कल्पना सोरेन
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हेमंत सोरेन
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प्रशासनिक सेवाओं के लिए दिल्ली के कुछ सबसे मशहूर कोचिंग संस्थानों में एक ‘दृष्टि’ के संस्थापक और अध्यापक या कोच डॉक्टर विकास दिव्यकीर्ति हिंदुत्ववादी कोप के नए शिकार हैं। उनपर आरोप है कि उन्होंने सीता को लेकर आपत्तिजनक टिप्पणी की है। यह कोप कितना वास्तविक है, यह ख़ुद दिव्यकीर्ति के अनुभव से ही जाना जा सकता है। उनके अनुसार उनके जीवन में पहली बार उनके परिवार के लोग, बच्चे और उनके पड़ोसी तक उनकी सुरक्षा को लेकर आशंकित हैं।
उन्हें खबर मिली है कि उत्तर प्रदेश में कहीं उन पर एफआईआर भी की गई है। उत्तर प्रदेश की पुलिस हिंदुत्ववादी भावनाओं के प्रति कितनी संवेदनशील है, यह सब जानते हैं। सामूहिक बलात्कार का इरादा ज़ाहिर करने वाले हिंदुत्ववादी ‘संत’ की आलोचना नहीं, सिर्फ़ उसके इस कथन को प्रकाशित करना कितना जोखिम भरा काम है, यह तो मोहम्मद ज़ुबैर की गिरफ़्तारी से हमें मालूम हो गया है।
पुलिस तो पुलिस, राज्य के महाधिवक्ता भी अदालत में गिरफ़्तारी के पक्ष में दलील देते हैं कि भले ही ‘संत’ ने आपत्तिजनक बयान दिया हो, लेकिन इसके चलते उनकी आलोचना से उनकी प्रतिष्ठा की हानि होती है। वे आख़िर लाखों भक्तों के श्रद्धा के पात्र हैं। मोहम्मद ज़ुबैर ने ‘संत’ के अश्लील बयान को प्रकाशित करके उन श्रद्धालुओं की भावना को ठेस पहुँचाई, इसलिए उन्हें दंडित किया ही जाना चाहिए। इसलिए डॉक्टर दिव्यकीर्ति की यह आशंका निर्मूल नहीं है कि पुलिस कभी भी उनका दरवाज़ा खटखटा सकती है।
उनका क़सूर यह है कि उन्होंने अपनी एक कक्षा में रामकथा की परंपरा और उसके अलग-अलग रचनाकारों की दृष्टि को समझाने के क्रम में वाल्मीकि की रामायण और महाभारत के रामोपख्यान के प्रसंगों की चर्चा की और उन रचनाओं से उद्धरण दिए। मोहम्मद ज़ुबैर ने अपनी तरफ़ से कुछ नहीं कहा था, सिर्फ़ हिंदुत्ववादी संत को उद्धृत किया था।
दिव्यकीर्ति ने भी वाल्मीकि रामायण और महाभारत के प्रसंगों को उद्धृत भर किया था। उसके बाद उन्होंने इन रचनाकारों की दृष्टि का जो विश्लेषण किया, उसमें हिंदुत्ववादियों की रुचि नहीं है। वह इसलिए कि उस विश्लेषण से उन उद्धरणों का संदर्भ स्पष्ट हो जाता है जिनके सहारे यह आरोप लगाया जा रहा है कि डॉक्टर दिव्यकीर्ति ने राम और सीता का अपमान किया है।
इस प्रसंग के कारण ऐसी ही एक दूसरी घटना याद हो आई। कुछ वर्ष पहले जोधपुर के विश्वविद्यालय के एक सेमिनार में दिल्ली विश्वविद्यालय के दर्शन विभाग के अध्यापक प्रोफ़ेसर अशोक वोहरा ने भारतीय परंपराओं के पाश्चात्य अध्येताओं की आलोचना में एक पर्चा पढ़ा। उस पर्चे में प्रोफ़ेसर वोहरा ने उन पाश्चात्य अध्येताओं को उद्धृत किया जिनकी वे आलोचना करना चाहते थे। इन उद्धरणों के सहारे वे बताना चाहते थे कि इनसे उनकी असहमति क्यों है। लेकिन उनके ख़िलाफ़ पुलिस में शिकायत दर्ज कराई गई कि उन्होंने आपत्तिजनक बातें कही हैं जिनसे हिंदुत्ववादी भावनाओं को चोट पहुँची है।
बेचारे वोहरा साहब ने प्रधानमंत्री तक को ख़त लिखा यह बतलाते हुए कि वे तो उन उद्धरणों के सहारे बतलाना चाहते थे कि देखिए, पश्चिमवाले कितनी ग़लत बातें कहते हैं।
यह बात लेकिन डॉक्टर दिव्यकीर्ति को भी पता है कि एक पूरा तंत्र अहर्निश आहत हिंदू भावना के उत्पादन के लिए निरंतर काम कर रहा है। उसे ज्ञान चर्चा, वाद विवाद में रुचि नहीं। वह तंत्र नक़ली आहत भावना का उत्पादन करता है। यह एक नक़ली घाव है जिसे अपनी देह पर सजाकर ख़ुद को घायल दिखलाया जाता है।
क्यों परंपरावादियों के प्रिय तुलसीदास इस प्रसंग को अपनी रामकथा में जगह नहीं देते? क्यों वाल्मीकि की रामायण में शंबूक की हत्या करने में राम की पलक भी नहीं झपकती और क्यों भवभूति के राम का हाथ इस हत्या के पहले काँप उठता है? तुलसीदास इस प्रसंग का क्या करते हैं?
