दक्षिण कोरियाई फिल्म निर्देशक बांग जून-हो, की 2017 में आई फिल्म ‘ओक्जा’ एक जेनेटिकली मॉडीफाइड सुअर ओक्जा और उसकी दोस्त युवा लड़की मिजा की कहानी है। दोनो में आपस में गहरा प्रेम है। फिल्म की शुरुआत में ही जब मिजा एक पहाड़ी से नीचे गिरने लग जाती है तब ओक्जा, मिजा को बचाने के लिए खुद कई फिट नीचे गिरने और मर जाने का जोखिम बड़े आराम से उठा लेती है। यह अनोखा रिश्ता है, उसके लिए प्रेरणा दोनो के बीच के ‘प्रेम’ में है। मिजा, ओक्जा को एक कॉर्पोरेट दैत्य से बचाने के लिए पूरे शहर से लड़ने को तैयार हो जाती है, जिस तरह ओक्जा, मिजा को बचाने के लिए लाभ-हानि नहीं देखती वैसे ही मिजा को भी अपनी उम्र और क्षमताओं से ज्यादा भरोसा अपने प्रेम पर है।
प्रेम अत्यंत व्यक्तिगत भाव है, यह दो लोगों के बीच
पनपता और गहरा होता है। सामाजिक-राजनैतिक
जीवन में ‘सौहार्द्र’ का वही स्थान है जो व्यक्तिगत जीवन में प्रेम का है। एक नेता
जो देश के सर्वोच्च पद पर बैठने का दावा कर रहा हो उसके अंदर सामाजिक सौहार्द्र की
समझ और उस सौहार्द्र के विस्तार की असीम संभावना होनी चाहिए। जो सौहार्द्र के लिए
जीवन का त्याग करने को आतुर हो, जो सौहार्द्र के लिए किसी भी पद को छोड़ने, किसी भी
अपमान को सहने, गाली सुनने और अपने तथाकथित समर्थकों के समर्थन से भी विमुख होने
को तैयार हो उसे देश की सर्वोच्च गद्दी मिलनी ही चाहिए। सामाजिक सौहार्द्र को बचाने और उसे बनाए रखने के लिए एक नेता को अपना सबकुछ दांव पर लगा देना चाहिए।
लेकिन जरा सोचिए एक ऐसा नेता जो गद्दी के लिए, फिर से सत्ता प्राप्ति के लिए, राजनीति के शिखर पर पाँच साल और गुजारने के लिए देश का सब कुछ दांव पर लगाने को तैयार हो, उसके लिए भारत के संविधान में विराजमान ‘भारत के लोग’ को कैसा दृष्टिकोण अपनाना चाहिए?
लोकसभा चुनाव के छठे चरण का मतदान सम्पन्न हो चुका
है और इन चुनावों के लिए हो रही राजनैतिक रैलियों में भारत के प्रधानमंत्री
नरेंद्र मोदी अब अपने नाम से देने वाली ‘गारंटी’ का नाम लेने से बच रहे हैं। उनका
चुनावी अभियान अब आत्म-प्रशंसा और ‘परनिंदा’ तक ही सीमित रह गया है। उनकी बातें
सुनकर बड़ा आश्चर्य हो रहा है कि यही इंसान पिछले दस सालों से भारत का नेतृत्व कर
रहा है। पूरी दुनिया भारतीय लोकतंत्र का सम्मान करती है।
भारत को दुनिया में महात्मा गाँधी, नेहरू, रवींद्रनाथ टैगोर, और बुद्ध के देश के रूप में मान्यता प्राप्त है। भारत के संविधान ने अपने नीति-निर्देशक सिद्धांतों में ‘वैज्ञानिक सोच’ को बहुत महत्वपूर्ण स्थान दिया है। इसका अर्थ यह है कि आज से 75 साल पहले भीमराव अंबेडकर समेत तमाम संविधान सभा के सदस्यों ने इस बात पर सहमति व्यक्ति की थी कि भारत की भावी सरकारें वैज्ञानिक सोच को एक जरूरी सिद्धांत के रूप में स्वीकार करेंगी और उसका प्रसार करेंगी।
