मूर्खता की राष्ट्रीय, नहीं, नहीं, अंतरराष्ट्रीय परीक्षा आयोजित की जा रही है। इसमें उत्तीर्ण होने पर आप प्रामाणिक रूप से मूर्ख घोषित किए जा सकेंगे। अनौपचारिक मूर्खता को औपचारिक, आधिकारिक स्वीकृति दिए बिना वह इस आधुनिक राष्ट्र राज्य की संप्रभुता वाले समाज में खुद को लेकर आश्वस्त नहीं हो पाती। व्यक्तिगत मूर्खता को राज्य का आश्रय मिलने पर उसमें आत्मविश्वास पैदा होता है। वह राष्ट्रीय उत्थान में सक्रिय भूमिका निभा सकती है।
जब यह पंक्तियाँ लिख रहा हूँ, देश में दावा है कि दूसरे देशों में भी 5 लाख लोग गौ ज्ञान-विज्ञान प्रचार-प्रसार परीक्षा में शामिल हो रहे हैं। इसे कामधेनु आयोग आयोजित कर रहा है। ज्ञान-विज्ञान कहने से रुआब पड़ता है। भारत की एक ग्रंथि विज्ञान भी है। हमारे बचपन में यज्ञोपवीत संस्कार के बाद लघुशंका निवारण के समय उसे कान पर लपेटने का वैज्ञानिक कारण बतलाया गया था।
विज्ञान की श्रेष्ठता अंतिम
बिना आधुनिक विज्ञान की कसौटी पर कसे और उससे स्वीकृति का दावा किए भारतीय सांस्कृतिक परम्पराएँ आदरणीय नहीं महसूस करतीं या उन्हें कमतर दर्जे का अहसास होता है। कर्मकांड को उचित ठहराने के लिए उन्हें वैज्ञानिक ठहराना आवश्यक है। इसमें हीनताबोध है। विज्ञान की श्रेष्ठता पहले से मान ली गई है और उसकी कसौटी ही अंतिम है, यह भी स्वीकार कर लिया गया है।
गौ ज्ञान-विज्ञान प्रचार प्रसार परीक्षा के नाम में ही इसका भेद छिपा हुआ है। प्रचार-प्रसार ज्ञान व्यापार के शब्द नहीं हैं। आप इसे प्रोपेगेंडा का अनुवाद मान लीजिए।
गाय के फायदे
तो गौ संबंधी कौन सा ज्ञान या विज्ञान है जिसका प्रचार आवश्यक है? क्या गाय से आम भारतीय का परिचय नहीं है? हम सबके लिए गाय अत्यंत परिचित प्राणी हुआ करती थी। गाय निबंध के लिए अध्यापकों की सबसे प्रिय विषय हुआ करती थी। इस तरह वह परीक्षोपयोगी प्राणी भी थी। वह एक घरेलू चौपाया जानवर है, दूध देती है। उसके गोबर का जलावन के रूप में और मिट्टी के घर, दीवालों और फर्श को लीपने में इस्तेमाल से भी हम परिचित थे। उसका माँस कई समुदायों में भोज्य है और उसके चमड़े और शरीर के बाकी अंगों का उपयोग भी कुछ को पता था। बच्चों के लिए वह दूध के साथ आसानी से अंक दिलाने वाली प्राणी भी थी। यह भी मज़ाक न था कि विषय कुछ भी हो, लेख गाय पर ही लिखकर आना है।
गाय का दोहन दूध और अंक के अलावा राष्ट्रवाद के लिए भी किया जा सकता है, यह बात राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को भली-भाँति ज्ञात है। प्रभावी राष्ट्रवाद के लिए जनता में मूर्खता का आधार दृढ़ होना अनिवार्य है।
दैवीय अवतार हैं ट्रम्प!
हाल में अमेरिकी संसद पर जिन लोगों ने हमला किया, वे मानते थे कि ट्रम्प दैवीय अवतार हैं। उनसे बात करने पर उनकी मूर्खता की गहराई का अंदाजा मीडिया को हुआ। लेकिन उस मूर्खता के बिना उनका श्वेत श्रेष्ठतावाद और उनकी हिंसा में वह बल संभव न था।
क्रूरता होती रहे, हम अपने पड़ोसियों से नफ़रत कर उनके ख़िलाफ़ हिंसा करते रहें, इसके लिए शायद हमारा मूर्ख होना भी ज़रूरी है। या संभवतः इस तरह की घृणा और हिंसा अपने आप में एक प्रकार की मूर्खता है। क्योंकि ध्यान दें तो यह अतार्किक है। उसे जायज़ ठहराने के लिए मूर्खतापूर्ण तर्क खोजने पड़ते हैं।
यह सुनकर मुसलमान दंग रह जाते हैं कि वे सामूहिक तौर पर हिंदू लड़कियों को प्रेमजाल में फँसाने की साज़िश कर रहे हैं, यह किसी अहमक के दिमाग़ की उपज लगती है। उसी तरह यह कहना मूर्खता नहीं तो और क्या है कि हिंदू सीधे तवे पर रोटी सेकता है तो मुसलमान उलटे तवे पर, हिंदू जो करता है, मुसलमान ठीक उसके उलटा करता है, वग़ैरह, वग़ैरह!
