंख्यक बना हुआ है।लेकिन वह यह भी मानता है कि 800 साल या 1200 साल से उसे उसी के देश में अल्पसंख्यक बनाने की साज़िश चल रही है। 
हिंदू श्रेष्ठता का तर्क वास्तव में संख्या बल का तर्क है। जो तथाकथित  हिंदू जीवन पद्धति को सर्वश्रेष्ठ मानते हैं और इसलिए दूसरों के साथ उसे मानने को ज़ोर ज़बरदस्ती करते हैं वे ही ईसाई बहुल देशों या इलाक़ों में खामोश हो जाते हैं। जो भाजपा बिहार, उत्तर प्रदेश में गाय को पवित्र, अवध्य मानती है वह उसे गोवा और नागालैंड या मिज़ोरम या केरल में भोज्य मानती है। इसका मतलब है कि ताक़त सिर्फ़ संख्या में है, संख्या बल ही वास्तविक बल है। जहाँ हिंदू बहुसंख्या में है वह दूसरों पर हिंसा करेगा कि वे उसके अनुसार चलें लेकिन जहाँ वह अल्पसंख्या में होगा, वहाँ होंठ सिल लेगा।
सोचने के इस तरीक़े का नतीजा है ऐतिहासिक अन्याय बोध से पीड़ित, और ऐतिहासिक श्रेष्ठता ग्रंथि से ग्रस्त दिमाग़। जो इस अन्याय का प्रतिशोध लेने का मौक़ा खोजता रहता है। और वह किससे लिया जा सकता है? जो संख्या में कम हो। वह मुसलमान और ईसाई है। 
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परेशानी यह है कि इस देश में हिंदुओं और मुसलमानों के साथ रहने का भी लंबा इतिहास है। बहुत कुछ है जो मिला जुला है। एक दूसरे के प्रति पूर्वग्रह नहीं हों, ऐसा नहीं लेकिन एक का होना दूसरे के लिए ख़तरा है, यह आम विचार न था। जब तक इसे साझेपन को तोड़ न दिया जाए, जब तक एक को दूसरे के लिए पूरी तरह अजनबी न बना दिया जाए, तब तक हिंदुओं को पूरी तरह हिंसक बनाना संभव नहीं।
2014 के पहले और बाद का हिंदू समाज एक नहीं है। जैसा हमने कहा, यह शत्रु की तलाश करता हिंदू है और काल्पनिक शत्रु खोजकर उसे ख़त्म करता हुआ हिंदू है। आज का प्रतिनिधि हिंदू यही है। और अपनी उदारता और खुलेपन से आश्वस्त हिंदू इसके आगे अल्पसंख्यक है। इन दोनों में कौन जीतेगा? 
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अपूर्वानंद
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