‘भारत जोड़ो यात्रा’ रफ़्तार पकड़ चुकी है। जैसा तस्वीरों से जान पड़ता है, वह केरल के जिन रास्तों से गुज़र रही है, उनके आस पास के लोगों में उसके प्रति उत्सुकता और उत्साह है। साधारण जनता की एक प्रकार की स्वतः स्फूर्त उल्लासपूर्ण प्रतिक्रिया देखी जा सकती है। लेकिन हिंदी के अख़बार और टेलीविज़न चैनल अभी भी उसे नज़रंदाज़ करने की कोशिश कर रहे हैं। वैसे लोग जिन्हें राजनीतिक विश्लेषक कहा जाता है, इस यात्रा को लेकर संशय से भरे हुए हैं। यात्रा के प्रति उनमें संदेह का मतलब है, उसके असर और नतीजे को लेकर शंका।
पत्रकार भी पूछ रहे हैं कि आख़िर इससे होगा क्या। क्या जिन राज्यों में चुनाव होने वाले हैं, उनके मतदाताओं को यह प्रभावित कर पाएगी? क्या 2024 के चुनाव पर इसका कोई असर पड़ेगा?
कुछ कह रहे हैं कि जहाँ चुनाव होने वाले हैं, उन राज्यों से तो यह गुज़र भी नहीं रही! बिहार, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान जैसे राज्यों में यह वक्त नहीं गुज़ार रही। फिर उनके मतदाताओं को यह कैसे प्रभावित करेगी?
सामाजिक और सांस्कृतिक प्रश्न
ये प्रश्न स्वाभाविक हैं। पिछले 75 सालों में राजनीति का अर्थ चुनावी जीत-हार तक ही सीमित रह गया है। वह सत्ता हासिल करने से अलग कुछ बड़े सामाजिक या सांस्कृतिक प्रश्नों से भी जूझ सकती है, यह हम भूल गए हैं। उस मामले में सिर्फ़ एक राजनीतिक संगठन है, जो खुद को सांस्कृतिक कहलाना चाहता है जो इन प्रश्नों पर रात दिन सक्रिय है। वह है राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ। भारत कैसा होगा, उसके समाज में समुदायों के बीच के रिश्ते किस क़िस्म के होंगे, इन सवालों को जैसे आरएसएस के लिए छोड़ दिया गया है।
हिंदू राष्ट्र
पिछले 8 सालों से आरएसएस की संसदीय चुनाव लड़ने वाली शाखा, यानी भारतीय जनता पार्टी भी सत्ता के सारे उपकरणों का इस्तेमाल भारत को पूरी तरह बदल देने के लिए कर रही है। बदलाव, परिवर्तन एक सकारात्मक शब्द है। लेकिन उसका प्रतिक्रियावादी प्रयोग कैसे किया जा सकता है, यह भाजपा के कामों से स्पष्ट है। जनता को अधिकार चेतना से वंचित करके वापस प्रजा में बदल देना, भारत को धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र की जगह हिंदू राष्ट्र में परिवर्तित करना।
गणतांत्रिक संवेदना पर प्रहार का एक उदाहरण है जम्मू-कश्मीर के आख़िरी महाराजा हरि सिंह के जन्म दिन पर राजकीय अवकाश घोषित करना। बार-बार हिंदुओं को उनके राजाओं की याद दिलाई जा रही है। यह याद कर लेना अप्रासंगिक न होगा कि 1947 में आज़ादी के क़रीब आरएसएस, हिंदू महासभा, विनायक दामोदर सावरकर आदि रियासतों के रजवाड़ों से उनके राज को क़ायम रखने के लिए वार्ता कर रहे थे जबकि उन राज्यों की जनता राजशाही ख़त्म करने का संघर्ष कर रही थी।
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इस तेज़ी से छीजती हुई गणतांत्रिक चेतना का पुनर्वास भी एक राजनीतिक काम है। भारत के ग़ैर भाजपा दलों को यह भूलना नहीं चाहिए। तो इस यात्रा से यह अपेक्षा भी है कि वह इस पर विचार की प्रक्रिया शुरू करेगी।
बांटने की कोशिश
देश में अनेक प्रकार के विभाजन पैदा कर दिए गए हैं। हिंदुओं को मुसलमानों से दूर करने का हर उपाय आरएसएस और भाजपा कर रही है। वैसे ही ईसाइयों से। जाति का प्रश्न वापस लौट आया है। “उच्च जाति” की आक्रामकता बढ़ती जा रही है। समाज में बढ़ता हुआ जातिगत विभाजन एक ऐसी सच्चाई है जिसके ख़तरों पर हम बात नहीं कर रहे।
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उत्तर भारत के राज्यों में दक्षिण भारत के राज्यों के प्रति एक प्रकार की नफ़रत भरी जा रही है। उत्तर प्रदेश के चुनाव में कहा गया कि राज्य को केरल, तमिलनाडु, पश्चिम बंगाल नहीं बनने देना है। क्यों? केरल में बाढ़ के समय उत्तर भारत के राज्यों में केरल के ख़िलाफ़ प्रचार किया गया, कहा गया कि उन्हें मदद नहीं करनी है। आश्चर्य नहीं कि केरल में चल रही यात्रा को लेकर हिंदी में कोई दिलचस्पी नहीं है।
दुराव कई स्तरों पर बढ़ाया गया है, अलगाव गहरा किया गया है। क्या यह यात्रा इन अलगावों को भर पाएगी? क्या वह देश में मैत्री भाव का संचार कर सकेगी?