हम जानते हैं कि इनके बिना मुसलमानों के ख़िलाफ़ संदेह, घृणा और हिंसा नहीं भड़काई जा सकती। इसके बिना ऐसी जनता का निर्माण नहीं हो सकता जो अपने हितों के ख़िलाफ़ काम करने वाली सरकार को ही दुबारा चुन ले। इसी से झल्लाकर 2017 में एक चुनाव सभा में हार्दिक पटेल ने कहा था कि गुजरातियों को अपने माथे पर लिखवा लेना चाहिए कि मैं गुजराती हूँ, मैं मूर्ख हूँ! यानी मैं बार-बार ऐसे दल को वोट दे रहा हूँ जो मुझे ही तबाह कर रहा है। क़ायदे से हार्दिक पटेल पर गुजरातियों की मानहानि का मुक़दमा दायर हो जाना चाहिए था। क्यों नहीं हुआ?
सांस्कृतिक या राजनीतिक मूर्खता
क्या जो इस स्तर पर मूर्ख है, वह अपने जीवन के हर पक्ष में मूर्ख होता है? मेट्रो मैन के नाम से मशहूर श्रीधरन साहब ने अभी-अभी भारतीय जनता पार्टी में शामिल होने के लिए जो तर्क दिए, उन्हें सुनकर उनके प्रशंसकों ने माथा पकड़ लिया। इसको इतने वक्त तक किन पर्दों में छिपाकर रखा था! जो अपने पेशे में दक्ष हो वह भी सांस्कृतिक मूर्खता या राजनीतिक मूर्खता का शिकार हो सकता है। बल्कि प्रायः दोनों का सह अस्तित्व देखा जाता है।
लेकिन आंशिक मूर्खता से काम नहीं चलता। संपूर्ण मूर्खता संपूर्ण समर्पण के लिए आवश्यक है। मूर्ख का जीवन सरल होता है। सोचने में मेहनत है, उसके लिए बहुत कुछ जानना और फिर जाने हुए की जाँच करनी होती है। दिमाग़ पर इतना ज़ोर कौन दे! लेकिन एक व्यक्ति को मारना जितना कठिन होता है, उतना ही कठिन होता है उसे संपूर्ण रूप से मूर्ख बना पाना।
संपूर्ण मूर्खता के लिए समाज में मूर्खता का वातावरण बनाना पड़ता है। मूर्खता का निरंतर अभ्यास, बहुविध अभ्यास किया और करवाया जाता है। मूर्खता से भावनात्मक सुख, प्रभुत्व का आनंद जोड़ दिया जाए तो लोग जल्दी मूर्ख बन सकते हैं।
मूर्खता का राजनीतिक उपयोग
श्वेत सर्वश्रेष्ठ हैं, एक मूर्खतापूर्ण वक्तव्य है। लेकिन अनेकों के लिए सुखकर है। उसी तरह जैसे यह कि भारत की सभ्यता 12 हज़ार से 15 हज़ार साल पुरानी है या भारत ने ही स्टेम सेल चिकित्सा प्रणाली का आविष्कार किया था। इनमें यक़ीन करनेवाले मूर्ख हैं और उनकी इस मूर्खता का राजनीतिक उपयोग भी है।
मूर्खता का महिमामंडन
इसलिए इस सरकार ने आते ही बुद्धि के विरुद्ध युद्ध तो छेड़ ही दिया, मूर्खता का महिमामंडन भी आरम्भ कर दिया। लेकिन जैसा प्रेमचंद ने कहा था कि सांप्रदायिकता को अपने नग्न रूप में निकलते लज्जा आती है, इसलिए वह संस्कृति की खाल ओढ़कर बाहर निकलती है, वैसे ही कहा जा सकता है कि मूर्खता को नंगे बाहर निकलते शर्म आती है तो वह ज्ञान-विज्ञान की खाल ओढ़कर ही विचरण करती है।
जैसे पोलियो निवारण के बारे में कहा जाता है कि कोई अगर एक भी टीका लेने से रह गया तो वह चक्र अधूरा रह जाता है, उसी प्रकार मूर्खता के सर्वव्यापीकरण में कोई छिद्र न रह जाए, इसका पूरा जतन किया जाता है। मूर्खता स्वैच्छिक होती है। आगे बढ़कर उसका वरण करना होता है।
इसीलिए गौ ज्ञान-विज्ञान प्रचार प्रसार परीक्षा में नामांकन स्वैच्छिक था। आप सरकार पर आरोप नहीं लगा सकते कि उसने इसे जनता पर आरोपित किया है। विश्वविद्यालय अनुदान आयोग या कामधेनु आयोग ने सिर्फ़ इसके लिए लोगों को प्रेरित करने का अनुरोध किया है।
सारे कुलपतियों, संस्था प्रमुखों ने मूर्खता के इस सर्वव्यापीकरण अभियान में योगदान किया होगा। प्रोफ़ेसर कृष्ण कुमार ने बताया कि चंडीगढ़ में दूध की दुकानों में इस परीक्षा की पुस्तिका उपलब्ध थी।
मूर्खताकरण की राजकीय पद्धति
ये कुछ ही नगीने हैं उस पाठ्यक्रम के जिससे गुजरकर आप गो ज्ञान में दीक्षित होंगे। यह पाठ्यक्रम क्या है, मूर्खतापूर्ण दावों का एक सिलसिला है। आप उसे कुंजी मान लीजिए। मूर्खता का आधिकारिक या राजकीय तमग़ा चाहिए तो अपने रास्ते मूर्खता के पथ पर चलने की अनुमति आपको नहीं। मूर्खताकरण की राजकीय पद्धति का ही पालन करके ही आप आधिकारिक मूर्ख घोषित किए जा सकते हैं।
मूर्खता को आभूषण की तरह धारण कर उसका सार्वजनिक प्रदर्शन वह आख़िरी स्तर है जो सत्ता को तुष्ट करता है कि जनता अब अपनी मूर्खता पर गर्व करने लगी है। तो आप क्या मूर्खता की इस राष्ट्रवादी दौड़ में शामिल न होंगे?
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