हिंदी फिर खबर में है। इस बार धमकी की तरह। एक तरफ़ तो अंग्रेज़ी ने हिंदी की एक रचना को अपना बनाकर अपना दायरा बड़ा किया दूसरी तरफ़ एक हिंदी वाले ने धमकी दी कि जो हिंदी से प्रेम नहीं करते, उन्हें भारत छोड़ देना होगा।
प्रेम करने का मतलब हिंदी बोलना, हिंदी जानना या हिंदी वालों का गुलाम होना? जिन्होंने ये कहा वे राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ या भारतीय जनता पार्टी के नहीं। निषाद पार्टी के नेता हैं।
उत्तर प्रदेश सरकार के मंत्री भी हैं, इससे मालूम होता है कि हिंदीवाद की बीमारी कहीं व्यापक है। यह भी कहा जा सकता है कि जो हिंदी-हिंदू-हिंदुस्तान का नारा नहीं लगाते वे भी कम से कम हिंदी-हिंदुस्तान में तो यकीन करते ही हैं।
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हिन्दी वालों या प्रायः उत्तर भारत, उसमें भी उत्तर प्रदेश वालों को इस भ्रम से बाहर निकल आने की ज़रूरत है कि भारत पर पहला अधिकार उनका है या वे ही भारत की मुख्य धारा का निर्माण करते हैं। हिंदी की प्रधानता के दावे के पीछे सिर्फ संख्याबल का तर्क है। चूँकि मुर्दुमशुमारी के वक्त हिंदी को अपनी मातृभाषा लिखवाने वालों की संख्या सबसे अधिक है, हिंदी को भारत की पहली भाषा या राष्ट्र भाषा होना चाहिए, तर्क यह है।
संख्या के इस तर्क की भी जांच की ज़रूरत है। जिन लोगों ने हिंदी को मातृभाषा लिखवा दिया है, उनमें से बहुत कम की ही मातृभाषा खड़ी बोली हिंदी है। ज़्यादातर की अवधी, भोजपुरी, मालवी, ब्रज, मैथिली, आदि है। अभी भी भोजपुरी वालों की संख्या सरकारी आँकड़ों के मुताबिक़ 5 करोड़ है। क्या यह संख्या कम है? अगर सारे भोजपुरीवाले और बाकी सब सच दर्ज करवाएँ तो हिन्दी वालों की तादाद घट जाएगी। फिर संख्या का बल भी कारगर नहीं रह जाएगा। लेकिन मसला सिर्फ यही नहीं है।
हिंदी के भीतर की विस्तारवादी कुंठा जो अर्धसत्य का सहारा लेती है, उस पर भी विचार करने की आवश्यकता है।
हिंदी ने सबसे पहले बिहार, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान की पुरानी भाषाओं के सम्मानजनक अस्तित्व से ही इनकार किया। मुझे बचपन की याद है। सीवान के डी ए वी हाई स्कूल के हेडमास्टर, पुत्तू बाबू को ‘भोजपुरी हमार माई’ के नारे के साथ हिंदी के प्रभुत्व के विरुद्ध भोजपुरी के अधिकार के आंदोलन में शरीक होते देखता था। यह उनके राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से संबद्ध होने के बावजूद था। इन सारी भाषाओं को हीनतर साबित करने में हिंदी वालों ने कसर नहीं छोड़ी। वैसे ही जैसे आदिवासी भाषाओं को तो ध्यान देने योग्य माना ही नहीं। जैसा नागार्जुन ने एक मैथिली में लिखे लेख में कहा, इन भाषाओं ने हिंदी के लिए जगह बनाई लेकिन हिंदी ने इन्हें ही इनके घर में घुसकर इन्हें दुत्कार दिया।
