2020 की दिल्ली की हिंसा क्या जाफ़राबाद में भीम आर्मी के भारत बंद के आह्वान के बाद मुसलमान औरतों द्वारा सड़क पर बैठ जाने की वजह से भड़की? या, क्या उसका कारण बीजेपी नेता कपिल मिश्रा के द्वारा उस सड़क जाम के ख़िलाफ़ एक उत्तेजक रैली और भाषण है? मिश्रा के भाषण में निश्चय ही उकसावा था और उनके जमावड़े में हिंसा के सारे बीज थे। लेकिन क्या हिंसा उस दिन या उसके बाद शुरू हुई?
आप कह सकते हैं कि हत्या, लूटपाट और आगजनी 24 फ़रवरी से शुरू हुई लेकिन इस हिंसा की तैयारी और उकसावा इसके काफी पहले से, यानी दिल्ली में चुनाव प्रचार के दौरान ही शुरू हो गया था। झारखंड के दुमका में हुई चुनावी रैली में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का नागरिकता क़ानून का विरोध करने वालों को कपड़ों से पहचानने के लिए कहना, गृह मंत्री अमित शाह का बार-बार अपने वोटरों को शाहीन बाग़ की औरतों को करेंट देने के लिए उकसाना, एक केन्द्रीय मंत्री द्वारा देश के “गद्दारों” को गाली देकर गोली मारने का नारा लगवाना, दिल्ली के एक बीजेपी सांसद द्वारा हिन्दुओं को यह कह कर डराना कि शाहीन बाग़ में शैतान छिपे बैठे हैं जो किसी भी दिन उनकी माँ-बहनों का बलात्कार करेंगे, ये सब उकसाने वाले बयान थे।
विधानसभा चुनाव से पहले प्रधानमंत्री की दिल्ली के रामलीला मैदान में हुई रैली के समय तक जामिया मिल्लिया इस्लामिया, अलीगढ़ मुसलिम यूनिवर्सिटी और उत्तर प्रदेश में पुलिस की ज़्यादती की कहानियाँ सामने आ चुकी थीं। लेकिन इस रैली में अपने भाषण में प्रधानमंत्री ने जनता से पुलिस का आदर करने, उसके बलिदान को याद करने और दिल्ली में उसके लिए बनाए गए स्मारक पर जाकर पुलिस के प्रति श्रद्धा व्यक्त करने के लिए कहा। अब तक सेना को श्रद्धेय बनाया गया था जिसपर आप कोई सवाल नहीं कर सकते, अब पुलिस को आदरणीय बनाया जा रहा है।
इसके पहले और बाद में मुझे हरियाणा से ऐसे वीडियो भेजे गए जिनमें नौजवानों का झुंड “पुलिस तुम लट्ठ बजाओ, हम तुम्हारे साथ हैं” का नारा लगाते हुए झूमते हुए आक्रामक ढंग से घूम रहा है। इसके साथ यह नारा भी लगाया गया कि “मोदीजी लट्ठ बजाओ, हम तुम्हारे साथ हैं।”
पुलिस और अपने प्रधानमंत्री को लगभग एक ही मानना और उन्हें लट्ठबाज कहना, यह भी भारत के लिए नया है। लेकिन इन सबसे हमें सावधान हो जाना चाहिए था। इसलिए कि हिंसा हवा में घोली जा रही थी और वह कभी भी सड़क पर उतर सकती थी। लेकिन इन संकेतों को ठीक से पढ़ा नहीं गया।
सरकार की ओर से संगठित हिंसा
यह सबकुछ उस हिंसा की तैयारी थी जो एक तरह से 23 फरवरी को जाफ़राबाद में धरने पर बैठी महिलाओं के सामने दूसरी तरफ भीड़ की उत्तेजना से प्रकट हो रहा था। यह बात सबको समझनी चाहिए कि सड़क पर बैठकर विरोध इस देश में कोई पहली बार नहीं हो रहा है। सरकार या राज्य पर दबाव डालने के लिए कई बार, कई जगहों पर यह किया जा चुका है। लेकिन यह आंदोलनकारियों और सरकार के बीच की बात ही रहा करती थी। समाज के दूसरे तबक़ों ने कभी किसी आंदोलनकारी समूह पर हमला नहीं किया। न उनके ख़िलाफ़ कोई घृणा अभियान चलाया। यह पहली बार था कि एक आंदोलन के ख़िलाफ़ सरकार की तरफ से संगठित हिंसा की जाए।
27 फरवरी को हत्या और आगजनी प्रायः रुक गई। उसके कुछ दिन बाद मेरे एक युवा मित्र ने ट्रिब्यून अखबार की एक खबर की कतरन मुझे भेजी। हरियाणा के झज्झर में मुसलमानों को गाँव खाली करने की धमकी की खबर थी। फिर यह दिल्ली के सीमावर्ती इलाक़ों से भी सुना जाने लगा। हम, हमारे सामाजिक समूह या राजनीतिक दल भी यह सुन रहे होंगे। क्या वे इन इलाक़ों में इस तरह की धमकी की हिंसा का कोई प्रतिकार कर रहे हैं?