2014 से पहले की ज्यादातर सरकारों ने चुनावों, राजनीति और कुर्सी के खेल के बावजूद मोटे तौर पर इस सिद्धांत के साथ ही चलने का फैसला किया लेकिन वर्तमान प्रधानमंत्री जिस तरह अपने वक्तव्य दे रहे हैं उससे नहीं लगता कि उन्हे किसी भी किस्म की वैज्ञानिक सोच से कोई भी वास्ता रह गया है। एक न्यूज चैनल के साथ बातचीत के दौरान पीएम मोदी ने कहा कि “पहले जब तक मां जिंदा थी मुझे लगता था कि शायद बायोलॉजिकली मुझे जन्म दिया गया है। माँ के जाने के बाद सारे अनुभवों को मैं जोड़ कर देखता हूँ तो…मैं कन्विंस हो चुका हूँ की परमात्मा ने मुझे भेजा है। ये ऊर्जा जैविक शरीर से नहीं मिली है, ये ऊर्जा ईश्वर मुझसे कुछ काम लेना है, इसलिए मुझे….दे रहा है और मैं कुछ नहीं हूँ, एक यंत्र हूँ जो ईश्वर मेरे रूप में मुझसे लेना चाहता है और इसलिए मैं जब भी कुछ करता हूँ तो मैं मानता हूँ शायद ईश्वर मुझसे लेना चाहता है....।”
पूरी दुनिया के सामने भारत का प्रधानमंत्री ऐसी अवैज्ञानिक बात कह रहा है कि उसका जन्म हमारे आपके तरह नहीं हुआ है, उन्हे लगता है कि उनकी उत्पत्ति माँ के पेट से ही नहीं हुई, उनकी उत्पत्ति दैवीय है।
वैसे तो
भारत में राम, कृष्ण, बुद्ध, महावीर सभी महापुरुष माँ के पेट से ही उत्पन्न हुए। बुद्ध
और महावीर ने तो स्वयं को ईश्वर मानने या किसी भी ईश्वर के अस्तित्व से भी इंकार
कर दिया था। लेकिन सोचने की बात है कि एक 144 करोड़ की आबादी वाला देश जिसकी 90
करोड़ आबादी 5 किलो अनाज पर निर्भर है, बेरोजगारी बेशुमार है और महंगाई से जीना
दूभर, शिक्षा और शोध में खर्च होने वाले रुपये विकसित देशों के मुकाबले कुछ भी
नहीं हैं, ऐसे देश का प्रधानमंत्री, वैज्ञानिक सोच से न सिर्फ दूर भाग रहा है
बल्कि उसका आशय यह भी है कि आने वाले पाँच सालों में, यदि वह सत्ता में आया तो,
उसे किस रूप में स्वीकारा जाए, उसकी गलतियों को कैसे समझा जाए, उसके अपराधों को,
उसके भ्रष्टाचारों को, कैसे समझा जाए।
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यदि पीएम मोदी को लगता है कि भगवान ही उनसे सब करवा रहा है तब क्या भगवान ने ही कहा था कि मणिपुर में चल रहे हिंसा बाजार को रोकने के लिए कोई कदम न उठाओ?
भगवान ने ही कहा था कि लाखों मणिपुरवासियों को सांत्वना देने के लिए मणिपुर झाँकने तक न जाना? क्या भगवान ने ही कहा था कि बृजभूषण शरण सिंह के खिलाफ कोई कार्यवाही न करना? प्रधानमंत्री जी आप तो अपनी नाकामियों को भगवान के पीछे छिपाना चाहते हैं? और समझते हैं कि जो जनता तमाम कठिनाइयों के बावजूद भारतीय लोकतंत्र को 75 साल दूर तक आराम से ले आई, वह मूर्ख है? उसे नहीं पता कि भगवान कौन है? अविनाशी कौन है?
मुझे खेद है कि आप पूर्णतया गलत हैं। भारत के लोगों,आपको नहीं लगता कि आपको न सिर्फ सतर्क हो जाना चाहिए बल्कि अपने अपने आरामगाह सेबाहर निकलकर इस अवैज्ञानिक सोच का लोकतान्त्रिक तरीके से सामना करना चाहिए?