देवनागरी लिपि में लिखी जानेवाली हिंदी के आरंभ में जो उर्दू विरोधी घृणा है, उसे समझे बिना इस हिंदीवाद को नहीं समझा जा सकता जो दूसरों को हीन मानकर और खुद को सर्वश्रेष्ठ मानकर चलता है। इस ग्रंथि के कारण हिंदीवादी संस्कृत से तो अपना रिश्ता दिखलाना चाहते हैं लेकिन यह नहीं मानना चाहते कि वे भोजपुरी, आदि भी हिंदी की माताएँ हो सकती हैं। वे इन भाषाओं को हिंदी की उपभाषा ठहराना चाहते हैं।
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अभी हिंदी को लेकर जो नया गर्व अभियान चलाया जा रहा है, उसमें एक चतुराई है। कहा जा रहा है कि भारत की सभी भाषाओं को समान अधिकार है लेकिन राज्यों को आपस में हिंदी में व्यवहार करना चाहिए। संगीतज्ञ टी एम कृष्णा ने ठीक ही इस चालाकी को समझा है।
इस बार अंग्रेज़ी को सामने खड़ा करके हिंदी को उसकी जगह कबूल करने के लिए कहा जा रहा है। अंग्रेज़ी का मतलब यहाँ बाहरी से है। लेकिन जैसा कृष्णा कहते हैं, अब अंग्रेज़ी को बाहरी मानने का अब कोई कारण नहीं है। वास्तव में अंग्रेज़ी के सहारे बाहरी और भीतरी की राजनीतिक भाषा को ही स्थापित करने का प्रयास किया जा रहा है।
जब भारतीय भाषा और अंग्रेज़ी को आमने सामने रखा जाता है तो भारतीयतावाद की राजनीति को ही चालाकी से भाषा के माध्यम से स्थापित किया जाता है। और उसका लाभ हिंदीवाद को ही मिलने वाला है।
अगर उत्तर पूर्वी राज्यों में हिंदी अध्यापकों की विशेष बहाली की बात की जाएगी और हिंदी को अनिवार्य बनाया जाएगा तो जाहिर है, हिंदी को विशेष सुविधा दी जा रही है जो दूसरी भाषाओं को हासिल नहीं है। हिंदी दिवस या हिंदी माह में जो भी संसाधन लगता है, वह भारत के सभी भाषा भाषियों का है। वह मात्र हिंदी में क्यों लगे?
हिंदीवाद से अलग अगर हम इस पर विचार करें कि इस हिंदी में है क्या तो हमें निराशाजनक सच्चाई का सामना करना पड़ता है। अंग्रेज़ी दुनिया की सारी भाषाओं को अपने भीतर अनुवाद के सहारे जगह देती है और इस तरह खुद को अनिवार्य बनाती जाती है। क्या हिंदी यह कर रही है?
हिंदी के संचार माध्यम क्या हिंदी पढ़ने वालों को उनकी दुनिया की सूचना भी ठीक ठीक देते हैं? क्या वे उसे गंभीर विचार का माध्यम बनाने के लिए ईमानदारी से काम कर रहे हैं?
अंग्रेज़ी कई कारणों से सीखी जाती है। हिंदीवादी विचार करें कि सरकारी संरक्षण न हो तो लोग किस कारण हिंदी सीखें? क्या है हमारे पास दुनिया को देने को। विडंबना यह है कि जिनके लिए बाहर वाले हिंदी सीखते हैं, मसलन अज्ञेय या कृष्णा सोबती या कुंवर नारायण, उनमें से कोई भी हिंदीवादी नहीं।
हिंदी बदनसीबी से अभी घृणा के प्रसार का माध्यम बन गई है। झूठ फैलाने का जरिया। जिनके हाथ में साधन हैं, वे हिंदी को विपन्न और नाकारा बना रहे हैं। वह नारों की और सतही भाषणबाजी की भाषा बनती जा रही है।
हिंदी का इस्तेमाल करने वालों के लिए यह अधिक फिक्र की बात होनी चाहिए। सिर्फ संख्या का बल दिखला कर दूसरों पर अपना प्रभुत्व जमाने की कोशिश वीरता नहीं, क्षुद्रता है।
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