युद्ध के लिए उकसाने की कोशिश
उसी युवा मित्र ने मुझे फिर बताया कि कैसे उनके समुदाय, यानी जाटों के बीच मुसलमान विरोधी नफरत का सघन और व्यापक प्रचार किया जा रहा है। जाटों की प्रचलित छवि की चर्चा करके उनसे सहानुभूति जाहिर की गई है। यह कहा गया है कि उनके रूखेपन के लिए दरअसल उनका अतीत जिम्मेदार है। इस अतीत में इसलाम से उनके युद्ध की कहानी है। लगातार इसलाम को सीमा पर रोकने के लिए लड़ते हुए वे ज़रा रूखे हो गए तो क्या ताज्जुब! उन्हें हिंदू धर्म का रक्षक बता कर आज फिर उस युद्ध के लिए उकसाया जा रहा है।
इस भड़कावे की एक बानगी आगे दी जा रही है। इसमें जाटों का महिमामंडन किया गया है। लेकिन यह महिमामंडन निर्दोष नहीं है। उन्हें किसी काल्पनिक अतीत की इसलाम विरोधी वीरता की याद दिलाई जा रही है। सीधे तौर पर तो नहीं लेकिन आज उनसे उनके सामने दिखने वाले इसलाम का सामना करने को कहा जा रहा है। यह संदेश जिस रूप में प्रसारित हो रहा है, आप उसे ठीक वैसे ही पढ़ें -
'साभार
एक राजपूत भाई की वाल से
मै जाति से राजपूत हूँ, लेकिन आज एक #जटवाड़ी पोस्ट लिख रहा हूं।
जाट/जट का अर्थ होता है चौधरी ...!
#बारह_बरस_ले_कुकुर_जीये_औ_सोलह_ले_जिये_सियार।
#बरस_अट्ठारह_क्षत्रिय_जिये_त_ओकरे_जीये_पे_धिक्कार।।
अजी साहब बहुत भेदभाव हुआ दलितों के साथ। उनसे खेतों में काम कराया गया। हरवाही कराई गई। गोबर उठवाया गया। उन्हें शिक्षा से वंचित रखा गया।
साहब बहुत जुल्म हुआ दलितों पे..!
यह बात बहुत जोरों से सोशल मीडिया, मास मीडिया के माध्मय से लोगों को बताई जा रही है।
परन्तु जहाँ मौक़ा मिले, जाटों को कभी आरक्षण तो कभी उनके बोलचाल के ढंग तो कभी किसी अन्य कारण से टारगेट करते हैं।
मगर 1400 साल पहले...इसलाम की तलवार लपलपाते हुए निकली तो ...एक झटके में ही...ईरान, इराक, सीरिया, मिश्र, दमिश, अफ़ग़ानिस्तान, कतर, बलूचिस्तान से ले के मंगोलिया और रूस तक ध्वस्त होते चले गए।
स्थानीय धर्मों, परम्पराओं का तलवार के बल पर लोप कर दिया गया और सर्वत्र इसलाम ही इसलाम हो गया। इसलाम का झंडा शान से आसमान चूमता हुआ अफ़ग़ानिस्तान होते हुए सिंध के रास्ते हिंदुस्तान पहुंचा। पर यहां पहुंचते ही इसलाम की लगाम आगे बढ़ के जाट क्षत्रियों ने थाम ली जिसके कारण भीषण रक्तपात हुआ।
आठ सौ साल तक जाट राजवंशों से ले के आम क्षत्रियों ने इसलाम की नकेल ढीली न पड़ने दी। इनका साथ भी दिया राजपूतों ने, गुर्जरों ने, यादवों ने, ब्राह्मणों ने, वैश्यों ने..! पर सबसे ज्यादा जाट ही फ्रंटलाइन पर रहे क्योंकि इनकी उपस्थिति दिल्ली से पंजाब तक थी..!