पीएम नरेंद्र मोदी एक तरफ तो खुद को लगभग ‘अवतार’
की श्रेणी में ले आए हैं तो दूसरी तरफ यह अवतार सत्ता के लिए इतना अधिक लालायित
दिख रहा है कि आम सभ्य इंसान की भाषा के इस्तेमाल से भी दूर जा रहा है। हाल ही में
पीएम मोदी ने पटना में एक रैली को संबोधित करते हुए कहा कि- अगर इंडिया गठबंधन ….
वोट बैंक के लिए मुजरा करना चाहते हैं, तो वे
करने के लिए स्वतंत्र हैं। ये कैसे अवतार हैं जो अपने विपक्षियों की आलोचना में
इतना अधिक बह गए हैं कि असभ्यता पर उतारू हो गए हैं? क्या परमात्मा ने उन्हे ऐसी
भाषा इस्तेमाल करने के लिए ही धरती पर भेजा है?
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कैसे नेता हैं आप कि आपको विपक्षी नेताओं में वेश्यावृत्ति दिख रही है? क्या यही आपके संस्कार हैं? मुझे आशा है इससे बेहतर आपको सिखाया गया होगा लेकिन फिर भी आपको इतना नीचे तक ढह जाने और बह जाने की क्या जरूरत थी?
आपको सोचना चाहिए कि आपका नाम अहम नहीं है, भारत अहम है, भारत का प्रधानमंत्री अहम है। कम से कम देश के लिए देश की विरासत के लिए तो मर्यादा से पेश आते? काँग्रेस नेता प्रियंका गाँधी ने सही सवाल किया है कि- ‘आपने कहा है कि देश आपके परिवार के समान है। परिवार का जो मुखिया होता है, उसमें हमेशा परिवार के सदस्यों के प्रति आंखों में शर्म होती है, वो नहीं खोनी चाहिए।' क्या आपके पास इस सवाल से दूर भाग जाने के सिवाय कोई और रास्ता है प्रधानमंत्री जी?
144 करोड़ लोगों को अपना परिवार बताने वाले पीएममोदी की शुरुआत ‘संघ परिवार’ से हुई। और यदि विपक्ष की मानें तो आज भी उनका परिवारचंद उद्योगपतियों तक सीमित है। मुझे बार-बार यह बात दोहराने की जरूरत नहीं कि देशके तमाम अहम बंदरगाह और एयरपोर्ट्स पीएम मोदी के करीबी उद्योगपति मित्र गौतम अडानी को सौंप दिए गए हैं। क्या उन्हे खुद से यह सवाल नहीं करना चाहिए कि उनका परिवार कितना बड़ा है?
इसके बावजूद मोदी परिवारवाद पर न सिर्फ सवाल उठाते हैं बल्किबेटियाँ और पत्नियों के बारे में भी बोलते हुए सभ्यता नहीं बरत पाते। मोदीपटलीपुत्र की रैली में कहते हैं कि - एनसीपी वाले परिवार की बेटी,टीएमसी वाले परिवार का भतीजा, आम आदमी पार्टी के आका की पत्नी…ये सारे परिवारवादी मिलकर प्रधानमंत्री की कुर्सी पर म्यूजिकल चेयर खेलना चाहते हैं। जिन लोगों के नाम पीएम गिना रहे हैं उन सभी लोगों को लोकतान्त्रिक तरीके से चुनकर जनता ने भेजा है, वैसे ही जैसे उन्हे वाराणसी की जनता 10 साल से लगातार चुनकर भेज रही है।
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लोकतंत्र कोई पारिवारिक योजना नहीं है, आपको जनता के सामने जाना होता है, उनके सवालों का सामना करना होता है, उनकी आलोचना सुननी होती है, इसके बाद भी जनता आपको हरा सकती है।
