हैदराबाद में एक मुसलमान युवती आशरीन से शादी करने के कारण उसके भाई के द्वारा पी नागराजु की हत्या पर विरोध जताने के लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के छात्र संगठन ने बंगलोर में विरोध प्रदर्शन किया। उन्हें क्षोभ किस बात का था? क्या एक औरत और एक पुरुष के अपनी मर्जी से विवाह के फ़ैसले के कारण औरत के परिवारवालों द्वारा की गई हिंसा पर? या सिर्फ़ एक हिंदू के मारे जाने पर? यह प्रश्न इस वक़्त अरुचिकर जान पड़ सकता है लेकिन पूछा जाना आवश्यक है।
यह इसलिए कि आर एस एस की राजनीतिक शाखा भारतीय जनता पार्टी ने अपने शासनवाले प्रदेशों में ऐसे क़ानून पारित किए हैं जिनमें ऐसे विवाह या संबंध अपराध बन जाते हैं। ख़ासकर जब पुरुष मुसलमान हो। मान लिया जाता है कि अगर पुरुष मुसलमान है। तो विवाह के लिए उसने ज़रूर लड़की या औरत को धोखा दिया होगा। इसे उन दोनों का आपसी निर्णय नहीं माना जाता। अश्लील तरीक़े से उसे ‘लव जिहाद’ कहकर मुसलमानों के संगठित षड्यंत्र का हिस्सा बतलाया जाता है। और एक ऐसे रिश्ते के चलते पूरे मुसलमान समुदाय पर हिंसा को उचित ठहराया जाता है।
नागराजु और आशरीन के विवाह के इस त्रासद अंत के बाद हमें एक बार फिर इस प्रश्न पर विचार करना चाहिए कि क्यों पूरे भारतीय समाज में औरत को अपनी ज़िंदगी के बारे में कोई फ़ैसला, ख़ासकर वैवाहिक संबंध बनाने का निर्णय करने की आज़ादी नहीं है। आख़िरकार, जैसा खुद आशरीन ने बतलाया उसके भाई को यह क़तई कबूल न था कि वह अपनी मर्जी से शादी करे और वह भी एक हिंदू से। वह उसके लिए वर खोज रहा था, बल्कि खोज चुका था। जब आशरीन अपने निर्णय पर टिकी रही तो उसको उसके भाई के हाथों 13 घंटे तक हिंसा झेलनी पड़ी। फिर भी वह नहीं मानी और नागराजु से एक आर्य समाज मंदिर में विवाह कर लिया। यह आशरीन के भाई को बर्दाश्त नहीं हुआ और उसने भरे बाज़ार में दिन दहाड़े उसकी हत्या कर दी।
नागराजु जैसा नाम से मालूम होता है हिंदू था। लेकिन वह दलित भी था। तो क्या यह शादी आशरीन के भाई को इसलिए मंजूर न थी कि वह दलित था? आशरीन के मुताबिक़ उसके भाई को यह बात मालूम भी न थी। उसे बस इतना पता था कि वह हिंदू है। आशरीन की अपनी मर्जी से फ़ैसला करने की हिमाकत और वह भी एक ग़ैर मुसलमान से रिश्ता बनाने के लिए, इसने उसके भाई का क्रोध भड़का दिया और उसने आशरीन और नागराजु को इसकी सज़ा दी। नागराजु की हत्या करके।
हम इस क्रोध को जानते हैं। यह पितृसत्ता का कोप है। यह हिंदुओं, मुसलमानों या ईसाइयों का फर्क नहीं करता।
क्या यह हत्या सांप्रदायिक थी? एक स्तर पर यह थी क्योंकि आशरीन के भाई के दिमाग में यह बात थी कि हिंदू से इस प्रकार की आत्मीयता संभव नहीं और उचित नहीं। लेकिन इसके आगे इसे सांप्रदायिक नहीं कहा जा सकता।
इस विवाह के बाद मुसलमानों की तरफ़ से कोई सामूहिक विरोध-प्रदर्शन नहीं किया गया। कोई मुक़दमा किसी और मुसलमान संगठन ने नहीं किया। और हत्या के बाद हत्या के अभियुक्त के पक्ष में कोई प्रदर्शन नहीं किया गया। इसलिए इस हत्या का आरोप मुसलमान समुदाय पर नहीं लगाया जा सकता।