असली लड़ाई जाटों (क्षत्रिय) ने ही लड़ी..! जिसका नतीजा यह हुआ कि इसलाम यहीं फंस के रह गया और आगे नहीं बढ़ पाया। परिणामतः - चाइना, कोरिया, जापान, नेपाल जैसे भारत के पूर्वी राज्य इसलाम के हमले से बच गए।
इतना सब कुछ झेलने के बाद भी कहीं किसी इतिहास में यह नहीं मिलेगा कि इसलाम के ख़िलाफ़ लड़ाई में जाटों ने खुद न जा के किसी और जाति को मरने के लिए आगे कर दिया। हाँ जहाँ जाट नहीं थे वहां राजपूत, मराठा, गुर्जर, यादव भी लड़े। बाकी जातियों में जो लड़े वो आत्मरक्षार्थ ही लड़े। जाट अपने नाबालिग बेटे कुर्बान करते रहे पर कभी अपने कर्म से विमुख न हुए। सामाजिक-जातीय वर्ण व्यवस्था का पूरा ख्याल रखा। जिसके वजह से आज की हिन्दू पीढ़ी मुसलमान होने से बची रह गई।
जाट, राजपूत, मराठों में आपसी मतभेद होने की वजह से मुसलमानों का भारत पर अधिकार तो हो गया लेकिन 800 सालों में भी भारत को इसलामिक देश नहीं बना पाये। तब जाटों के नाम से ही मुगल थरथराते रहे। कभी महाराज सूरजमल तो कभी महाराज रणजीत सिंह के नाम से। वे जाट ही थे जिन्होंने जिन्होंने मुगलों को मरने के बाद भी चैन नहीं लेने दिया। कभी मुगलों के साथ वैवाहिक संबंध नहीं रखे।
पूरा समाज सदा ही जाटों का ऋणी रहेगा।⚔'
मेरे मित्र ने, जो जाट समुदाय के ही हैं मुझे ऐसे संदेशों को मजाक में उड़ा देने की आदत से सावधान किया। उन्होंने कहा कि आधुनिक शिक्षा सामुदायिकता के पुराने बोध पर शायद ही असर डाल पाई है। हमने योगेन्द्र यादव जैसे मित्रों को भी खाप पंचायत के सकारात्मक रोल की चर्चा करते सुना है। ऐसी स्थिति में इस संदेश के असर की कल्पना की जा सकती है।
दूर अतीत से एक याद को निकट के अतीत की एक याद से जोड़ा जाता है। इसलाम को रोकना क्यों ज़रूरी था, यह समझने के लिए 2013 के मुज़फ़्फ़रनगर की घटनाओं की याद दिलाई जाती है। यह हिंदू धर्म के लिए नहीं, अपनी बहन-बेटियों की इज्जत बचाने के लिए भी ज़रूरी है। इस संदेश को भी पढ़िए।
'मुजफरनगर दंगे : जाट भाइयों सचिन और गौरव याद हैं या भूल गए
सचिन और गौरव वे दो भाई थे जिन्होंने अपनी बहन की इज्जत बचाने के लिए अपनी जान कुर्बान कर दी। शाहनवाज नाम का एक गुंडा रोज उनकी बहन को स्कूल आते-जाते छेड़ता था। यह पश्चिमी उत्तर प्रदेश की हिन्दू लड़कियों के लिए आम बात थी। सचिन और गौरव की बहन भी यही भुगत रही थीं। वे पढ़ाई बंद हो जाने के डर से अपने घर वालों से भी इस बात को छुपा रही थीं। लेकिन एक दिन तो हद हो गई। शाहनवाज ने सरेआम उनकी बहन का हाथ पकड़ लिया और खींच कर ले जाने लगा। लेकिन भीड़ के इकट्ठा होने के कारण वह भाग निकला। जैसे ही यह बात सचिन और गौरव को पता चली उनका खून खौलने लगा, वे दोनों शाहनवाज और उसके साथियों को सबक सिखाने की सोचने लगे और सीधा उसके गांव कवाल गए और उसे धमकाने लगे। देखते ही देखते हाथापाई होने लगी, शाहनवाज ने शोर मचा कर अपने पूरे परिवार को इकट्ठा कर लिया। सब लोग दोनों भाइयों पर टूट पड़े...जब इसकी रिपोर्ट लिखाने सचिन और गौरव के परिवार वाले थाने पहुंचे तो आजम ख़ान के फ़ोन से उल्टा इन्ही के परिवार के 5 लोगों को शांति भंग करने के आरोप में जेल में डाल दिया।
