आज ईद है, बकरीद। कश्मीर के वे लोग जो हिंदुस्तान में हैं या उसकी राजधानी में हैं, आज जंतर मंतर पर ईद मनाने इकट्ठा हो रहे हैं। आपको भी दावत दी है। क्या आप उनके साथ ईद मनाएँगे?
वे अपने घर-बार से दूर हैं। जाना मुमकिन नहीं और जाना सुरक्षित भी नहीं। कश्मीर अभी फ़ौजी गिरफ़्त में है। आख़िर हिंदुस्तान दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी ताक़त है! उससे मुक़ाबला आसान तो नहीं।
आपने वह वीडियो देखा होगा जिसमें भारत के तीन सबसे ताक़तवर लोगों में से एक इस कर्फ़्यू के बीच कश्मीर की सड़क पर इत्मिनान से टहल रहा है, खा-पी रहा है, क़ुरबानी के लिए लाए गए मवेशियों की क़ीमत पूछ रहा है। इसे हिंदुस्तान के आधिकारिक सूचना विभाग ने दुनिया के लिए जारी किया है: देख लो! कश्मीर में सब कुछ ठीक है। कश्मीर में अमन है। लोग अमन-चैन से हैं।
हँस-बोल रहे हैं।
झूठ-छल की मज़बूत दीवार में दरार
दरार झूठ और छल की मज़बूत से मज़बूत दीवार में पड़ती है। सो, इस तसवीर में भी एक दरार है। भारत के मुख्य सुरक्षा सलाहकार जब ठिठोली के अन्दाज़ में बच्चे से पूछते हैं कि तुम ख़ुश हो तो वह असमंजस में सर हिलाता भर है। लेकिन एक बूढ़ा बिना उत्तेजित हुए, मुस्कुराते हुए हस्तक्षेप करता है: यहाँ कौन ख़ुश है! हतप्रभ और खिसियाए हुए सुरक्षा प्रमुख कहते हैं, बच्चे तो ख़ुश हैं!
वह बूढ़ा झूठ की जो दीवार खड़ी की जा रही है, उसमें अपनी सादा मुस्कराहट और एक शांत सवाल से सुराख़ कर देता है। उस छेद से हम कश्मीर की सचाई देख सकते हैं। कश्मीर की रूह में झाँक भी सकते हैं।
क्या उस बुज़ुर्गवार को इसकी सज़ा दी गई? हमें यह मालूम है कि कश्मीर में रियायत की जगह नहीं। सो, हम उम्मीद करें कि वे बुज़ुर्गवार और वह बच्चा, दोनों आज ईद मना रहे होंगे!
आत्मा की ताक़त
उस बुज़ुर्ग को यह हिम्मत कैसे आई? इसका जवाब कश्मीर की निगरानी कर रहे उसी हिंदुस्तान के एक क़त्ल कर दिए गए महात्मा की बात में है जिन्होंने कहा था कि एक चीज़ होती है आत्मा की ताक़त, अंग्रेज़ी में वे उसे ‘सोल-फ़ोर्स’ कहते थे, जो किसी भी मिलिट्री ताक़त से कहीं अधिक बलवती और स्थायी है। उस आत्मा को झुकना, तोड़ना मुमकिन नहीं हुआ है आज तक इंसानी इतिहास में। बंदूक़ जाम हो जा सकती है, उसमें जंग लग सकता है, फ़ौजी बूट सड़ और गल सकते हैं, लेकिन इस आत्मा को न पानी गला सकता है और न आग जला सकती है। सिर्फ़ लोभ और भय ही उसे कमज़ोर कर सकता है।
इस आत्मा का देह से रिश्ता है, लेकिन यह देह से आज़ाद भी हो सकती है। यह भी उसी महात्मा का कहा है कि आप मेरे शरीर पर क़ब्ज़ा कर सकते हैं, लेकिन मेरी आत्मा पर नहीं।
मुझे मुक्तिबोध याद आते हैं। ‘अँधेरे में’ कविता की पंक्तियाँ, यातना का एक दृश्य और आत्मा की उड़ान:
चाबुक -चमकार
पीठ पर यद्यपि
उखड़े चर्म की कत्थई-रक्तिम रेखाएँ उभरीं
पर, यह आत्मा कुशल बहुत है,
देह में रेंग रही संवेदना के
झनझन तारों को जबरन
समेटकर सब वह
वेदना-विस्तार करके इकट्ठा
मेरा मन यह, ज़ोर लगाकर,
बलात् उनकी छोटी-सी कड्ढी
गठान बाँधता सख़्त व मज़बूत
मानो कि पत्थर।
ज़ोर लगाकर, उसी गठान को हथेलियों से
करता है चूर-चूर,
धूल में बिखरा देता है उसको।
मन यह हटता है देह की हद से
जाता है कहीं पर अलग जगत् में।
पढ़ना बंद मत कीजिए:
विचित्र क्षण है,
सिर्फ़ है जादू
मात्र मैं बिजली
यद्यपि खोह में खूँटे से बँधा हूँ,
दैत्य हैं आस-पास
किंतु मैं बहुत दूर मीलों के पार वहाँ
गिरता हूँ चुपचाप पत्र के रूप में
किसी एक जेब में
वह जेब...
किसी एक फटे हुए मन की।
वही रूह है जो कश्मीर की देह से उड़ती हुई एक दावतनामे के तौर पर आज हमारी आँख के आगे है। उसी देह की आत्मा जिसे हमारे आपके पैसे से ख़रीदे गए हथियारों से छेदा जा रहा है।
यह एक अजीब-सा न्योता है। जिन्हें निशाना बनाया गया है, वे एक मौक़ा दे रहे हैं उन्हें, जिनके नाम पर उनका शिकार किया जा रहा है कि वे अपनी इंसानियत उनके साथ मिलकर हासिल कर लें। यह वह इंसानियत है जो अभी उनकी सरकार ने उनसे भी छीन ली है, सिर्फ़ कश्मीरियों से नहीं।
आततायी की रूह भी मरती है
इंसानियत सिर्फ़ उनकी नहीं कुचली जाती जिन पर क़ब्ज़ा किया जाता है, जो आततायी हैं उनकी रूह भी मर जाती है। क्योंकि वे अपने लिए सिर्फ़ नफ़रत और बददुआ ही इकट्ठा कर रहे हैं। इस क़ब्ज़े को ख़त्म करना आततायी का वास्तव में ख़ुद को आज़ाद करना है, उसे नहीं जिसके सीने पर वह चढ़ बैठा है।
अन्याय के इस रिश्ते में आततायी को बहुत ताक़त लगानी होती है। यह ग़ैर-इंसानी है। अपने चारों ओर अपने लिए घृणा से उनका भी दम घुटना तय है। यह क़ीमत क्यों दें?
कुछ लोग ईद के इस न्योते में इसमें चुनौती देख सकते हैं। कुछ की त्योरियाँ चढ़ सकती हैं कि हमने तो सोचा था कि तोड़ दिया हमें, लेकिन ये मुस्करा रहे हैं। ये त्योहार मना रहे हैं। और हमें शामिल होने बुला भी रहे हैं!
यह आपका-हमारा इम्तिहान है कि हम इस ईद के न्योते का कैसा जवाब देते हैं?
इस दावत में हम सबके भीतर सोयी हुई मित्रता और मानवता की संभावना की लौ को उकसाने का प्रयास है। इसमें मुक्तिबोध का यक़ीन है:
समस्वर, समताल,
सहानुभूति की सनसनी कोमल !!
क्या हम हिंदुस्तानियों को सहानुभूति की यह कोमल सनसनी महसूस हो रही है?
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