ये प्रश्न उन्हीं के मन में उठेंगे जिनकी रामकथाओं में रुचि है। जिनके लिए राम सिर्फ़ साधन हैं जो राजनीतिक सत्ता हासिल करने के लिए उपयोगी हो, उनकी रामकथा की इस विचित्र यात्रा को लेकर क्योंकर उत्सुकता होने लगी? जब राम की काल यात्रा का इतिहास लिखा जाएगा तो हिंदुत्ववादियों के राम की कथा क्या होगी? क्या राम अपने लिए कोई निर्णय कर पाने में सक्षम रह गए हैं?
अयोध्या में उनके अभिभावक बन बैठे हैं विश्व हिंदू परिषद के लोग जो उनके नाम पर जायदाद का मुक़दमा लड़ रहे हैं। राम असहाय भाव से ख़ुद को मुखौटा बनते देख रहे हैं।
लेकिन यह सब विषयांतर है। दिव्यकीर्ति की जिस 3 घंटे की क्लास से 45 सेकेंड का टुकड़ा प्रचारित करके हिंदुओं को उत्तेजित करने का प्रयास किया जा रहा है, वह आज की नहीं। कोई 4 साल पुरानी है। उस चर्चा में शामिल कुछ लोग हो सकता है अब प्रशासक या किसी प्रकार के अधिकारी हों। शायद वे कुछ बोलें। इससे अलग एक बात और कहनी है। अब प्रशासनिक सेवाओं के लिए आलोचनात्मकता या विश्लेषणात्मकता की आवश्यकता नहीं।
जब शिक्षा का उद्देश्य ही संघ मार्का प्राचीन संस्कृति का कीर्तन करना भर रह गया हो तो किसी परीक्षा में उस प्रकार के प्रश्नों की कोई आशंका नहीं जिनका उत्तर दे पाने के लिए वह सब जानना ज़रूरी होता जो दिव्यकीर्ति अपने छात्रों को बतला रहे थे।
क्या अब इस तरह का सवाल किसी प्रशासनिक सेवा की किसी परीक्षा में पूछा जा सकता है कि दलित या महिला दृष्टि से वाल्मीकि रामायण के सीता परित्याग या शंबूक की हत्या के प्रसंग पर विचार कीजिए। अब यह असंभव है। कोई परीक्षक यह प्रश्न पूछने की हिमाक़त या मूर्खता नहीं करेगा। यह पिछले 3 वर्षों के हिंदी के प्रश्न पत्रों को देखने से मालूम हो जाता है। इसीलिए दिव्यकीर्तिजी के द्वारा ग्रंथों को पढ़ने का सुझाव और उसके लिए इतना परिश्रम भी व्यर्थ है। और जब ये प्रश्न ही नहीं आएँगे तो कोई प्रत्याशी इन पुस्तकों की तरफ़ अपना क़ीमती वक़्त बर्बाद करने क्यों जाए?
यह सब कुछ समझ में तभी आना चाहिए था जब दिल्ली विश्वविद्यालय ने अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद की हिंसा और हिंदुत्ववादियों की क़ानूनी आपत्ति के बाद ए के रामानुजन के लेख “तीन सौ रामायण” को यह कहकर हटा दिया था कि इसको पढ़ने की ज़रूरत ही क्या है। इतनी सारी चीज़ें हैं, विद्यार्थी वे पढ़ें, इस लेख को नहीं पढ़ेंगे तो उनका जीवन व्यर्थ तो नहीं होगा!
यही बात अब पुलिस डॉक्टर दिव्यकीर्ति को कह सकती है या उनके ख़िलाफ़ आरोप पत्र में अदालत को कह सकती है कि वे इन असुविधाजनक प्रसंगों से छात्रों को परिचित करा के जान बूझकर उनके दिमाग़ में ख़लल पैदा करना चाहते हैं। इससे बड़ा अपराध क्या हो सकता है?
मेरे मित्र ने मुझे सत्यजित राय की फ़िल्म “हीरक राजार देशे” का वह दृश्य याद दिलाया जिसमें राजा दरबारियों से पूछता है, “अध्यापक का क्या करें?” दरबारी जवाब देते हैं कि उसे आज़ाद रखना ख़तरनाक है। जितना पढ़ेंगे, उतना सोचेंगे। और सोचने से ही सारी मुश्किल खड़ी होती है। अध्यापक पढ़ने को कहता है ताकि हम सोचें। तो क्यों न अध्यापक को ही गिरफ़्तार कर लें?
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