इस तरह के प्रकरण में किसी ‘हिंदू’ नेता की तरफ़ से ऐसा बयान शायद ही दिया जाता है। प्रकारांतर से उस हत्या को जायज़ बतलाया जाता है क्योंकि इस तरह के रिश्ते ही ग़लत हैं और अपराध हैं। फिर अपराध की सज़ा दे दी तो ग़लत क्या किया।
न तो इस हत्या और न अंकित सक्सेना की हत्या के बाद, जो इसी तरह एक मुसलमान लड़की से उसके संबंध के कारण लड़की के परिवारवालों ने कर दी थी, मुसलमान समुदाय की तरफ़ से इसके पक्ष में कोई तर्क नहीं दिया जा रहा। लेकिन इसके बाद मुसलमानों पर हमला करने का एक नया कारण ज़रूर मिल गया है।
क्या इस हत्या के बाद हम यह कहने लगें कि हिंसा दोनों तरफ़ से होती है? क्या यह हमें मुसलमानों के ख़िलाफ़ हिंसा का एक औचित्य खोजने का बहाना दे रही है? क्या इस हिंसा को उस हिंसा के समतुल्य माना जा सकता है जो मुसलमान चारों तरफ़ से पूरे भारत में झेल रहे हैं? कहना होगा दोनों किसी तरह से बराबर नहीं हैं।
लेकिन इसके सहारे मुसलमान समुदाय के ख़िलाफ़ नफ़रत और हिंसा को किसी भी तरह जायज़ नहीं ठहराया जा सकता। इससे हमारा ध्यान उस सामूहिक और भारत व्यापी हिंसा से हट नहीं जाना चाहिए जो मुसलमानों के ख़िलाफ़ की जा रही है। क्योंकि उस हिंसा को सत्ताधारी दल, पुलिस, प्रशासन और अप्रत्यक्ष रूप से न्यायपालिका का भी समर्थन प्राप्त है। मुसलमान की तरफ़ से अगर हिंसा हुई तो उसका पकड़ा जाना और उसे सज़ा मिलना तय है। यह हिंदुओं की तरफ़ से की जा रही हिंसा के अपराधियों के बारे में नहीं कहा जा सकता।
यह सब कुछ तब जब आशरीन ने इस दुःख की घड़ी में भी साफ़ साफ़ कहा कि उसके भाई को मालूम ही न था कि नागराजु की जाति क्या है। वह अपनी मर्जी के ख़िलाफ़, किसी ग़ैर मजहब के व्यक्ति से बहन के रिश्ते से आग बबूला था। इस वक्तव्य के बाद भी क्यों मुसलमानों पर यह हमला जारी है?
क्या यह मौक़ा मुसलमानों को अपने भीतर के जातिवाद से लड़ने का उपदेश देने का है? क्या जो यह उपदेश दे रहे हैं, वे दलितों और पिछड़ों को मुसलमान विरोधी हिंसा में बड़ी संख्या में हिस्सा लेते देखकर क्या यह कहेंगे कि वे अपनी जाति के कारण इस हिंसा में शामिल हैं? क्या वे यह कहेंगे कि चूँकि अशराफ मुसलमान दलित द्वेषी हैं, ऐसी हिंसा का एक कारण है? इस हिंसा के बाद अशराफ मुसलमानों पर आक्रमण की तीव्रता और कटुता से संदेह कुछ और होता है। क्या अशराफ हिंदुत्ववादी मुसलमान विरोधी हिंसा के शिकार नहीं? बल्कि वे तो एक दूसरी ईर्ष्या के चलते घृणा के शिकार भी हैं जो उनके आभिजात्य और उनमें से कुछ की संपन्नता के कारण उन्हें तबाह कर देने का सपना देखती है। फिर इस हत्या के बहाने उनपर आक्रमण क्यों?
नागराजु की हत्या के बाद जिस तरह मुसलमानों को कोने में धकेला जा रहा है, उससे फिर मालूम होता है कि मुसलमान विरोधी घृणा की जड़ें गहरी होता जा रही हैं और समाज को इसके बारे में सोचने की ज़रूरत है।
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