इन सारे सवालों के साथ आर्थिक प्रश्न भी हैं। जनता महँगाई से तबाह तो है लेकिन इससे उसका राजनीतिक निर्णय प्रभावित नहीं होता दीखता। क्या यह यात्रा महँगाई, बेरोज़गारी को राजनीतिक प्रश्न में तब्दील कर सकेगी? उम्मीदें बहुत हैं, यात्रा एक है। यह भी पूछा जा रहा है कि क्या यह राहुल गाँधी की नकारात्मक छवि को बदल पाएगी?
यात्रा राहुल गाँधी के नेतृत्व में कांग्रेस पार्टी की यात्रा है। यह तथ्य है। कुछ लोगों का कहना है कि राहुल गाँधी की तस्वीरों से भ्रम में न पड़ जाना चाहिए कि यह मात्र कांग्रेस पार्टी की यात्रा है। इसमें तमाम दूसरे क़िस्म के लोग शामिल हैं। आदतन कांग्रेस विरोधी भी। इसलिए, उनका तर्क है कि इसे मात्र राहुल गाँधी या कांग्रेस का अभियान नहीं मानना चाहिए। यह बात सुनने में कितनी ही अच्छी लगती हो, सच यह है कि यात्रा के लिए सारे संसाधन कांग्रेस जुटा रही है और इसका संचालन भी वही कर रही है। इस यात्रा में साधारण लोग भी क़रीब और दूर से शामिल हो रहे हैं। लेकिन इससे यात्रा का चरित्र नहीं बदलता। यह कांग्रेस की जनता से जुड़ने की पिछले कई दशकों की सबसे बड़ी कोशिश है।
कांग्रेस के सदस्यों को याद दिलाने का प्रयास भी कि राजनीति सत्ता हासिल करने का ज़रिया भर नहीं। वह सबसे पहले और आख़िर में जनता से ज़िंदा रिश्ता क़ायम रखने से, उसके सुख दुःख में शामिल रहने और उससे लगातार संवाद करते रहने से ही जीवंत रहती है।
यह यात्रा इसका एलान है कि कांग्रेस पार्टी न सिर्फ़ मरी नहीं है, जैसी कई लोगों की इच्छा रही है बल्कि उसमें इतनी बड़ी और लंबी जन गोलबंदी की कुव्वत है। यह भी कि भारत के गणतांत्रिक स्वप्न को याद दिलाने का दायित्व वह महसूस करती है, इसलिए यह यात्रा कर रही है।
यात्रा ज़रूर उन लोगों को एक जवाब है जो कांग्रेस के अंत का सपना देख रहे हैं। कांग्रेस के जाने माने नेता और सांसद, विधायक जब पार्टी छोड़कर भाजपा में शामिल हो रहे हों तो यह बतलाना कि पार्टी उनके जाने से मर नहीं जाएगी। धर्मनिरपेक्ष भारत के जीवित रहने और कांग्रेस के जीवित रहने में सीधा रिश्ता है, यात्रा का संदेश यही है।
2024 का लोकसभा चुनाव
यह 2024 के लोकसभा चुनाव की भी तैयारी है, जैसा आसिम अली ने लिखा है। लेकिन संकुचित अर्थ में नहीं। उस चुनाव का आधार तैयार करने का प्रयास भी है।
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इस यात्रा को अभी भी पढ़े लिखे लोगों का एक तबका, विशेषकर बुद्धिजीवी समुदाय हास्यपूर्ण विस्मय से देख रहा है। इस तबके के लोगों में कांग्रेस को लेकर एक प्रकार का संकोच है। इस यात्रा के उद्देश्य का स्वागत करते हुए लेख नहीं के बराबर लिखे गए हैं। जो लोग आरएसएस और भाजपा नेताओं के पक्ष में लिखने के लिए अवसर खोज लेते हैं, उनमें से कई इस यात्रा की सार्थकता और सफलता को ही संदिग्ध मानते हैं। इसका कारण कांग्रेस की विश्वसनीयता का कम होना है या ख़ुद इन लोगों में इन उद्देश्यों के प्रति आस्था का कमजोर होना है, इस पर विचार होना चाहिए।
यात्रा लोगों में शुभ भाव को जन्म दे रही है या ईर्ष्या और घृणा को? उत्तर हमें मालूम है। लेकिन हमारे भीतर ही अब शुभ के लिए संघर्ष करने की इच्छा दृढ़ नहीं रह गई है। इसलिए इसके किसी भी प्रयास को हम उदासीनता से देखते हैं।
यात्रा लंबी है। रास्ता आसान नहीं है। वातावरण इतना विषाक्त है कि यात्रियों को साँस लेने में काफ़ी श्रम करना होगा। लेकिन सद्भाव की आवश्यकता के प्रति भारत की जनता में विश्वास पैदा करना भी इस यात्रा का ही काम है। उसके लिए उत्तेजना की जगह धीरज और जीवट की ज़रूरत होगी। एक ही बात को दुहराने से थकना और ऊबना नहीं होगा। सच को साहस के साथ बोलना होगा। विशेषकर हिंदू समाज को ध्यान दिलाना होगा कि उसे हीन बनाया जा रहा है, उसे घृणा से भरा जा रहा है, मुसलमानों और ईसाइयों को यक़ीन दिलाना होगा कि देश उनके अधिकारों के साथ खड़ा है।
जैसा कहा है कि प्रेम की यह राह लंबी और काँटों भरी है। इसमें कोई शॉर्ट कट नहीं। अच्छा है कि कांग्रेस ने यह लंबा रास्ता तय करना ही तय किया है।
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