जनता को किसी परिवार से नहीं अपने प्रतिनिधि से मतलब है, उसके द्वारा किए गए वादे से मतलब है, उस वादे के पूरे होने से मतलब है, रहन-सहन ठीक होने, रोजगार मिलने, और महंगाई कम होने से मतलब है। और सबसे अधिक भारत की जनता को सामाजिक सौहार्द्र से वास्ता है, क्योंकि अंततः उसका विकास, बिना सौहार्द्र के नहीं हो सकता। सौहार्द्र अर्थात प्रेम का व्यापक सामाजिक रूप जिसके बिना सामाजिक जीवन की कल्पना ही नही की जा सकती। यह बात कहने में कोई संकोच नहीं होना चाहिए कि भारत के वर्तमान प्रधानमंत्री अपने पूरे दस साल के कार्यकाल में इस सौहार्द्र को बनाने में न सिर्फ नाकामयाब रहे,बल्कि उसे क्षतिग्रस्त भी किया है।
पीएम और उनके अपने मुख्यमंत्रियों ने भारत के सामाजिक सौहार्द्र को बिगाड़ने में कोई कसर नहीं छोड़ी। उनके लिए चुनाव लोकतंत्र का पर्व या इसे नवीनीकृत करने का अवसर नहीं बल्कि ‘पाकिस्तान’, ‘मुसलमान’, ‘मंगलसूत्र’, ‘नवाब’, ‘शहजादे’, ‘मुजरा’ और ‘राम मंदिर’ के आगे कुछ है ही नहीं। जिस देश में गरीबी और भुखमरी सुरसा की तरह मुँह फैलाकर घूर रही है उस देश में आने वाले समय में ‘राम मंदिर पर ताला लग जाएगा’ कहकर देश को डराना या यह कहूँ भड़काना मर्यादित कृत्य नहीं है। काँग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने इस संबंध में मोदी जी से ट्विटर पर पूछा है कि- "म" से मोदी जी को..."म" से "मटन" याद आता है, "म" से "मछली" याद आता है, "म" से "मुग़ल" याद आता है, "म" से "मंगलसूत्र" याद आता है, "म" से "मुजरा" याद आता है… पर "म" से "मर्यादा" याद नहीं आती है, जो प्रधानमंत्री पद के लिए होनी चाहिए !
वास्तविकता तो यह है कि पीएम मोदी का सम्पूर्ण आकार और कद उनके भाषणों से नापा जा सकता है और ताज्जुब की बात यह कि इतने बड़े लोकतंत्र का दस सालों तक प्रधानमंत्री रहने के बावजूद उनका आकार चंद शब्दों और मुट्ठी भर ‘मित्रों’ तक ही सिमट कर रहा गया है। बड़ा ही दुर्भाग्यपूर्ण है।
यह भी आश्चर्य की बात है कि उनका सामना एक ऐसे नेता, राहुल गाँधी, से है जो ‘मोहब्बत की दुकान’ ही खोलकर बैठ गया है। उसे भरोसा है कि मोहब्बत अर्थात प्रेम से ही बात बनेगी। कहीं न कहीं राहुल ओक्जा फिल्म के मिजा की तरह हैं जो लगातार प्रेम के लिए खुद को दांव पर लगा रहे हैं, जो लगातार सौहार्द्र के लिए खुद को दांव पर लगा रहे हैं, बिना इस बात की चिंता करते हुए कि इसका चुनावी महत्व कितना कम या अधिक होने वाला है।
लेकिन जिस तरह पीएम मोदी की भाषा
लोकतान्त्रिक तटबंधों को तोड़कर व्यक्तिगत जीवन पर पहुँच रही है, और विपक्षी नेताओं
को वेश्यावृत्ति तक से जोड़ देना चाहती है उससे लगता है की पीएम मोदी किसी भी तरह
विपक्ष की ‘मोहब्बत की दुकान’ चलने नहीं देना चाहते। लेकिन जब जनता प्रेम व आपसी सौहार्द्र
को लोकतंत्र के मूल तत्व के रूप में स्वीकार कर ले, धर्म के आधार पर बँटने से
इंकार कर दे, अमर्यादित भाषणों पर नेता को आँख दिखाने लगे और धर्म को पीछे, कानून
व संविधान को सबसे आगे रखने को तैयार होने लगे तब फ़र्क नहीं पड़ता कि नेता खुद को
‘अवतारी’ कहें या उनके प्रवक्ता भगवान जगन्नाथ को उनका भक्त।
जनता लोकतंत्र में बटन दबाकर अच्छे-अच्छे अवतारी नेताओं को इंसान रूप में परिवर्तित करने की क्षमता रखती है। 4 जून को पता लगेगा कि अवतार अपनी जगह खड़ा है या अब राजनीति के रसातल में पहुँच चुका है।
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