साईबाबा ने 12 अक्तूबर की रात 8.36 मिनट पर आख़िरी साँस ली। उसके कुछ देर पहले उनके दिल ने काम करना बंद कर दिया था। डॉक्टरों ने वापस जान लाने की भरपूर कोशिश की।वह नहीं होना था। 57 साल के साईबाबा की मौत पित्ताशय की पथरी निकालने के बाद हुई पेचीदगी के कारण हो गई।पित्ताशय में पथरी और उसे निकलने की सर्जरी आम है।उसके चलते मौत हो जाए, यह असाधारण है। लेकिन ऐसा हो सकता है।मामूली से मामूली सर्जरी में गड़बड़ी हो सकती है और आदमी मर भी सकता है। डॉक्टर मित्र ने बतलाया कि पथरी निकालनेवाली प्रक्रिया में 1% आशंका मौत की है। साईबाबा उसी 1% में होने थे। ऐसे प्रसंग में हम मन मसोस कर रह जाते हैं लेकिन उसे स्वीकार कर लेते हैं। साईबाबा के साथ दुर्भाग्य से यही हुआ। लेकिन हम क्यों इसे सर्जरी से पैदा हुई पेचीदगी के चलते हुई मौत नहीं मान पा रहे?
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क्यों हमें लग रहा है कि साईबाबा की यह मौत मौत नहीं है, हत्या है? हत्या जिसकी ज़िम्मेवारी राज्य को और न्यायपालिका को लेनी ही चाहिए?
साईबाबा की मौत हमें नाइंसाफ़ी लग रही है। राज्य और न्यायपालिका के द्वारा नाइंसाफ़ी झेलने के बाद साईबाबा को इत्तफ़ाक़ से जो आज़ादी मिली थी उसकी ज़िंदगी सिर्फ़ 7 महीने की रही। इस मौत से जो सदमा पहुँचा है उसका कारण यह दोहरी नाइंसाफ़ी का अहसास है।
माओवादी पार्टी से संबद्धता, दहशतगर्द कार्रवाई में मदद आदि के इल्ज़ाम में यू ए पी ए के तहत साईबाबा को उम्र क़ैद की सज़ा दी गई थी।2014 में गिरफ़्तारी के बाद वे लगभग 8 साल जेल में रहे। 2022 में बंबई उच्च न्यायालय की एक पीठ ने पाया कि साईबाबा पर सारा इल्ज़ाम जिस बुनियाद पर लगाया गया था वही पोली थी। आरोप का आधार पुलिस ने बनाया था उनके घर से बरामद काग़ज़ात। इन काग़ज़ात के सहारे साबित किया गया था कि साईबाबा माओवादी कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़े थे, उसकी हिंसक कार्रवाई में उन्होंने मदद की।अदालत ने इस आरोप और इस सबूत को इसके लिए काफी माना कि उन्हें उम्र क़ैद की सज़ा दी जाए।
6 साल तक साईबाबा के जेल में रहने के बाद बाम्बे हाईकोर्ट ने पाया कि सबूतों की बरामदगी की पूरी प्रक्रिया दोषपूर्ण थी और उस आधार पर कोई सज़ा नहीं दे जा सकती। बरामदगी के दौरान न तो साईबाबा और न दूसरा कोई शिक्षित व्यक्ति वहाँ था। एक निरक्षर को पुलिस ने गवाह बनाकर पंचनामा तैयार किया।अदालत ने कहा कि इसे ऐसा सबूत नहीं माना जा सकता जिसके आधार पर यह मुक़दमा चले, और यह भी कि इतने गंभीर आरोप इतनी कमजोर प्रक्रिया के ज़रिए नहीं लगाए जा सकते।
साईबाबा मानवाधिकारों के लिए आवाज़ भर उठाते थे। क्या यह जुर्म है? क्या यह मानना जुर्म है कि कुछ लोगों की आज़ादी असली आज़ादी नहीं है। वह सबको मिलनी चाहिए?