जाट महापंचायत से लौट रहे लोगों पर अंधाधुंध गोलियां चलाई गयीं। जाट महापंचायत को भी ग़ैर-क़ानूनी करार दे दिया। वहीं, दूसरी ओर बीएसपी के सांसद क़ादिर राणा ने मुसलिमों की पंचायत बुलाई जिसे समाजवादी सरकार ने नहीं रोका। इसे बीएसपी, एसपी, आरएलडी और कांग्रेस के मुसलिम नेताओं ने संबोधित किया और धमकी दी कि अगर सचिन और गौरव के परिवार को छोड़ा गया या किसी भी मुसलिम की गिरफ़्तारी की तो दंगा होगा। अखिलेश की समाजवादी सरकार ने वोट बैंक के आगे घुटने टेक दिए। उधर, जाटों के समर्थन में बाकी हिन्दू जातियां उतर आयीं जिनमे पंडित, ठाकुर, गड़रिया, नाई आदि सभी थे। जब जाट इस ज़रूरत की घड़ी में अपने तथाकथित मसीहा चौधरी अजित सिंह को ढूंढ रहे थे, उस समय इस डर से कि मुसलिम वोट नाराज हो जाएगा, अजित सिंह दिल्ली भाग गया। बाक़ी पार्टियों के जाट नेताओं का भी यही हाल था। इस समय जाटों की मदद के लिए जो नेता आये, उनमें बीजेपी के संजीव बालियान (जाट), हुकम सिंह (गुर्जर), संगीत सोम, सुरेश राणा (दोनों ठाकुर) प्रमुख थे। सरकार के विरोध के बावजूद पंचायत हुई और बड़ी पंचायत हुई। पंचायत के बाद जब सब लोग अपने गाँवों की और जाने लगे तो पंचायत में भाग लेने आये लोगों पर मुसलिम इलाक़ों में हमला शुरू हो गया। जिससे ऐसी आग लगी कि पूरा पश्चिमी उत्तर प्रदेश जलने लगा।
आज जब कुछ युवाओं को देखता हूँ कि वे भी खासकर जाटों को जो ये कहते हैं कि जयंत चौधरी या अखिलेश युवाओं के नेता हैं और प्रदेश बदलेंगे तो मुझे सचिन और गौरव की याद आ जाती है। क्या अगर वे आज जिन्दा होते तो वे भी यही कहते। क्या वे भी इन लिब्रान्डुओं या अखिलेश का समर्थन करते? आप को क्या लगता है?'
यह प्रचार किस राजनीतिक दल के लिए किया जा रहा है, यह समझना मुश्किल नहीं है। मेरे युवा मित्र ने जो अपने समुदाय के नौजवानों और बुजुर्गों से लड़ते रहते हैं, मुझसे कहा कि अगर इस विषैले प्रचार का कोई प्रतिकार न किया गया तो दिल्ली के मुसलमानों का सुरक्षित रहना कठिन होगा। यही नहीं, उन्होंने बहुत तकलीफ़ से लिखा, ‘हम बर्बाद हो रहे हैं।’
दिल्ली के इर्द-गिर्द जाट, गुर्जर और अहीर समुदाय की जनसंख्या का घेरा है। इन समुदायों के बीच इस प्रकार के संदेशों के ज़रिए इनका सैन्यीकरण और हिंदुत्वीकरण करने की कोशिश हो रही है। सिर्फ़ इन समुदायों का ही नहीं, हर प्रकार की जाति में जाति की भावना को उदात्त स्तर पर प्रतिष्ठित करने की कोशिश हो रही है। ब्राह्मण फिर से ब्राह्मण, क्षत्रिय नए सिरे से क्षत्रिय, यादव यादव बनाया जा रहा है। उनमें एक नया तत्व डाला जा रहा है, वह है - मुसलमान विरोधी घृणा। इन दोनों के मेल से एक नये किस्म के हिंदुत्व का जन्म होता है। जो हिंसा दिल्ली में इस फ़रवरी में हुई, वह कहीं भी, कभी भी दुहराई जा सकती है। मेरे मित्र की बेचैन पुकार कोई सुने, हम बर्बाद हो रहे हैं। यह बचाने की गुहार है। क्या कोई सुन रहा है?
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