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बेंगलुरू हिंसा: दूसरे के धर्म पर टिप्पणी क्यों; हिंसा पूरी तरह ग़लत 

जो अपने धर्म के लोगों को अपने धर्म के किसी पक्ष पर आलोचना का अधिकार नहीं देता, वह दूसरे धर्म पर टिप्पणी करना चाहता है, इससे उसके मन में छिपे ज़हर का ही पता चलता है। क्या आप किसी को चिढ़ाना चाहते हैं, उसे बेइज्जत करना चाहते हैं? यह भी एक क़िस्म की हिंसा है।
अपूर्वानंद

बेंगलुरू में हुई हिंसा से क्या कोई प्रसन्न हो सकता है? क्या कोई उसका समर्थन कर सकता है? लेकिन ऐसा मानने वाले लोग इस समाज में हैं जो यह मानते हैं कि इस हिंसा की हिमायत करने वाले लोग सभ्य समाज में मौजूद हैं। हिंसा के दौरान ही जब बहुत सारे लोग हैरान थे और उसे समझने की कोशिश कर रहे थे, एक ख़ास तबके में एक विकृत प्रसन्नता देखी गई। ‘अब बोलो क्या कहते हो?’, ‘ये कौन लोग सड़क पर हैं और लूटपाट और आगज़नी कर रहे हैं?’, क्या तुममें इनका विरोध करने की हिम्मत है?’, इस तरह के चुनौती भरे सवाल पत्थर की तरह उछाले जाने लगे। 

ऐसे सवालों का निशाना ख़ासकर वे लोग हैं जिन्हें उदार, धर्मनिरपेक्ष कहा जाता है या जिन्हें गाली देने के लिए इन शब्दों के अंग्रेज़ी प्रतिरूपों को बिगाड़कर इन लोगों को अपमानित करने की कोशिश की जाती है। यह विचारणीय है कि भारतीय संस्कृति के इन अलंबरदारों को क्यों अंग्रेज़ी की ग्रंथि जकड़े हुए है!

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यह एक विकृत दिमाग़ ही सोच सकता है कि कोई हिंसा जायज़ भी है। बेंगलुरू की हिंसा किसी भी दृष्टिकोण से जायज़ नहीं ठहरायी जा सकती। वह स्वतःस्फूर्त भी नहीं थी। अगर किसी को फ़ेसबुक पर या कहीं अपने श्रद्धेय या उपास्य के प्रति कोई अपमानजनक टिप्पणी दिखलाई पड़ती है तो यह इसका तर्क नहीं बन जाता कि कोई सड़क पर उतर कर किसी भी तरह की हिंसा करे। वह भी उसके ख़िलाफ़ जिसने वह नहीं किया। 
अगर यह अपमान एक व्यक्ति ने किया है तो उसकी सजा सामूहिक तौर पर न तो उस व्यक्ति के परिजनों को दी जा सकती है, न उसके जातीय या धार्मिक समुदाय को। दूसरा, सजा देने का अधिकार किसी भी रूप में किसी समूह या व्यक्ति को नहीं मिल जाता।

संगठित और नियोजित हिंसा

भारत में अभी भी धार्मिक द्वेष या घृणा फैलाने के अपराध के लिए क़ानूनी प्रावधान हैं। उनका इस्तेमाल किया जा सकता है। लेकिन जब कोई  यह कहता है कि उसे किसी की टिप्पणी से चोट लगी है तो वह एक झुंड लेकर शिकायत दर्ज कराने नहीं जाएगा। इसका मतलब यह है कि उसे लगी चोट भी सच्ची नहीं है और उसकी तकलीफ़ भी  ईमानदार नहीं है। 

ऐसे व्यक्ति के लिए यह चोट एक साधन मात्र है, एक ज़रिया जिससे वह कुछ और हासिल करना चाहता है। इसलिए थाने पर भीड़ का इकट्ठा होना, उत्तेजित हो जाना, हिंसा पर उतर आना और फिर जिससे शिकायत है, उसके परिजनों के घरों को बर्बाद कर देना, यह किसी भी तरह स्वीकार्य प्रतिक्रिया नहीं है। यह स्वाभाविक नहीं है, यह संगठित है और नियोजित है।

ग़लत को स्थापित करने की कोशिश

इस हिंसा की व्यापक आलोचना मुसलमानों की तरफ़ से की गई है। फिर भी संतोष नहीं है। इस हिंसा के कारण पुलिस की कार्रवाई में तीन लोग जो मारे गए, वे तीनों मुसलमान हैं, इसके बावजूद अभी भी कहा जा रहा है कि पूरा सच सामने नहीं आया है। इसमें एक शैतानी इशारा है। कोई चीज़ जो नहीं है, उसके होने का संदेह पैदा करके फिर उसे स्थापित कर देने की मंशा है। जैसे महाराष्ट्र के पालघर में हिंदुओं द्वारा ही हिंदू ‘साधुओं’ की हत्या के बाद भी लगातार प्रचार जारी है कि उनकी हत्या के लिए या तो इसलामी या फिर मिशनरी साज़िश ज़िम्मेदार है। 

सामने आ पाएगा सच?

कुछ का कहना है कि यह हिंसा एक दूसरे राजनीतिक मक़सद से संगठित की गई और इसकी साज़िश गहरी है। उसकी जाँच कौन करेगा और उस जाँच से क्या सच का पता चल पाएगा, जब सरकार और राज्य की अन्य संस्थाओं में मुसलमानों के ख़िलाफ़ पहले से पूर्वग्रह और द्वेष भरा हुआ है? 