बंबई की अदालत ने निचली अदालत की नाइंसाफ़ी को दुरुस्त किया था लेकिन उसी दिन सुप्रीम कोर्ट ने उस फ़ैसले पर रोक लगा दी। यह असाधारण था।आम तौर पर माना जाता है कि अदालतें व्यक्तिगत स्वतंत्रता के पक्ष में काम करेंगी।लेकिन साईबाबा को जो आज़ादी मिली थी सुप्रीम कोर्ट ने उसे तुरत छीन लिया। कई महीने बाद सुप्रीम कोर्ट ने बंबई हाईकोर्ट की एक दूसरी पीठ को फ़ैसले की समीक्षा करने को कहा। उस पीठ ने भी जाँच और सबूत इकट्ठा करने की प्रक्रिया को तो ग़लत माना ही, सारे इल्ज़ामों को भी ग़लत माना। इस तरह साईबाबा 7 मार्च को नागपुर की जेल से निकल पाए।
दिल्ली में साईबाबा की रिहाई के बाद हुई पहली सार्वजनिक सभा में उन्हें सुना। जेल के अपने अनुभवों को सुनाते हुए,अपनी माँ से मौत के पहले न मिल पाने की तकलीफ़ बयान करते हुए वे रो पड़े थे। बाद में मीडिया को उन्होंने बतलाया कि किस तरह नागपुर जेल के कुख्यात अंडा सेल ने उनको पूरी तरह तोड़ दिया था। पहले उन्हें बचपन में पोलियो से हुई असमर्थता थी। वे 90% विकलांगता के शिकार थे। जेल के अमानवीय जीवन ने उनमें तरह तरह की बीमारियों पैदा कर दीं और उनका शरीर पूरी तरह जर्जर हो गया। उन्हें कोविड भी हुआ और उसने दूसरी शारीरिक पेचीदगी पैदा की।
जेल होते ही रामलाल आनंद कॉलेज ने उनकी सेवा समाप्त कर दी। वहाँ वे अंग्रेज़ी पढ़ा रहे थे।उनकी पत्नी वसंता और बेटी मंजीरा ने भीषण धैर्य के साथ इस विकट परिस्थिति का सामना किया। इसी बीच मंजीरा की पढ़ाई हुई। मानवाधिकार से जुड़े किसी भी मुद्दे पर हमने वसंता को हर जगह मौजूद पाया। उन्होंने ख़ुद को ऐसे मसलों से दूर नहीं किया। इस बीच वे और उने वकील जीवट के साथ अपील करते रहे। आख़िर उन्हें तो यह मालूम था ही कि साईबाबा के साथ भारतीय राज्य और अदालत ने नाइंसाफ़ी की है।वसंता से बेहतर और कौन जानता था कि साईबाबा पर लगाए गए सारे इल्ज़ाम झूठे हैं। वे लड़ीं और अपने पति के साथ लगातार खड़ी रहीं। उन्होंने ख़ुद को टूटने नहीं दिया। अपनी गरिमा बनाए रखी।
इसका ख़तरा था कि एक के बाद एक नाइंसाफ़ी की बारिश के बीच हम साईबाबा को भूल जाएँ। हमारे सहकर्मी, अंग्रेज़ी के अध्यापक हैनी बाबू ने साईबाबा की रिहाई का अभियान चलाए रखा। यह ख़तरनाक था और आख़िरकार हैनी बाबू को इसकी सज़ा मिली। उन्हें भी भीमा कोरेगाँव हिंसा की साज़िश में एक अभियुक्त बनाकर गिरफ़्तार कर लिया गया। वे पिछले 4 साल से जेल में हैं।
जब साईबाबा 7 मार्च को जेल से निकले तो पहला ख़याल हैनी बाबू का आया। यह कैसी विडंबना थी कि जिस हैनी बाबू ने साईबाबा की आज़ादी के लिए इतने साल लड़ाई लड़ी, वह ख़ुद अपनी आज़ादी गँवाकर उस पल जेल में था। साईबाबा और हैनी बाबू की कहानी भारतीय जनतंत्र के वादे के टूटने की कहानी है। लेकिन वह एक साधारण जन के जनतांत्रिक जीवट की कहानी भी है।
साईबाबा की रिहाई के बाद उनसे मिलने वसंत कुंज के मकान पर गया। किंचित् संकुचित मुसकान के साथ अपनी व्हीलचेयर पर साईबाबा ने स्वागत किया। कविता श्रीवास्तव और फादर सेड्रिक प्रकाश के साथ दुबारा उनके मकान पर भेंट हुई।
साईबाबा को काम चाहिए था। वे लोगों की सहायता या सहानुभूति या दया के सहारे नहीं रहना चाहते थे।हम इस पर विचार कर रहे थे कि आरोपमुक्त होने और रिहाई के बाद उनके कॉलेज को क़ायदे उन्हें वापस कम पर लेने के लिए बाध्य करना चाहिए। यह दुर्भाग्य की बात है कि दिल्ली विश्वविद्यालय शिक्षक संघ के लिए यह विचारणीय मसला न था। इस एक म्माले से हमें यह भी मालूम होता है कि हमारे देश में अब पेशेवर बिरादरी भाव जैसी कोई चीज़ नहीं रही। अगर हमारा हमपेशा भिन्न राजनीतिक मत का है तो वह कितने ही अन्यायपूर्ण जुल्म का शिकार हो, बर्बाद हो जाए, हम पर असर नहीं होता। शायद हमें ख़ुशी ही होती हो!
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फिर साईबाबा ने जून में नीलाभ मिश्रा स्मृति व्याख्यान की अध्यक्षता की। वृंदा ग्रोवर ने राजनीति क़ैदियों पर व्याख्यान दिया। हमारी फ़ोन पर बातचीत होती रही। आगे कहाँ काम मिल सकता है, वे इसकी चिंता में थे। लेकिन अपने प्रति कोई दया भाव वे नहीं चाहते थे। मैं सोचता रहा कि आज के इस हिंदुस्तान में क्या किसी को हिम्मत है कि वह साईबाबा को काम दे सके?
यह सारा कुछ करने की ज़रूरत ही नहीं रही। एक मामूली सर्जरी ने साईबाबा को मौत तक पहुँचा दिया।लेकिन क्यों हम इसे मौत नहीं मान पा रहे? क्या हम अतार्किक हो गए हैं? लेकिन क्यों? क्या इसका जवाब भारतीय राज्य को और सर्वोच्च न्यायालय को नहीं देना चाहिए?
(जीएन साईबाबा अपडेटः जीएन साईबाबा ने वसीयत की थी, उनके शरीर के तमाम हिस्सों को हैदराबाद मेडिकल कॉलेज को दान कर दिया गया है। उनके पार्थिव शरीर के साथ एक यात्रा हैदराबाद में सोमवार को मौला अली से शुरू हुई और मेडिकल कॉलेज पर समाप्त हुई। फिर परिवार ने उनका पार्थिव शरीर मेडिकल कॉलेज के डॉक्टरों को सौंप दिया। तमाम जनसंगठनों ने आरोप लगाया है कि जेल के हालात और वहां उनसे हुए अमानवीय व्यवहार की वजह से जीएन साईबाबा की मौत हुई है।)
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