कुछ लोग कह रहे हैं कि अगर तुम्हारे धर्म के बारे में हम कुछ लिखें तो क्या तुम सड़क पर उतर आओगे? वे मानते हैं कि उन्हें अन्य धर्म के बारे में या उससे जुड़ी शख़्सियतों के बारे में अपमानजनक टिप्पणी करने का, उनपर छींटाकशी करने का अधिकार है।

कुछ लोग इस प्रकार की टिप्पणी को अकादमिक जिज्ञासा का बाना ओढ़ाते हैं। ऐसे लोगों को अपना मन टटोलना चाहिए कि क्या वाक़ई उन्हें दूसरे धर्मों  को लेकर ईमानदार जिज्ञासा है। अगर ऐसा है तो फिर उन्हें उन धर्मों को सहानुभूति से समझना होगा, उनके ग्रंथों का अध्ययन करना होगा, उनकी परंपराओं को समझना होगा। फिर उनके मन में कुछ सवाल उठ सकते हैं। लेकिन अगर वे किसी धार्मिक समुदाय के प्रति नफ़रत रखते हैं, उनपर अपना दबदबा क़ायम करना चाहते हैं, उन्हें अपमानित करने का बहाना खोजते रहते हैं तो उन्हें उनपर कुछ भी बोलने का कोई अधिकार नहीं है। 

गाँधी और मौलाना आज़ाद से सीखें

किसी ने इस पर विचार नहीं किया कि क़ुरान के अध्येता और जानकार और मुसलमानों के हितैषी गाँधी ने कभी क्यों नहीं इसलाम को लेकर या उसी तरह ईसाई धर्म को लेकर सवाल किए। वह अधिकार उनका नहीं था, यह उन्हें मालूम था। मौलाना आज़ाद ने, जो सिर्फ़ इसलाम के नहीं, बल्कि अन्य धार्मिक परंपराओं के भी जानकार थे,  उसी प्रकार कभी दूसरे धर्मों की आलोचना नहीं की। इसका आशय गंभीर है। वह यह कि आप जब तक किसी परंपरा के भीतर पूरी तरह नहीं हैं और वह आपकी हड्डियों में नहीं है, आपको उसकी आलोचना का अधिकार नहीं है, व्यंग्य या अपमान तो दूर की बात है।

जो अपने धर्म के लोगों को अपने धर्म के किसी पक्ष पर आलोचना का अधिकार नहीं देता, वह दूसरे धर्म पर टिप्पणी करना चाहता है, इससे उसके मन में छिपे ज़हर का ही पता चलता है। क्या आप किसी को चिढ़ाना चाहते हैं, उसे बेइज्जत करना चाहते हैं? यह भी एक क़िस्म की हिंसा है।

आज से तक़रीबन सौ साल पहले प्रेमचंद ने चतुरसेन शास्त्री की किताब ‘इसलाम का विषवृक्ष ‘ की समीक्षा करते हुए लिखा, “दोष सभी धर्मों में निकाले जा सकते हैं। क्या हिंदू धर्म दोषों से ख़ाली है? अपने-अपने समय में प्रभुता पाकर अत्याचार भी सभी जातियों ने किए हैं, लेकिन उन बीती बातों को कीने (रंजिश) की तरह पालना और उनका प्रचार करके जनता में द्वेष फैलाना, राष्ट्र को सर्वनाश की ओर ले जाना है।”

‘इसलाम का विषवृक्ष’ जैसी किताबें लिखने वालों का मक़सद सनसनी के साथ देश में सांप्रदायिक द्वेष को उत्तेजित करना है। प्रेमचंद लिखते हैं, “किसी जाति या धर्म का इतिहास लिखना बुरा नहीं, यदि निष्पक्ष होकर, पूरे अध्ययन और खोज से, सत्यासत्य पर पूरा विचार करते और उसके साथ सौजन्य का पालन करते हुए लिखा जाय।”

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“किसी एक धर्म को छाँट लेना और सारी बुराइयाँ उसी में दिखाना, अस्वस्थ और पक्षपातपूर्ण मन का परिचय देना है।”

इस लेख के ठीक पहले ‘हज़रत मुहम्मद की पुण्य स्मृति’ शीर्षक टिप्पणी में प्रेमचंद ने हज़रत मुहम्मद के जन्मदिन के मौक़े पर हुए जलसे में हज़रत पर पंडित सुन्दरलाल की तक़रीर का सारांश प्रस्तुत किया है। वे लिखते हैं, “आपके व्याख्यान में विद्वत्ता के साथ, इतनी शिष्टता, इतनी श्रद्धा और इतनी सच्चाई भरी हुई थी कि मुसलमानों का तो कहना ही क्या, हिंदू जनता भी मुग्ध हो गई। इतनी सदियों तक एक साथ, पड़ोस में रहने पर भी हिंदू और मुसलमान एक दूसरे के धार्मिक सिद्धांतों और सच्चाई से इतने अपरिचित हैं कि सुन्दरलाल के कथन ने बहुतेरे हिंदुओं को चकित कर दिया होगा।”

प्रेमचंद इस परस्पर अपरिचय को समाप्त करने के लिए ऐसे संयुक्त सम्मेलनों की ज़रूरत बताते हैं। क्या वे अपने जन्म के 140 साल गुजर जाने के बाद भी हिंदुओं में मुसलमानों को लेकर उतना ही अपरिचय और उतना ही द्वेष देखकर फिर न कहते कि मैंने जो कहा था, उसे फिर पढ़ो और उसपर अमल भी करो।

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